Monday, August 31, 2009

शान्ति पांडे - बुआ नानी

वैसे तो बड़ा भरा-पूरा परिवार था। बहुत से चचेरे, ममेरे भाई बहिन। परन्तु अपने पिता की अकेली संतान थीं वह। शान्ति पाण्डेय। मेरे नानाजी की तहेरी बहिन। अपनी कोई संतान नहीं थी मगर अपने भाई बहनों, भतीजे-भतीजियों और बाद में उनके भी बच्चों और पोते-पोतियों के लिए वे सदा ही ममता की प्रतिमूर्ति थीं।

वैसे तो मेरी माँ की बुआ होने के नाते रिश्ते में मेरी नानी थीं मगर अपनी माँ और अपने अन्य भाई बहनों की तरह मैंने भी हमेशा उन्हें शान्ति बुआ कहकर ही पुकारा। उन्होंने सरकारी स्कूल में बच्चियों को संगीत पढ़ाया। उनका अधिकाँश कार्यकाल पहाड़ों पर ही बीता। गोपेश्वर, चमोली, पिथौरागढ़ और न जाने कहाँ-कहाँ। एक बार नैनीताल में किसी से मुलाक़ात हुई - पता लगा कि वे शान्ति बुआ की शिष्या थीं। एक शादी में दार्चुला के दुर्गम स्थल में जाना हुआ तो वहाँ उनकी एक रिटायर्ड सहकर्मिणी ने बहुत प्रेम से उन्हें याद किया।

मेरे नानाजी से उन्हें विशेष लगाव था इसलिए बरेली में नानाजी के घर पर हम लोगों की बहुत मुलाक़ात होती थी। उनके पिता (संझले बाबा) के अन्तिम क्षणों में मैं बरेली में ही था और मुझे अन्तिम समय तक उनकी सेवा करने का अवसर मिला था। संझले बाबा के जाने के बाद भी शान्ति बुआ हमेशा बरेली आती थीं। उनका अपना पैतृक घर भी था जिस पर उन्हीं की एक चचेरी बहन ने संझले बाबा से मनुहार करके रहना शुरू कर दिया था। फिर वे लोग उस घर पर काबिज़ हो गये।

मैं अपने बचपने में और सब लोगों के साथ उन पर भी बहुत बार गुस्सा हुआ हूँ और उसका बहुत अफ़सोस भी है। मगर उन्होंने कभी किसी बात का बुरा न मानकर हमेशा अपना बड़प्पन का आदर्श ही सामने रखा। रिटायर होकर बरेली आयीं तब तक नानाजी भी नहीं रहे थे। उनके अपने घर पर कब्ज़ा किए हुए बहन-बहनोई ने खाली करने से साफ़ इनकार कर दिया तो उन्होंने एक घर किराए पर लेकर उसमें रहना शुरू कर दिया। पिछले हफ्ते बरेली में पापा से बात हुई तो पता लगा कि बीमार थीं, अस्पताल में भर्ती रहीं और फिर घर भी आ गयीं। माँ ने बताया कि अपने अन्तिम समय में वे यह कहकर नानाजी के घर आ गयीं कि इसी घर में मेरे पिता का प्राणांत हुआ और किस्सू महाराज (मेरे नानाजी) ही उनके सगे भाई हैं इसलिये अपने अन्तिम क्षण वे वहीं बिताना चाहती हैं। और अब ख़बर मिली है कि वे इस नश्वर संसार को छोड़ गयी हैं। अपनी नानी को तो मैंने नहीं देखा था मगर शान्ति बुआ ही मेरी वो नानी थीं जिन्होंने सबसे ज़्यादा प्यार दिया।

चित्र में (बाएँ से) शान्ति बुआ, नानाजी और उनकी बहन।

Thursday, August 27, 2009

डैलस यात्रा - [इस्पात नगरी से - १६]

पिछ्ला हफ्ता काफी व्यस्त रहा इसलिए न तो कुछ नया लिखा गया और न ही ज़्यादा कुछ पढ़ सका। डैलस की भीषण गरमी में अपने मित्रों के साथ थोडा समय आराम से गुज़ारा। यात्रा काफी विविध रही। पर्यटन, नौकायन, काव्य-पाठ, मन्दिर-यात्रा आदि भी हुआ और जमकर भारतीय भोज्य-पदार्थों का स्वाद उठाने का आनंद भी लिया। यात्रा के कुछ चित्र आपके लिए प्रस्तुत हैं।


ग्रैंड प्रेयरी के वैक्स संग्रहालय की एक झलक

नीलेश और डॉक्टर फिल

मैं और मेरी झांसी की रानी

बरसाना धाम में मोर का जोड़ा

बरसाना धाम के बाहर हम लोग

Monday, August 17, 2009

सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान

कल शाम की सैर के बाद घर जाते हुए मैं सोच रहा था कि क्या शाहरुख खान के इस आरोप में दम है कि एक अमेरिकी हवाई अड्डे पर उनसे हुई पूछताछ के पीछे उनके उपनाम का भी हाथ है। पता नहीं ... मगर हल्ला काफी मचा। पिछले दिनों कमल हासन के साथ भी इसी तरह की घटना हुई थी। फर्क बस इतना ही था कि तब कहीं से कोई फतवा नहीं आया था और किसी ने भी इस घटना के नाम पर धर्म को नहीं भुनाया था। मैं सोच रहा था कि इस्लाम के नाम पर दुनिया भर में हिंसा फैलाने वालों ने इस्लाम की छवि इतनी ख़राब कर दी है कि जब तब किसी शाहरुख खान से पूछताछ हो जाती है और किसी इमरान हाशमी को घर नहीं मिलते। आख़िर खुदा के बन्दों ने इस्लाम का नेक नाम आतंकवादियों के हाथों लुटने से बचाया क्यों नहीं? मैं शायद सोच में कुछ ज़्यादा ही डूबा था, जभी तो सैय्यद चाभीरामानी को आते हुए देख नहीं पाया।

सैय्यद चाभीरमानी से आप पहले भी मिल चुके हैं। ज़रा याद करिए सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा वाली मुलाक़ात! कितना पकाया था हमें दाढी के नाम पर। हमारी ही किस्मत ख़राब थी कि अब फ़िर उनसे मुलाक़ात हो गयी। और इत्तेफाक देखिये कि शाहरुख खान को भी अपनी फ़िल्म की पब्लिसिटी कराने के लिए इसी हफ्ते अमेरिका आना पडा।

सैय्यद काफी गुस्से में थे। पास आए और शुरू हो गए, "अमेरिका में एयरपोर्ट के सुरक्षा कर्मियों की ज्यादती देखिये कि खान साहब से भी पूछताछ करली।"

"अरे वो सबसे करते हैं। कमल हासन से भी की थी और मामूती से भी। " हमने कड़वाहट कम करने के इरादे से कहा। बस जी, चाभीरामानी जी उखड गए हत्थे से। कहने लगे, "किंग खान कोई मामूली आदमी नहीं है। मजाल जो भारत में कोई एक सवाल भी पूछ के देख ले किसी शाही खान (दान) से! ये अमेरिका वाले तो इस्लाम के दुश्मन हैं। काफिरों की सरकार है वहाँ।"

"काफिरों की सरकार के मालिक तो आपके बराक हुसैन (ओबामा) ही हैं" हमने याद दिलाया।

"उससे क्या होता है? मुसलमानों के दिलों में बिग डैडी अमेरिका के खिलाफ नफरत ही रहेगी। यह गोरे तो सब हमसे जलते हैं" उन्होंने रंगभेद का ज़हर उगला।

हम जानते थे कि सैय्यद सुनेंगे नहीं फ़िर भी कोशिश की, "अरे वे गोरे नहीं काले ही हैं हम लोगों की तरह"

"हम लोगों की तरह? लाहौल विला कुव्वत? हम लोग कौन? काले होंगे आप। हमारा तो खालिस सिकन्दरी और चंगेजी खून है।"

हम समझ गए कि अगर चूक गए तो सैय्यद को बहुत देर झेलना पडेगा। इसलिए बात को चंगेज़ खान से छीनकर वापस शाहरूख खान तक लाने की एक कोशिश कर डाली। समझाने की कोशिश की कि वहाँ हवाई अड्डे पर सबकी चेकिंग होती है, जोर्ज क्लूनी की भी और टॉम हैंक्स की भी जिन्हें सारी दुनिया जानती है तो फ़िर खान साहब क्या चीज़ हैं। मगर आपको तो पता ही है कि जो मान जाए वो सैय्यद चाभीरामानी नहीं।

बोले, "बादशाह खान का कमाल और किलूनी जैसे मामूली एक्टरों से क्या मुकाबला? उनके फैन पाकिस्तान से लेकर कनाडा तक में है।" सैय्यद इतना बौरा गए थे कि उन्हें किंग खान (शाहरुख) और बादशाह खान (भारत रत्न फ्रंटियर गांधी स्वर्गीय खान अब्दुल गफ्फार खान) में कोई फर्क नज़र नहीं आया। हमने फ़िर समझाने की कोशिश की मगर वे अपनी रौ में खान-दान के उपादान ही बताते रहे।

हमें एक और खान साहब याद आए जिनका मन किया तो अभयारण्य में जाकर सुरक्षित, संरक्षित और संकटग्रस्त पशुओं का शिकार कर डालते है। हुई किसी सुरक्षाकर्मी की हिम्मत जो कुछ पूछता? हम सोचने लगे कि अगर पशु-हिंसा का विरोध करने वाला भारतीय विश्नोई समाज न होता तो पूरा जंगल एक खान साहब ही खा गए होते। मगर सैय्यद अभी चुप नहीं हुए थे। बोले, "खान तो हर जगह बादशाह ही होता है। बाकी सबसे ऊपर। दुबई, मुम्बई, कराची हो या लन्दन और न्यूयॉर्क हो।"

मुझे याद आया जब एक और खान साहब ने दारू पीकर सड़क किनारे सोते हुए मजलूमों पर गाडी चढ़ा दी थी पुराने ज़माने के तैमूरी या गज़न्दिव बादशाही की तरह। बस मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए। समझ आ गया कि यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि ९/११ में ३००० मासूमों को खोने के बाद भी अमेरिका को अपने ही हवाई अड्डे पर अनजान लोगों से पूछताछ करने का हक है या नहीं। सवाल यह है कि बादशाह भी वहाँ मनमानी क्यों नहीं कर सकता। बुतपरस्ती कुफ़्र है तो चाभीरमानी शख्सियतपरस्ती कर लेंगे, लेकिन करेंगे ज़रूर।

अगर आप पिट्सबर्ग में नहीं रहते हैं तो सय्यद चाभीरामानी से तो नहीं मिल पायेंगे। मगर क्या फर्क पड़ता है उनके कई और भाई इस घटना का इस्लामीकरण करने को तैयार बैठे हैं। और ऐसे लोग कोई अनपढ़ गरीब नहीं हैं बल्कि पत्रकारिता पढ़े लिखे जूताकार हैं।

सैय्यद ने ध्यान बँटा दिया इसलिए लित्तू भाई की अगली कड़ी आज नहीं प्रस्तुत कर रहा हूँ। परन्तु शीघ्र ही वापस आता हूँ। तब तक के लिए क्षमा चाहता हूँ।

Friday, August 14, 2009

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं! [इस्पात नगरी से- १५]

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सभी पाठकों को १५ अगस्त के शुभ अवसर पर मंगलकामनाएं। हमारा गणतंत्र फले फूले और हम सब भारत माता की सच्ची सेवा में अपना तन मन धन लगा सकें और मन, वचन, कर्म से सत्य के मार्ग पर चलें, इसी कामना के साथ पिट्सबर्ग में हर वर्ष मनाये जाने वाले स्वाधीनता दिवस समारोह की कुछ तस्वीरें लगा रहा हूँ। यह चित्र पिछले वर्षों के समारोहों से लिए गए हैं। बड़ा आकार देखने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें।













स्वतन्त्रता दिवस के इस शुभ अवसर पर रेडियो प्लेबैक इंडिया पर सुनें स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि में एक देशभक्त माँ-बेटे का द्वंद प्रेमचंद की कहानी कातिल
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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Wednesday, August 12, 2009

लित्तू भाई - भाग २

कथा की भुमिका पढने के लिए यहाँ क्लिक करे.
लित्तू भाई की सप्ताहांत गोष्ठियां बहुत खुशनुमा होती थीं। मेरे अलावा लगभग सभी आगंतुक या तो कलाकार थे या लेखक, शायर, गीतकार, संगीतकार - किसी न किसी कला के माहिर। एक साहब तो गणित पहेलियों और ताश के जादू के माहिर थे। अगर आप देश के बाहर रहते हुए भी तमाम बड़े-बड़े लोगों से सहजता से मिलना चाहते हों तो लित्तू भाई के घर से बेहतर कोई जगह हो ही नहीं सकती है। उनकी महफिलों में मैं एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के बेटे से भी मिला और और एक सेनाध्यक्ष की बेटी से भी। छोटे-मोटे नौकरशाह तो मामूली बात थे। भारतीय ही नहीं पाकिस्तानी डॉक्टर, प्रोफ़ेसर आदि सब से उनका दोस्ताना था।

पहले तो मुझे आश्चर्य होता था कि अंग्रेजी के तीन वाक्य भी सही न बोल सकने वाला यह साधारण सा व्यक्तित्व इतना मशहूर कैसे हुआ। फिर सोचता, "खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।" इन गोष्ठियों में लगातार जाते रहने से उनके प्रति मेरी धारणा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। मैंने पहचाना कि लित्तू भाई में कई दुर्लभ गुण थे। शायर तो वे थे ही साथ ही एक ज़बरदस्त किस्सागो भी थे। कैसा भी मौका हो, लित्तू भाई के पास उसके हिसाब का एक किस्सा ज़रूर मिल जाएगा। अपने चुटकुलों में वे अक्सर अपना ही मज़ाक उडाया करते थे। उनमें किसी रोते हुए व्यक्ति को पल भर में हंसा देने की अद्भुत क्षमता थी।
उनका व्यक्तित्व इतना हल्का लगता था कि पहली नज़र में कोई भी नज़रंदाज़ कर दे। मगर उनकी बातों में कुछ ऐसी कशिश थी की एक बार सुनने वाला फिर-फिर सुनना चाहेगा। भले ही उच्च शिक्षित न हों मगर उन्होंने पढा बहुत था। खासकर धर्म और अध्यात्म पर वे घंटों बोल सकते थे। बच्चों में उन्हें खासी रूचि थी और बच्चे भी उनसे एकदम हिल-मिल जाते थे। खेल-खेल में ही बच्चों को अच्छी बातें सिखाने में उनका कोई सानी नहीं था। लित्तू भाई साथ हों तो माँ-बाप अपने बच्चों के बारे में बेफिक्र होकर जो चाहे कर सकते थे।

जैसा मैंने देखा लित्तू भाई बहुत चतुर व्यक्ति थे। उनका नज़रिया भी सबसे अलग कुछ ऐसा था कि कैसी भी समस्या हो, वे उसका हल ढूंढ ही निकालते थे। लोग अक्सर अपनी परेशानियां उनसे बांटते थे और वे उन सबका कुछ न कुछ हल निकाल ही लेते थे। मुझे यकीन है कि उनके कंधे को बहुत आँखों ने गीला किया होगा। मजाल है लित्तू भाई ने कभी किसी की व्यक्तिगत बात का ज़िक्र कभी किसी और से किया हो।

कह नहीं सकता कि उन्हें बागवानी ज़्यादा पसंद थी या गायन मगर मेरा ऐसा ख्याल है कि वे कुछ भी करते रचनात्मक ज़रूर होते थे। उनके पैदाइशी कलाकार होने की वजह से ही जब "संस्कार" द्वारा गर्मियों की छुट्टियों में चलाये जाने वाले "युवा शिविर" के संचालक के रूप में जब पहली बार मेरा चयन हुआ तो कला और साज-सज्जा के काम के लिए मैंने उनकी सहायता मांगी। इस शिविर में हर साल देश भर से किशोर और युवा वर्ग के चार-पांच सौ लोग भाग लेते थे। जैसी कि उम्मीद थी लित्तू भाई ने मेरा आमंत्रण बड़े गरिमा से स्वीकार कर लिया।

हम सात-आठ स्वयं-सेवक हर शाम को एक कुंवारे मित्र के खाली पड़े घर में इकट्ठे होने लगे। वहीं बैठकर हम शिविर परिसर और मंच की सज्जा आदि के बारे में विचार करते थे। लित्तू भाई हर शाम बिला-नागा हमारे बीच आते और पारस की तरह अपने सुझावों से हर काम को बेहतर बना देते। शिविर में भाग लेने वाले बच्चों को भेजे जाने वाले प्रवेश-पत्रों की जगह उन्होंने पुराने सम्राटों के लिखे पत्रों की तरह लिपटे हुए कागज़ का मुट्ठा बनाने का सुझाव दिया। जब हमने छपे हुए कागज़ को उनके बताये तरीके से चाय के भीगे पानी से निकालकर उसके किनारे मोमबत्ती से जलाकर सिरकी चिपकाईं तो वह सचमुच में एक अति प्राचीन पत्र जैसा लगने लगा। इसी तरह से शिविर के द्वार, तोरण आदि बनाने में उन्होंने बहुत सहायता की। यूं समझिये कि विचार उनके थे हमने तो बस उनके विचारों की मजदूरी की थी। बच्चों के नाम की तख्तियों से लेकर टी-शर्ट के डिजाइन तक हर काम में लित्तू भाई की कला झलक रही थी।

सम्राट के पत्र से हमारा काम अनजाने ही कुछ ऐसी दिशा में मुडा कि सजावट का काम पूरा होते-होते उस बार के शिविर की थीम ही राजपुताना हो गयी। इसलिए जब फुर्सत के प्रतियोगितात्मक खेलों की बारी आयी तो उसमें लित्तू भाई का सुझाया हुआ गदका का खेल अपने आप ही आ गया। लित्तू भाई के सरल निर्देशों का अनुसरण करके हमने आनन-फानन में कई हल्की गदाएँ बना कर उन्हें सुनहरे रंग से रंग दिया। इस खेल में इनाम देने के लिए उन्होंने एक आला दर्जे की गदा अपने कुशल हाथों से स्वयं ही बनाई।
[क्रमशः]
कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:

खाली प्याला
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले
एक ब्राह्मण की आत्मा

Tuesday, August 11, 2009

लित्तू भाई - गदा का रहस्य - कहानी - भाग 1

शायद इन लोगों की बुद्धि में ही कोई कमी है। या तो इन्हें घटना की पूरी जानकारी ही नहीं है या फिर यह लित्तू भाई को बदनाम करने की एक गहरी साजिश है। ये लोग जैसा चाहें कहें और जो चाहे यकीन करें। मगर मैं इनकी बातों में क्यों आऊँ? मैं तो लित्तू भाई को बहुत करीब से जानता हूँ। वे ऐसा नहीं कर सकते - कभी भी - किसी भी हालत में। इंसान गलतियों का पुतला है। इस पूरे घटनाक्रम में भी कहीं कोई बड़ी गलती ज़रूर हुई है वरना लित्तू भाई का नाम ऐसे जघन्य अपराध से नहीं जुड़ सकता था।

अपने घर से बाहर जितने भी लोगों को मैं जानता हूँ, उन सबमें, लित्तू भाई सबसे भले और सच्चे इंसान हैं। उम्र में मुझसे दो-एक साल बड़े हैं मगर लगते कहीं उम्रदराज़ हैं। अपने कपड़े-लत्ते और दिखावे के प्रति बिल्कुल बेपरवाह लित्तू भाई का नफासत से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कभी किसी इंसान की औकात उसके कपडों से नहीं लगाई। इसके उलट वे "सादा जीवन उच्च विचार" के सच्चे अनुयायी हैं।

लित्तू भाई से मेरी पहली मुलाक़ात दद्दू के घर पर हुई थी। दद्दू मेरे चचाजात भाई की ससुराल वालों के दूर के रिश्तेदार हैं। रिश्ता तो वैसे काफी दूर का है मगर अमेरिका में वे मेरे अकेले रिश्तेदार हैं इसलिए किसी अपने सगे से भी बढ़कर हैं। दद्दू का मिजाज़ थोडा फ़ल्सफ़ाना सा है। लित्तू भाई का भी ज़मीनी हकीकत में कोई ख़ास भरोसा नहीं है। आर्श्चय नहीं कि इन दोनों की खूब छनती है।

शुरू में तो अपनी छितरी मूँछें, बिखरे बाल और बेतुके कपडों की वजह से लित्तू भाई ने मुझे विकर्षित ही किया था मगर जब धीरे-धीरे मैंने उन्हें पहचानना शुरू किया तो उनसे दोस्ती सी होने लगी। हँसोड़पन तो उनकी खूबी थी ही, मुझे वे बुद्धिमान भी लगे। अनजाने में ही मैं उनके अन्तरंग समूह का हिस्सा बन गया। आलम यह था कि मेरे सप्ताहांत भी लित्तू भाई के घर पर जमने वाली बैठकों में ही गुजरने लगे।
[क्रमशः]

Monday, August 10, 2009

श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले

हुतात्मा खुदीराम बसु
(3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) 
कल की बात भी आज याद रह जाए, वही बड़ी बात है। फ़िर एक सौ एक साल पहले की घटना भला किसे याद रहेगी। मात्र 18 वर्ष का एक किशोर आज से ठीक 101 साल पहले अपने ही देश में अपनों की आज़ादी के लिए हँसते हुए फांसी चढ़ गया था।

आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।

तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।

मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।

पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी

सम्बंधित कड़ी: नायकत्व क्या है?

Thursday, August 6, 2009

माँ - एक कविता

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माँ कितना बतलाती हो तुम
क्यूँ इतना समझाती हो तुम

संतति की ममता में विह्वल
क्यों इतना घबराती हो तुम

लड्डू समझ निगल जायेंगे
कीड़ा समझ मसल जायेंगे

जैसे नन्हा बालक हूँ मैं
सिंहों में मृगशावक हूँ मैं

माना थोड़ा कच्चा हूँ मैं
पर भोला और सच्चा हूँ मैं

सच की राह नहीं है मेला
चल सकता मैं सदा अकेला

काँटे सभी हटा सकता हूँ
बंधन सभी छुड़ा सकता हूँ

उसके ऊपर तेरा आशिष
अमृत में बदले सारा विष

माँ कितना बतलाती हो तुम
बस ममता बरसाती हो तुम

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Sunday, August 2, 2009

यह बच्चा कैसा बच्चा है

आज तो हम को पागल कह लो पत्थर फेंको तंज़ करो
इश्क़ की बाज़ी खेल नहीं है खेलोगे तो हारोगे (इब्ने इंशा)

वैसे तो अब तक दुनिया में इतने कवि हुए हैं की हम सब अपने-अपने प्रिय कवि आपस में बाँट लें तो भी शायद कोई कवि दोहराया न जाय। मगर इनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो औरों से बहुत अलग हैं। मुझे तो नए पुराने बहुत से कवि और गीतकार पसंद हैं। बहुत ज़्यादा पढने का दावा तो नहीं कर सकता हूँ, लेकिन जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा सुना है वह भी अच्छे लेखन को समझने के लिए बहुत है। इब्ने-इंशा की यह कविता मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक हैं। आपने शायद पहले भी पढी हो फ़िर भी भावनाएं बांटने के लोभ से बच नहीं सका। ।
सीधे मन को आन दबोचे, मीठी बातें सुन्दर लोग
मीर नज़ीर कबीर औ' इंशा सब का एक घराना हो
यह बच्चा काला-काला सा
यह काला सा मटियाला सा
यह बच्चा भूखा-भूखा सा
यह बच्चा सूखा-सूखा सा
यह बच्चा किसका बच्चा है

जो रेत पे तन्हा बैठा है
न उसके पेट में रोटी है
न उसके तन पर कपड़ा है
ना उसके सिर पर टोपी है
ना उसके पैर में जूता है
ना उसके पास खिलौना है
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना उसका जी बहलाने को
कोई लोरी है कोई झूला है
न उसकी जेब में धेला है
ना उसके हाथ में पैसा है
ना उसके अम्मी-अब्बू हैं
ना उसकी आपा-खाला है
यह सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है

यह सहरा कैसा सहरा है
न इस सहरा में बादल है
न इस सहरा में बरखा है
न इस सहरा में बोली है
न इस सहरा में खोशा है
न इस सहरा में सब्जा है
न इस सहरा में साया है
यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का साया है

यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है

यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किस की दुनिया है
इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्जा है
कहीं बादल घिर-घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटारियाँ है
कहीं महफ़िल है कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाजार सजे
यह रेशम है यह दीबा है

यहीं गल्ले के अम्बार लगे
सब गेहूँ धान मुहय्या है
कहीं दौलत के संदूक भरे
हां तांबा सोना रूपया है
तुम जो मांगो सो हाजिर है
तुम जो चाहो सो मिलता है

इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है
यह किस धरती के टुकड़े हैं
यह किस दुनिया का हिस्सा है

हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
यह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बंदे हैं
सब बंदों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फर्क नहीं
इस धरती पर हक सबका है

यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
क्या मुश्किल है हो सकता है
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
हाँ दूध यहाँ बहुतेरा है
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा है
इस बच्चे को कोई गोद में ले
इंसान जो अब तक जिंदा है
फ़िर देखें कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है

इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है वो सब का है
सब अपने हैं कोई गैर नहीं
हर चीज में सबका साझा है
जो बढ़ता है जो उगता है
यह दाना है या मेवा है
जो कपड़ा है जो कंबल है
जो चांदी है जो सोना है
वह सारा इस बच्चे का है
जो तेरा है जो मेरा है

यह बच्चा किसका बच्चा है
यह बच्चा सबका बच्चा है।

* संबन्धित कड़ियाँ *
इब्न ए इंशा के जन्मदिन पर

Saturday, August 1, 2009

छुरपी के महादेव

कुछ अधिक नहीं तो भी कोई बीसेक साल तो हो ही गए होंगे छुरपी देखे हुए। लेकिन आज भी उसका रंग-रूप और स्वाद वैसे ही याद है जैसे कि अभी-अभी उसका रसास्वादन किया हो। अपने सिक्किम और लद्दाख के (सामान्यतः मांसाहारी) मित्रों से जब पहली बार छुरपी खाने को मिली तो मन में यह बात ज़रूर आयी कि सुपारी जैसी कड़क मगर दूध की रंगत वाला यह पदार्थ भोज्य है भी कि नहीं। मगर मित्र तो वही होते हैं जो विश्वसनीय हों। मेरे पूछने से पहले ही उन्होंने बताया कि छुरपी हिमालय के अतिशय ठंडे इलाकों में याक या चौरी के दूघ से बनाई जाती है। पहाडों पर पाए जाने वाले याक और चौरी के दूध का लगभग ११ प्रतिशत भाग ठोस होता है। उससे बनने वाला पनीर जैसा पदार्थ छुरपी पत्थर सा कड़क होता है।

बाद में भारत-तिब्बत-नेपाल सीमा पर महाकाली अंचल के नए बने मित्र ने बताया कि कूर्मांचल के ऊंचे इलाकों में भी छुरपी का प्रचलन है। अपनी अगली ग्राम-यात्रा से आने पर जब उसने छुरपी लाकर दी तो मैंने देखा कि यह छुरपी धवल न होकर कुछ-कुछ पीले-भूरे रंग की थी मगर स्वादिष्ट और कड़क वैसी ही थी।

जब छुरपी, याक और पहाड़ की बात चल ही पडी है तो बताता चलूँ कि पिछले दिनों कुछ अलग सा" में बिजलेश्वर महादेव के बारे में एक लेख पढा, अच्छा लगा। टिप्पणियाँ पढने पर पाया कि पाठकों और लेखक दोनों ही को बिजली महादेव का शिवलिंग पत्थर और मक्खन से बना होने पर शंका है। छुरपी से पूर्व-परिचित होने के कारण मुझे इस विषय में तनिक भी शंका नहीं है कि दुग्ध-उत्पाद को पत्थर सा कडा किया जा सकता है। कोई आर्श्चय नहीं कि छुरपी का प्रयोग करके एक मजबूत शिवलिंग बनाया जाता है। यही बिजलेश्वर महादेव के शिवलिंग का रहस्य है।

घर से दूर होने के कारण यहाँ मेरे पास छुरपी पाने का कोई साधन नहीं है इसलिए उसका चित्र उपलब्ध न करा पाने का अफ़सोस है। परन्तु उत्सुक पाठकों के लिए छुरपी के बारे में (बहुत थोड़ी) जानकारी यहाँ है और अगर अंग्रेजी में देखना चाहें तो बिजलेश्वर महादेव पर मेरा एक पुराना संक्षिप्त लेख यहाँ है: Bijli Mahadev