Wednesday, June 29, 2011

शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1. भूमिका

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मूर्ख और मृतक अपने विचारों से चिपक जाते हैं
[एक कब्रिस्तान की दीवार पर पढा था]

शहीदों को श्रद्धांजलि प्रथम दिवस आवरण
1857 के भारत के स्वाधीनता के प्रथम संग्राम से लेकर 1947 में पूर्ण स्वतंत्रता मिलने तक के 90 वर्षों में भारत में बहुत कुछ बदला। आज़ादी से ठीक पहले के संग्राम में बहुत सी धाराएँ बह रही थीं। निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कॉङ्ग्रेस थी जिसने उस समय भारत के जन-जन के अंतर्मन को छुआ था।

मुस्लिम लीग एक और प्रमुख शक्ति थी जिसका एकमेव उद्देश्य भारत को काटकर अलग पाकिस्तान बनाने तक ही सीमित रह गया था। महामना मदन मोहन मालवीय और पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जैसे स्वनामधन्य नेताओं के साथ हिन्दू महासभा थी। कई मामलों में एक दूसरे से भिन्न ये तीन प्रमुख दल अपनी विचारधारा और सिद्धांत के मामले में भारत की ज़मीन से जुडे थे और तीनों के ही अपने निष्ठावान अनुगामी थे। विदेशी विचारधारा से प्रभावित कम्युनिस्ट पार्टी भी थी जिसका उद्देश्य विश्व भर में रूस के वैचारिक नेतृत्व वाला कम्युनिस्ट साम्राज्य लाना था मगर कालांतर में वे चीनी, रूसी एवं अन्य हितों वाले अलग अलग गुटों में बंट गये। 1927 की छठी सभा के बाद से उन्होंने ब्रिटिश राज के बजाय कॉंग्रेस पर निशाना साधना शुरू किया। आम जनता तक उनकी पहुँच पहले ही न के बराबर थी लेकिन 1942 में भारत छोडो आन्दोलन का सक्रिय विरोध करने के बाद तो भारत भर में कम्युनिस्टों की खासी फ़ज़ीहत हुई।

राजनैतिक पार्टियों के समांतर एक दूसरी धारा सशस्त्र क्रांतिकारियों की थी जिसमें 1857 के शहीदों के आत्मत्याग की प्रेरणा, आर्यसमाज के उपदेश, गीता के कर्मयोग एवम अन्य अनेक राष्ट्रीय विचारधाराओं का संगम था। अधिकांश क्रांतिकारी शिक्षित बहुभाषी (polyglot) युवा थे, शारीरिक रूप से सक्षम थे और आधुनिक तकनीक और विश्व में हो रहे राजनैतिक परिवर्तनों की जानकारी की चाह रखते थे। भारत के सांस्कृतिक नायकों से प्रेरणा लेने के साथ-साथ वे संसार भर के राष्ट्रीयता आन्दोलनों के बारे में जानने के उत्सुक थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन भी इसी धारा का एक संगठन था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगतसिंह, अशफाक़ उल्लाह खाँ, बटुकेश्वर दत्त, आदि क्रांतिकारी इसी संगठन के सदस्य थे। इनके अभियान छिपकर हो रहे थे और यहाँ सदस्यता शुल्क जाँनिसारी थी।

अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ
(22 अक्टूबर 1900 – 19 दिसम्बर 1927)
कुछ आरज़ू नहीं है बस आरज़ू तो ये है।
रख दे कोई ज़रा सी ख़ाके वतन कफ़न में॥

ऐ पुख़्तकार उल्फ़त, हुशियार डिग न जाना।
मिराज़ आशक़ाँ है, इस दार और रसन में॥

मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा।
फ़रमान कृष्ण का था अर्जुन को बीच रन में॥

(~ अमर शहीद अशफाक़ उल्लाह खाँ)

जिन क्रांतिकारियों में एक मुसलमान वीर भगवान कृष्ण के गीत गा रहा हो वहाँ आस्तिक-नास्तिक का अंतर तो सोचना भी बेमानी है। इन सभी विराट हृदयों ने बहुत कुछ पढा-गुना था और जो लोग सक्षम थे उन्होंने बहुत कुछ लिखा और अनूदित किया था। पंजाब केसरी और वीर सावरकर द्वारा अलग-अलग समय, स्थान और भाषा में लिखी इतालवी क्रांतिकारी जोसप मेज़िनी1 (Giuseppe Mazzini) की जीवनी इस बात का उदाहरण है कि ठेठ भारतीय विभिन्नता के बीच इन समदर्शियों के उद्देश्य समान थे। इस धारा का जनाधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का।

मंगल पांडे, चाफ़ेकर2 बन्धु, दुर्गा भाभी, सुखदेव थापर, शिवराम हरि राजगुरू, शिव वर्मा, जतीन्द्र नाथ दास, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, खुदीराम बासु जैसे वीर3 हम भारतीयों के दिल में सदा ही रहेंगे, उनके व्यक्तिगत या धार्मिक विश्वासों से उनकी महानता में कोई कमी नहीं आने वाली है। वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण श्रद्धेय नहीं है बल्कि अपने कर्मों के कारण हैं । ये शहीद किसी भी धर्म या राजनैतिक धारा के हो सकते थे परंतु अधिकांश ने समय-समय पर गांधी जी में अपना विश्वास जताया था। अधिकांश की श्रद्धा अपने-अपने धार्मिक-सांकृतिक ग्रंथों-उपदेशों में भी थी। गीता शायद अकेला ऐसा ग्रंथ है जिससे सर्वाधिक स्वतंत्रता सेनानियों ने प्रेरणा ली। गीता ने सरदार भगतसिंह को भी प्रभावित किया।4

सरदार भगतसिंह
(28 सितम्बर 1907 - 23 मार्च, 1931)
80 दशक के प्रारम्भिक वर्षो से भगतसिंह पर रिसर्च कर रहे उनके सगे भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह के अनुसार भगतसिंह पिस्तौल की अपेक्षा पुस्तक के अधिक निकट थे। उनके अनुसार भगतसिंह ने अपने जीवन में केवल एक बार गोली चलाई थी, जिससे सांडर्स की मौत हुई। उनके अनुसार भगतसिंह के आगरा स्थित ठिकाने पर कम से कम 175 पुस्तकों का संग्रह था। चार वर्षो के दौरान उन्होंने इन सारी किताबों का अध्ययन किया था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की तरह उन्हें भी पढ़ने की इतनी आदत थी कि जेल में रहते हुए भी वे अपना समय पठन-पाठन में ही लगाते थे। गिरफ्तारी के बाद दिल्ली की जेल में रहते हुए 27 अप्रैल 1929 को उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखकर पढ़ने के लिये लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक5 की "गीता रहस्य" मंगवायी थी। उनकी हर बात की तरह यह समाचार भी लाहौर से प्रकाशित होने वाले तत्कालीन अंग्रेजी दैनिक 'द ट्रिब्यून' के 30 अप्रैल 1929 अंक के पृष्ठ संख्या नौ पर "एस. भगत सिंह वांट्स गीता" शीर्षक से छपा था। रिपोर्ट में लिखा गया था कि सरदार भगत सिंह ने अपने पिता को नेपोलियन की जीवनी और लोकमान्य टिळक की गीता की प्रति भेजने के लिए लिखा है। खटकड़ कलाँ (नवांशहर) स्थित शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह संग्रहालय में आर्य बुक डिपो लाहौर से प्रकाशित पं. नृसिंहदेव शास्त्री के भाष्य वाली गीता रखी हुई है जिस पर "भगत सिंह, सेंट्रल जेल, लाहौर" लिखा हुआ है। जेएनयू के मा‌र्क्सवादी प्रो. चमन लाल तक मानते हैं कि संभावना है टिळक की गीता न मिलने पर बाजार में जो गीता मिली, वही उनके पास पहुँचा दी गयी हो। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि शास्त्रीजी के भाष्य वाली गीता उनके पास अलग से रही हो परंतु वे टिळक की गीता टीका भी पढ़ना चाहते हों।

[क्रमशः]

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1कार्ल मार्क्स को भारतीय क्रांतिकारियों का आदर्श मेज़िनी सख्त नापसन्द था। एक साक्षात्कार में मार्क्स ने मेज़िनी को कभी न मरने वाला वृद्ध गर्दभ कहकर पुकारा था।
2दामोदर, बालकृष्ण, एवम वासुदेव चाफ़ेकर (Damodar, Balkrishna and Vasudeva Chapekar)
3वीरों की कमी नहीं है इस देश में - सबके नाम यहाँ नहीं हैं परंतु श्रद्धा उन सबके लिये है।
4"Bhagat Singh" by Bhawan Singh Rana (पृ. 129)
5मराठी और हिन्दी की लिपि एक, देवनागरी है लेकिन तथाकथित 'मानकीकरण' ने हिंदी की वर्णमाला सीमित कर दी है। लोकमान्य के कुलनाम का वास्तविक मराठी उच्चारण तथा सही वर्तनी 'टिळक' है।

[प्रथम दिवस आवरण का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: अन्य चित्र इंटरनैट से विभिन्न स्रोतों से साभार]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* विश्वसनीयता का संकट - हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ अनुभव
* जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
* भगवद्गीता से ली थी भगतसिंह ने प्रेरणा?
* वामपंथियों का भगतसिंह पर दावा खोखला
* भगतसिंह - विकिपीडिया
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

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Friday, June 24, 2011

मैं पिट्सबर्ग हूँ [इस्पात नगरी से - 42]

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इस सुरंग से मेरा पुराना नाता है
पिट्सबर्ग एक छोटा सा शहर है। सच्चाई तो यह है कि यह शहर सिकुड़ता जा रहा है। पिट्सबर्ग ही नहीं, अमेरिका के बहुत से अन्य शहर लगातार सिकुड़ रहे है। घबराईये नहीं, सिकुड़ने से मेरा अभिप्राय था जनसंख्या से। दरअसल पिट्सबर्ग जैसे ऐतिहासिक नगरों की जनसंख्या लगातार कम होती जा रही है। पिट्सबर्ग उत्तर-पूर्वी अमेरिका के पेन्सिल्वेनिया राज्य में है। 1950 में यहाँ 676,806 लोग रहते थे लेकिन 2005 के जनसंख्या आंकडों के अनुसार यहाँ केवल 316,718 लोग रहते हैं। 2010 के आंकडों में यहाँ की जनसंख्या 305,704 रह गयी है।

पिट्सबर्ग एक पुराना शहर है। इसकी स्थापना सन् 1758 में हुई थी और इस नाते से यह अपने 250 से अधिक वर्ष पूरे कर चुका है। नवम्बर 1758 में जनरल जॉन फोर्ब्स की अगुआई में ब्रिटिश सेना ने फोर्ट ड्यूकेन (Fort Duquesne – S शांत है) के भाग्नावाशेषों पर कब्ज़ा किया और इसका नाम तत्कालीन ब्रिटिश राज्य सचिव विलियम पिट के नाम पर रखा।

कथीड्रल ऑफ लर्निंग
जब पिट्सबर्ग को अमेरिका के "सबसे ज्यादा रहने योग्य नगर" का खिताब मिला तो यहाँ के लोग फूले नहीं समाये। पुराने समय से ही पिट्सबर्ग अग्रणी लोगों का नगर बन कर रहा है। चाहे वह बिंगो (ताम्बूला) का खेल हो, कोका कोला के कैन हों या कि बड़े फेरिस वील, इन सब की शुरुआत पिट्सबर्ग से ही हुई थी। पहला व्यावसायिक रेडियो स्टेशन हो या पहला व्यावसायिक पेट्रोल पम्प, दोनों का ही श्रेय पिट्सबर्ग को जाता है।

पिछले दिनों जब मैं पिट्सबर्ग में बैठा हुआ पढ़ रहा था कि पोलियो की बीमारी सारी दुनिया में ख़त्म हो चुकने के बाद भी अभी सिर्फ़ भारत में ही बची है और वह भी मुख्यतः मेरे गृह नगरों बरेली, बदायूँ, रामपुर और मुरादाबाद आदि में - तो मुझे भाग्य के इस क्रूर खेल पर आश्चर्य हुआ क्योंकि पोलियो का टीका भी सन 1952 में पिट्सबर्ग में ही खोजा गया था। पिट्सबर्ग की देन असंख्य है इसलिए ज़्यादा नहीं कहूँगा मगर स्माइली :-) का ज़िक्र ज़रूर करूँगा जिसकी खोज यहाँ कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय में हुई थी। विश्व का पहला रोबोटिक्स केन्द्र भी इसी विश्व विद्यालय में प्रारम्भ हुआ। पिट्सबर्ग के वर्तमान मेयर ल्यूक रेवेंस्टाल अमेरिका के सबसे कम आयु के मेयर होने का दर्जा पा चुके हैं।

एक प्राचीन गिरजाघर
पिट्सबर्ग दो नदियों मोनोंगहेला व एलेगनी के संगम पर स्थित है। चूँकि यह दोनों नदियाँ मिलकर एक तीसरी नदी ओहियो बनाती हैं इसलिए यहाँ के निवासी इसे संगम न कहकर त्रिवेणी पुकारते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पिट्सबर्ग में आप बहुत से व्यवसायों का नाम "तीन-नदियाँ" पायें। तीन नदियों से घिरा होने के कारण पिट्सबर्ग में पुलों की खासी संख्या है जिनमें से 720 प्रमुख पुल हैं। वैसे इन तीन नदियों के नीचे धरा में छिपा एक एक्विफ़र भी बहता है।

पुराने समय से ही अमेरिका के सर्वाधिक धनी व्यक्ति या तो पिट्सबर्ग में व्यवसाय करते थे या इस नगर से किसी रूप में जुड़े थे। यहाँ कोयला, इस्पात और अलुमिनुम का व्यवसाय प्रमुखता से हुआ। पिट्सबर्ग को इस्पात नगरी के नाम से भी पुकारा जाता है। कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में जितना इस्पात इस शहर में बना उतना शेष विश्व ने मिलकर भी नहीं बनाया। जहाँ एक तरफ़ व्यवसाय की उन्नति हुई वहीं ज्ञान विज्ञान में भी पिट्सबर्ग उन्नति करता रहा।

हर ओर गिरजे और फ़्यूनेरल होम्स
व्यवसाय ने पिट्सबर्ग को सम्पन्नता तो बहुत दी परन्तु उसकी कीमत भी ली। पिट्सबर्ग देश के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में से एक गिना जाता था। बहुत सी सुंदर इमारतें कारखानों के धुएँ से काली पड़ गयी। सत्तर के दशक में जब पर्यावरण सम्बन्धी विचारधारा को बढावा मिला तो इस तरह के सारे प्रदूषणकारी व्यवसायों पर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए। जिसकी कीमत भी पिट्सबर्ग को चुकानी पड़ी। युवाओं ने नौकरी की तलाश में नगर छोड़ना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि शहर में वयोवृद्ध जनसंख्या का अनुपात युवाओं से अधिक हो गया। पिट्सबर्ग ने इस चुनौती को बहुत गर्व से स्वीकारा और जल्दी ही जन-स्वास्थ्य में एक अग्रणी नगर बनकर उभरा।

पिट्सबर्ग अमेरिका का एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय, कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय एवं ड्युकेन विश्वविद्यालय यहाँ के तीन बड़े शिक्षा संस्थान हैं। अन्य शिक्षा संस्थानों में पॉइंट पार्क विश्व विद्यालय, चैथम विश्वविद्यालय, कार्लो विश्वविद्यालय एवं रॉबर्ट मौरिस विश्व विद्यालय प्रमुख हैं।

सैनिक व नाविक स्मृति
खनिज, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अतिरिक्त पिट्सबर्ग एक और व्यवसाय में अग्रणी है और वह है कम्पूटर सॉफ्टवेयर। अनेकों बड़ी कम्पनियाँ जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि ने यहाँ अपने कार्यालय बनाए हैं। अब जहाँ चिकित्सालय हों प्रयोगशालाएँँ हों, विश्व विद्यालय हों और सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ भी हों और वहां पर भारतीय न हों ऐसा कैसे हो सकता है? । इस नगर में 6% लोग भारतीय मूल के हैं जिनमें मुख्यतः डॉक्टर, सोफ्टवेयर इंजिनियर, शिक्षक एवं छात्र हैं। एक बड़ा वर्ग व्यवसायिओं एवं वैज्ञानिकों का भी है। यहाँ आपको मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा तो मिलेगा ही, यदि आप अपने बच्चों को भारतीय संगीत या नृत्य सिखाना चाहते हैं तो आपको उसके लिए भी अनेक गुरु मिल जायेंगे। इतने भारतीय हों और भारतीय खाना न मिले, भला यह भी कोई बात हुई। भारतीय स्टोर व रेस्तराँ भी बहुतायत में हैं जहाँ आपको हर प्रकार का भारतीय सामान, भोजन इत्यादि मिल जायेगा। कथीड्रल ऑफ लर्निंग पिट्सबर्ग विश्व विद्यालय की प्रतीक इमारत है। इसमें एक कक्ष नालंदा विश्व विद्यालय के सम्मान में बनाया गया है।

पिट्सबर्ग के वार्षिक लोक उत्सव ने भारतीय कला व संस्कृति का परिचय स्थानीय लोगों को कराया है। हमारी संस्कृति में तो आकर्षण है ही, यहाँ के लोग भी नए विचारों को खुले दिल से स्वीकार करने वाले हैं। यहाँ आने से पहले मैंने अमेरिका के बारे में बहुत सी बातें सुनी थीं यथा, एक सामान्य अमेरिकी जीवन में सात बार नगर बदलता है। पिट्सबर्ग में मेरे बहुत से ऐसे स्थानीय सहकर्मी हैं जिन्होंने कभी पिट्सबर्ग नहीं छोड़ा। कुछ तो दो या तीन पीढियों से यहीं हैं।


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* रैंडी पौष का अन्तिम भाषण
* पिट्सबर्ग का अंतर्राष्ट्रीय लोक महोत्सव (2011)
* ड्रैगन नौका उत्सव

[यह आलेख सृजनगाथा के लिये 25 जून 2008 को लिखा गया था]

Tuesday, June 21, 2011

बेमेल विवाह - एक कहानी

आभार
यह कहानी गर्भनाल के जून 2011 के अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।

... और अब कहानी

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.-<>-. बेमेल विवाह .-<>-.
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डॉ. अमित
मेरे साथ तो हमेशा से अन्याय हुआ है। ज़िंदगी सदा अधूरी ही रही। बचपन में बेमेल विवाह, मेडिकल कॉलेज में आरक्षण का ताना और अब पिताजी की यह सनक – उनकी सम्पत्ति से बेदखली। अपने ही दुश्मन हो जायें तो जीवन कैसे कटे। मेरा दिल तो घर जाने को करता ही नहीं। सोचता हूँ कि सारी दुनिया बीमार हो जाये और मेरा काम कभी खत्म न हो।

कु. रीना
कितनी खडूस हैं डॉ निर्मला। ऐसी भी क्या अकड़? पिछली बार बीमार पडी थी तब वहाँ गयी थी। छूकर देखा तक नहीं। दूर से ही लक्षण पूछ्कर पर्चा बना दिया था। आज तो मैं डॉ. अमित के पास जाऊंगी। कैसे हँसते रहते हैं हमेशा। आधा रोग तो उन्हें देखकर ही भाग जाये।

डॉ. अमित
क्या-क्या अजीब से सपने आते रहते हैं। वो भी दिन में? लंच के बाद ज़रा सी झपकी क्या ले ली कि एक कमसिन को प्रेमपत्र ही लिख डाला। यह भी नहीं देखा कि हमारी उम्र में कितना अंतर है। क्या यह सब मेरी अतृप्त इच्छाओं का परिणाम है? खैर छोड़ो भी इन बातों को। अब मरीज़ों को भी देखना है।

कु. रीना
कितने सहृदय हैं डॉ. अमित। कितने प्यार से बात कर रहे थे। पर मेरे बारे में इतनी जानकारी किसलिए ले रहे थे? कहाँ रहती हूँ, कहाँ काम करती हूँ, क्या शौक हैं मेरे, आदि। एक मिनट, दवा के पर्चे के साथ यह कागज़ कैसा? अरे ये क्या लिखा है बुड्ढे ने? आज रात का खाना मेरे साथ फाइव स्टार में खाने का इरादा है क्या? मुझे फोन करके बता दीजिये। समझता क्या है अपने आप को? मैं कोई ऐरी-गैरी लड़की नहीं हूँ। अपनी पत्नी से ... नहीं, अपनी माँ से पूछ फाइव स्टार के बारे में। सारा शहर जानता है कि यह मर्द शादीशुदा है। फिर भी इसकी यह मज़ाल। मुझ पर डोरे डाल रहा है। मैं भी बताती हूँ तूने किससे पंगा ले लिया? यह चिट्ठी अभी तेरे घर में तेरी पत्नी को देकर आती हूँ मैं।

श्रीमती अमिता
जाने कौन लडकी थी? न कुछ बोली न अन्दर ही आयी। बस एक कागज़ पकड़ाकर चली गयी तमकती हुई।

डॉ. अमित
अपने ऊपर शर्म आ रही है। मेरे जैसा पढा लिखा अधेड़ कैसे ऐसी बेवक़ूफी कर बैठा? पहले तो ऐसा बेतुका सपना देखा। ऊपर से ... जान न पहचान डिनर का बुलावा दे दिया मैंने … और लड़की भी इतनी तेज़ कि सीधे घर पहुँचकर चिट्ठी अमिता को दे आयी। ज़रा भी नहीं सोचा कि एक भूल के लिये कितना बड़ा नुकसान हो जाता। मेरा तो घर ही उजड जाता अगर अमिता अनपढ न होती।

[समाप्त]

Thursday, June 16, 2011

वन्दे मातरम् - पितृ दिवस - जून प्रसन्न

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वर्ष का सूर्यप्रिय मास जून फिर आ गया। और साथ में लाया बहुत से विचार - जननी, जन्मभूमि के बारे में भी और पितृदेव के बारे में भी। रामायण के अनुसार, रावण का अंतिम संस्कार करने के बाद जब विभीषण ने राम को लंका का राजा बनाने का प्रस्ताव रखा था तब उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना करते हुए अनुज लक्ष्मण से कहा था:

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

सत्पुरुष सोने की लंका से निर्लिप्त रहते हुए मातृशक्ति और मातृभूमि के चरणों में ही रहना चाहते हैं। 17 जून 1858 को ऐसी ही "मर्दानी" वीरांगना मातृशक्ति ने मातृभूमि के लिये आत्माहुति दी थी। इस पावन अवसर पर रानी लक्ष्मीबाई को एक बार फिर नमन।

जहाँ मातृभूमि पर सब कुछ न्योछावर करने वाले भारतीय हैं वहीं सत्ता के दम्भी भी कम नहीं हुए हैं। चाहे गंगा में खनन रोकने के अनशन की बात पर बाबा निगमानन्द की मृत्यु हो चाहे फोर्ब्सगंज (अररिया) बिहार में गोलीबारी से अधमरे होकर धराशायी व्यक्तियों को पुलिस द्वारा पददलित किया जाना हो, सत्तारूढों की क्रूर दानवता सामने आयी है। बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन के समर्थन में अनशन पर बैठे जन-समुदाय पर चार जून की अर्धरात्रि में दिल्ली के रामलीला मैदान में सोते समय जिस तरह की कायर और क्रूर पुलिस कार्यवाही की गयी उसने एक बार फिर यह याद दिलाया कि देश का राजनैतिक नेतृत्व किस तरह से लोकतंत्र को कांख में दबाकर बैठा है।

जनतंत्र पर जून की काली छाया की बात करते समय याद आया कि 26 जून 1975 को भारत में आपात्काल की घोषणा हुई थी। 23 जून 1985 को बब्बर खालसा के आतंकवादियों ने एयर इंडिया के मॉंट्रीयल से दिल्ली आ रहे कनिष्क बोइंग 747 विमान को बम विस्फोट से उडा दिया था। 329 हत्याओं के साथ यह 9-11 के पहले की सबसे घृणित आतंकवादी कार्यवाही कही गयी थीं। 2009 में इसी मास चीन की कम्युनिस्ट सरकार और सेना द्वारा जनतंत्र/डेमोक्रेसी/मानवाधिकार की मांग करने वाले हज़ारों नागरिकों के दमन की याद भी ताज़ा हो गयी है। दिल दुखता है लेकिन याद रहे कि आखिर में हर कालिमा छंटी है, जून 2011 को दिखी यह कालिमा भी शीघ्र छंटेगी।

जून आया है तो ईसा मसीह का जन्मदिन भी लाया है। खगोलशास्त्रियों की मानें तो क्रिस्मस भी जून में ही मने। ईसा मसीह का जन्मदिन 17 जून, 2 ईसा पूर्व को जो हुआ था।

2008 में इसी मास को भीष्म देसाई जी की पहल पर आचार्य विनोबा भावे का गीता प्रवचन हिन्दी में पढना शुरू किया था जोकि 2009 को इसी मास में अपने ऑडियो रूप में पूरा हुआ।

संयोग से इसी मास संगणक की महारथी कंपनी आईबीएम (IBM) शतायु हो गयी है।

मेरे पिताजी की एक सुबह
इस 19 जून को 101वाँ पितृ दिवस है। उन सभी पुरुषों को बधाई जिन्हें पितृत्व का सुख प्राप्त हुआ है। 19 जून को ही पडने जाने वाला पर्व जूनटींथ मानव-मानव की समानता का विश्वास दिलाता है। पढने में आया है कि मेरे प्रिय नायकों पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल (11 जून 1897), आंग सान सू ची (19 जून), इब्न ए इंशा (15 जून), बाबा नागार्जुन (30 जून), पॉल मैककॉर्टनी (18 जून) और ब्लेज़ पास्कल (19 जून) के जन्म दिन का शुभ अवसर भी है। मैं प्रसन्न क्यों न होऊँ?

मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः, आचार्य देवो भवः, अतिथि देवो भवः, ...
पितृदिवस की शुभकामनायें!


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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* जून का आगमन
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* खूब लड़ी मर्दानी...
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* जन्म दिवस की शुभकामनाएं
* १९ जून, दास प्रथा और कार्ल मार्क्स
* तिआनमान चौक, बाबा नागार्जुन और हिंदी फिल्में
* अण्डा - बाबा नागार्जुन
* दो कलाकारों का जन्म दिन - नीलम अंशु
* फोटो फीचर-बाबा नागार्जुन (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

Sunday, June 12, 2011

मेरे मन के द्वार - चित्रावली


दीनदयाल के द्वार न जात सो और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
श्री जदुनाथ से जाके हितू सो तिपन क्यों कन माँगत डोलै॥
~ भक्त नरोत्तमदास (1493-1545)

भारत, जापान, कैनैडा व अमेरिका से कुछ चुने हुए द्वार

पेंसिलवेनिया राज्य में व्रज मन्दिर का द्वार 

वृन्दावन धाम के एक मन्दिर का द्वार

वृन्दावन धाम

वृन्दावन धाम

उत्तरी अमेरिका से एक द्वार

हिम-धूसरित केम्ब्रिज में एक द्वार 

जापान में एक तोरी (तोरण द्वार) 

जापान के एक मन्दिर का द्वार

कमाकुरा के विशाल बुद्ध मन्दिर का सिंहद्वार

तोक्यो नगर में एक मन्दिर का द्वार 

बोस्टन का एक द्वार

स्वर्णिम द्वार

द्वार-युग्म

कब्रिस्तान - काल का द्वार

एक अनाथ द्वार

मोंट्रीयल का एक ऐतिहासिक द्वार

Dataganj-Budaun-India
मेरे गाँव का एक द्वार

India Gate -  इंडिया गेट
मेरे देश का एक गौरवमय द्वार

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

Friday, June 10, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 14

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13;
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पिछले अंक में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते।
अब आगे भाग 14 ...
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उस रात वीर ने पहली बार अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरा। अपने अन्दर छिपे बैठे कवि से यह उनका प्रथम परिचय था।
आंसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता
कोई आता


उनके अंतर के वैराग्य की अग्नि जितनी तेज़ी से प्रज्ज्वलित हो रही थी, वे उतनी ही बेचैनी से उसे संसार से, विशेषकर माँ से छिपाये रखना चाहते थे। इस प्रक्रिया में वे एक विरोधाभास को जन्म दे रहे थे। उन जैसा अंतर्मुखी व्यक्तित्व एक सामाजिक प्राणी में बदलता जा रहा था। उनकी मित्र मण्डली बढ़ती जा रही थी और पढ़ाई में रुचि कम होती जा रही थी। संगीत, फिल्म, साहित्य आदि में अचानक रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। गुरुदत्त की फ़िल्में हों या ग़ुलाम अली की गायी ग़ज़लें, इब्ने इंशा की कवितायें हों चाहे मन्नू भंडारी और उपेन्द्रनाथ अश्क़ की कहानियाँ, सबको समय दिया जा रहा था।

अब वे अपने अन्दर एक गुण और महसूसने लगे थे। रहा शायद पहले भी हो पर उसका बोध उन्हें इसी काल में हुआ। वह था अपने से निर्लिप्त होकर अपने को देख पाना। उन दिनों अगर उन्हें अपने खिलाफ किसी मुकदमे का निर्णय देना होता तो वे पूरी निर्ममता को सहजता से निभा जाते।

शायद वे बिल्कुल यही कर भी रहे थे। नई सराय प्रवास में दादाजी की मृत्यु एक दुखद घटना थी। परंतु उस एक घटना के अतिरिक्त तब उनकी हर इच्छा जादुई तरीके से पूरी हो रही थी। बरेली वापस आने पर भी हो बिल्कुल यही रहा था, अंतर केवल इतना था कि अब कोई इच्छा नहीं रही थी, केवल एक शून्य था। उन्हें लगता था कि वे अवसादग्रस्त थे, शायद सही भी हो। पर साथ ही उन्हें यह भी लगता था कि यदि जीवन का अर्थहीन और क्षणभंगुर होना उन्हें नापसन्द है तो भी इससे जीवन अपना तरीका तो नहीं बदलेगा। नतीज़ा फिर वही निकलता, जीवन में रस ढूंढने का प्रयास। मतलब और कविता, कहानी, गीत, फ़िल्म।

एक दिन उन्होंने सब्ज़ी वाले खालिद को माँ से कहते सुना, "आवारा लड़कों से दोस्ताना चल्लिया है आजकल। अभी समझा दीजिये वन्ना एक दिन हाथ से निकल्लेंगे।"

वीर ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन उस दिन उनका ध्यान अटका जब वे रोज़ की तरह रोज़ी को भौतिकी की ट्यूशन पढाने गये और उसकी माँ ने बिना कारण बताये उन्हें आइन्दा घर आने से मना कर दिया। उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा। बस उनकी इंसान पहचानने की क्षमता के अभाव पर दु:ख हुआ।

"माईं, पालागन!" एक दिन अचानक से बड़ी बुआ के बेटे रज्जू भैया आ गये। वीर पर उनका विशेष स्नेह था। जब वीर सामने पड़े तो हमेशा की तरह गले लगने के बजाय उन्होंने वीर की बाँह पकड ली और माँ से पूछने लगे, "माईं, क्या खाना नहीं देतीं अपने सपूत को?"

बाद में जब उन्हें सिगरेट की तलब लगी तो शाम की सैर के बहाने वीर को लेकर घर से बाहर आ गये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद एक कश लगाया और पूछने लगे, "कुछ परेशानी है?"

"नहीं तो!"

"कोई लौंडिया का चक्कर है क्या? न माने तौ हमैं बताओ, घर सै उठवा लें।"

"नहीं भैया, ऐसी बात होती भी तो भी मैं ऐसा काम नहीं होने देता।"

"सिगरेट पीते हौ? अब तो बड़े हो गए हो। ल्यो, पीओ।" रज्जू भैय्या ने सिगरेट वीर की तरफ बढाई।

"जी नहीं, मैं नहीं पीता" वीर ने विनम्रता से कहा।

"लौंडिया नहीं, नशा नहीं, फिर कोई भूत साध रहे हौ का जो ऐसा हाल बनाया है?" रज्जू भैय्या वाकई वीर के लिये चिंतित थे।

पहले खालिद, फिर रोज़ी की माँ, और अब रज्जू भैय्या, वीर को समझ आ गया कि अपनी बाहरी दिखावट पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनकी सुरुचिसम्पन्न माँ ने उन्हें इस बात के लिये एक बार भी नहीं टोका था।

"परेशान न हों भैय्या, सब ठीक है, सिचुएशन अंडर कंट्रोल।"

"अपना हाथ दिखइओ ज़रा" भैय्या ने हाथ ऐसे देखा मानो वे पहुँचे हुए ज्योतिषी हों। हाथ देखते ही वे चौंके और दूसरा हाथ पकडा और क्षण भर को दसों उंगलियाँ एक साथ देखकर बुदबुदाये, "दसों शंख जोगी ..." फिर एक गहरी साँस ली और बोले, "मेरी किसी बात का बुरा मत मानना ... वो ... घर से उठाना, सिग्रेट, भूत ... वगैरा।"

घर लौटते हुए रज्जू भैय्या ने बताया कि ऊपर से शांत और सहज दिखने वाली माँ वीर के बदलाव से बेखबर नहीं है। वह बहुत व्यथित है। उसी ने रज्जू भैय्या को बुलाया था ताकि वीर की परेशानी को समझकर हल किया जा सके। पर अब रज्जू भैय्या को लगता है कि परेशानी बस यही है कि पिताजी साथ में नहीं हैं। उन्हें घर बुलाकर बिठाया तो जा नहीं सकता इसलिये विकल्प है आत्मानुशासन का और आवारागर्दों से बचने का। उन्होंने वीर को डायरी लिखने की सलाह दी। इससे सातत्य भी आयेगा, आत्मावलोकन भी होगा और साथ के लिये मित्रों पर निर्भरता भी कम होगी। वीर सहमत थे। घर आकर दोनों ने ऐसे व्यवहार किया जैसे वीर के विषय में कोई बात ही न हुई हो।

[क्रमशः]

Thursday, June 9, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 13

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12;
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर की नज़रें झरना से मिलीं। उन्होंने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।
अब आगे भाग 13 ...
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अंग्रेज़ों के ज़माने में सैनिक वाहन चालकों को नैनीताल आदि के पहाड़ी मार्गों पर चलने के लिये तैयार करने के लिये छावनी में ऊँचे-नीचे हिलट्रैक मार्ग का निर्माण किया गया था। आज वीर ने उस हिलट्रैक लूप के न जाने कितने चक्कर लगाये थे। रात में जब घर पहुँचे तो काफी थक चुके थे। माँ कमला चाची के साथ बाहर खड़ी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थीं। पसीने की गन्ध से माँ को दूर से ही उबकाई आती है इसलिये अन्दर पहुँचते ही वीर नहाने चले गये। बाहर आने तक माँ ने खाना लगा दिया था। दोनों खाना खाने बैठे तो माँ ने बताया, “वासिफ़ के घर से ... झरना आई थी आज ... बहुत प्यारी बच्ची है।”

वीर ने अनमनी सी “हाँ” में सर हिलाया। इसका मतलब है कि झरना ने उनके भागने के बारे में माँ से कुछ नहीं कहा था।

“बता रही थी कि वासिफ़ को मलेरिया हुआ था। तबियत काफी खराब थी। स्कूल भी नहीं गया। उसकी अम्मी तुमसे मिली थीं। बताना चाहती थीं, मगर तुम जल्दी में थे।”

“हाँ, उस दिन मिल गई थीं, कम्पनी बाग के पास। वासिफ़ कैसा है अब?”

“कमज़ोरी बनी हुई है। उसे किताबों की लिस्ट और अब तक के होमवर्क की कॉपियाँ चाहिये। यही बताने यहाँ आयी थी वह।”

“नवीन से कहके भिजा दूंगा, उधर ही रहता है वह।”

“कल हो आते हैं, मैं भी मिल लूंगी उन लोगों से” माँ कुछ उतावली सी दिखीं।

अगले दिन स्कूल में वीर ने किताबों की लिस्ट और तब तक का सारा गृहकार्य वासिफ़ के घर पहुँचाने की हिदायत देकर नवीन को दे दिया। उन्हें अच्छी प्रकार पता था कि इतने भर से उन्हें छुटकारा नहीं मिलने वाला है। अगर माँ का मन है तो वासिफ़ का काम हो जाने के बाद भी वह उन्हें लेकर वहाँ जायेगी ही। घर आते समय वे वासिफ के घर न जाने के सर्वश्रेष्ठ बहाने खोज रहे थे। हाथ मुँह धोकर डरते-डरते माँ के साथ चाय पीने बैठे तो माँ ने बताया कि वे दिन में वासिफ़ के घर हो आयी थीं।

“तुम्हें पूछ रहा था। बहुत कमज़ोर हो गया है।”

“मैंने कॉपियाँ और लिस्ट भिजा दी है।”

“ठीक किया। तुम्हें पता है कि उसकी बहन की शादी है दो महीने में?”

“अच्छा! मुझे नहीं पता” वीर ने अचरज में आँखें फैलाकर कहा। मुहब्बत का इज़हार किसी से और इकरार किसी से। वीर का मन कड़वा सा हो गया।

“बहुत प्यारी बच्ची है। तुम्हारी बहन आज होती तो शायद वैसी ही होती ...” वाक्य पूरा करते-करते माँ का गला भर आया। अब वीर को सचमुच आश्चर्य हुआ।

“मेरी बहन?”

“हाँ बेटा, तुम अकेले नहीं थे। तुम्हारी एक जुड़वाँ बहन भी थी ... तुमसे बड़ी। एक दिन भी जीवित नहीं रही।”

वीर को समझ नहीं आया कि जिस बहन के बारे में वे अब तक अन्धेरे में थे, उसके अवसान पर क्या कहें। हाँ, यह गुत्थी ज़रूर सुलझ गयी कि उनके जन्मदिन पर माँ उदास क्यों होती है। भगवान पर उनका क्रोध और बढ़ गया। उनकी बहन को जन्मते ही क्यों छीन लिया? माँ-पापा ने कैसे सहा होगा उसका जाना?

“क्या हुआ था उसे? इलाज नहीं हो सकता था? इसके बाद भी आप भगवान को कैसे पूज लेती हैं? गुस्सा नहीं आता क्या?”

“जन्म के समय तुम दोनों ही मृतप्राय थे। तब ज़माना काफ़ी पिछड़ा हुआ था। डॉक्टरों को तो पहले से यह भी पता नहीं था कि मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं ...” माँ ने आँख पोंछते हुए कहा, “और भगवान से गुस्सा तो हो ही नहीं सकती थी। वह चाहता तो मेरे दोनों बच्चे छीन सकता था मगर उसने इतना प्यारा बेटा मेरी गोद में जीवित छोड़ दिया न।”

वीर को अचानक माँ पर असीमित दया और प्यार दोनों ही आ गये। परंतु भगवान के प्रति उनका क्रोध कम नहीं हुआ।

[क्रमशः]

Tuesday, June 7, 2011

शब्दों के टुकड़े - भाग 3

विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। मन में ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा चटख/क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। .

1. शक्ति के बिना धैर्य ऐसे ही है जैसे बिना बत्ती के मोम।
2. कुछ की महानता छप जाती है कुछ की छिपी रह जाती है।
3. दुश्मन का दुश्मन दोस्त कैसे होगा? दुश्मन ख़त्म तो दोस्ती भी ख़त्म!
4. मेरी अपेक्षा के बंधन में गैर क्यों बंधे?
5. बेलगाम खरी-खोटी कहने भर से कोई सत्यवादी नहीं हो जाता, सत्य सुनने का साहस, और सत्य स्वीकारने की समझ भी ज़रूरी है।
6. ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं है। ईमानदार तो ईमानदार, बेईमान भी अपने प्रति ईमानदारी चाहते हैं।
7. जो व्यवसाय विश्वास पर टिका हो उसमें किसी का भी विश्वास नहीं किया जा सकता है।
8. अगर आपको अपने अस्तित्व पर आस्था है तो आप नास्तिक कहाँ हुए?
9. स्वयम् को बनाने और बदलने का अधिकार व्यक्ति का है, छवि को दूसरे बनाते और बदलते हैं।
10. जिसकी जैसी खाज, उसका वैसा इलाज।

आज आपके लिये दो और कथन जिनका अनुवाद नहीं हुआ है। कृपया अच्छा सा हिन्दी अनुवाद सुझायें:

11. I hate being pregnant, I love being a mother/father though.
12. Art can't stand on its own, furniture does.

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* शब्दों के टुकड़े - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6
* सत्य के टुकड़े
* मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २) - अभिषेक ओझा
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अनुरागी मन - कहानी - भाग 12

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झांक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे।
अब आगे भाग 12 ...
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वीरसिंह को रह-रहकर दादाजी की याद आती थी। उनका मन पिछली नईसराय यात्रा से बाहर आ ही नहीं पा रहा था। दादाजी के अवसान के समय अपनी अनुपस्थिति के लिये वे अपने को माफ नहीं कर पा रहे थे। काश वे उस समय झरना के मोहपाश में बन्धने के बजाय अपने घर होते तो दादाजी को बचाने का कुछ उपाय ज़रूर कर पाते। शायद दादाजी आज जीवित होते। इस कृत्य के लिये वे अपने आप को शायद कभी भी माफ नहीं कर पायेंगे।

"हाय हसन हम न हुए ..." बाहर से नारों की आवाज़ आ रही थी। शायद मुहर्रम का जुलूस निकल रहा था। वीर बाहर आ गये। मातम करने वाले धर्मयुद्ध में अपनी अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे लोहे की जंज़ीरों से अपने आप को लहूलुहान करके। वीर अपने आप को वहाँ देख पा रहे थे। उनके मुँह से बेसाख्ता निकला, "हाय हसन हम न हुए ...।" पहले कभी ऐसी बेचैनी से गुज़रे होते तो शायद वासिफ से मिलने गये होते। लेकिन अब किस मुँह से वहाँ जायें। उसकी बहन की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे वे। इतने आहत थे वे कि अप्सरा के बारे में सोचना तक नहीं चाहते थे। उसका ख्याल अपने दिमाग से झटककर वे अन्दर आये और पिताजी को एक पत्र लिखने बैठे। हर मुसीबत के समय अंततः वे पिताजी को ही याद करते थे। बहुत कोशिश की लेकिन इस बार कागज़ कोरा ही रहा। इस बार की मुलाकात से उन्हें पिताजी की कार्य सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों का पूरा अहसास था। वे उनके काम में बाधक नहीं बनना चाहते थे।

"कम्पनी बाग तक जा रहा हूँ माँ!"

वे बाहर निकले और अपने ख्यालों में खोये से कम्पनी बाग की ओर बढ़ चले। घर-नगर के कोलाहल से दूर शांति चाहने वालों के लिये एक वही स्थान था शहर में। सोचा था कि ताज़ी हवा में ताज़गी मिलेगी परंतु हुआ इसका उलट। हर कदम के साथ उनकी उदासी बढती ही जा रही थी। दादाजी के अवसान का शोक तो था ही पिताजी ऐवम अन्य सैनिकों की भीषण कार्यपरिस्थिति के प्रति राष्ट्र की उदासीनता उन्हें काटे डाल रही थी। इन सब के ऊपर उन्हें लगातार झरना से धोखा खाने का अहसास भी कचोट रहा था। पिछले कुछ सप्ताहों में उन्होंने न जाने कितनी बार जीवन की नश्वरता के बारे में बडी शिद्दत से सोचा था। वे बलपूर्वक संसार में मन लगाना चाहते थे परंतु सब कुछ अर्थहीन सा लगता था।

"अरे, यह तो वीर है" किसी महिला की आवाज़ उनके कान में पड़ी। जब तक वे समझ पाते, वासिफ की माँ और झरना उनके सामने खड़ी थीं। झरना के गाल और कान हया से या खुशी से सुर्ख से हो रहे थे। ढलते हुए सूरज की किरणों में उसकी स्वर्णिम रंगत पर यह लालिमा एक और ही सूर्योदय का संकेत दे रही थी।

"हम भी वासिफ भाई के साथ ही आ गये, दो हफ्ते यहीं रहेंगे। आप चलिये न साथ में ..." माँ के कुछ बोलने से पहले ही झरना उत्साह में भरकर बोलने लगी।

वह बोलती जा रही थी और वीरसिंह के मन में समुद्र मंथन सा हो रहा था, "झूठी कहीं की ... ।"

उनका गला सूखने लगा। जैसे तैसे मुँह से बस इतना ही निकला, "जल्दी में हूँ, बाद में आपके घर आऊँगा, वासिफ से मिलने।"

झटके से उन्होंने घर की ओर दौड़ सी लगा दी।

सोमवार से विद्यालय खुल गया। पुराने दोस्त मिले, सिवाय एक वासिफ के। उसने स्कूल बदल लिया या छोड़ ही दिया, भगवान जाने । पर उसकी अनुपस्थिति से वीर को कोई शिकायत नहीं हुई। बल्कि उन्होंने अपने को बन्धनमुक्त ही महसूस किया। पहले दो दिन तो नये सहपाठियों, अध्यापकों, पाठ्यक्रम और पुस्तकों से परिचय होने में ही चले गये पर उसके बाद फिर से जीवन की निरर्थकता का बोध उनके ऊपर हावी होने लगा। बल्कि हर पल के साथ उनके हृदय का खालीपन बढता जाता था। अध्यापक पूरे सत्र में बोलते चले जाते थे और वीर के दिमाग में कभी झरना का प्यार और झूठ चल रहा होता, कभी दादाजी की चिता दिखती कभी उससे पहले का आन्धी-तूफान। इन सबसे बच पाते तो अपने को नक्सलियों से घिरे एक भारतीय सैनिक के रूप में पाते। उन्हें लगता कि उनके अधिकारी दुश्मनों से मिल गये हैं।

ऐसा नहीं कि वीर को अपने अन्दर होते इस परिवर्तन का अहसास नहीं था। वे इसे समझ भी रहे थे और इससे जूझने के उपाय भी कर रहे थे। जीवन जितना उदास लगता वे अपने आप से लड़कर उसे उतना ही रोचक बनाने का प्रयास करते। घर में होते तो फिल्मी गीत और ग़ज़लें सुनते रहते। बाहर आते तो फिल्म देखने निकल जाते। रिज़र्व प्रकृति के वीर ने आसपास के बच्चों के साथ पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। शहर में एक ही तरणताल था, वहाँ जाना शुरू कर दिया। कहाँ तो माँ इस घर-घुस्सू को बाहर निकालते-निकालते थक जाती थी और कहाँ अब जैसे बस खाना खाने और सोने के लिये ही घर आते थे।

भले ही भारत के अनेक नगरों में गुड़ी पडवा या पन्द्रह अगस्त का दिन पतंगों का होता हो, बरेली में हर दिन पतंगबाज़ी का होता है। रोज़ाना ही पेंच लड़ रहे होते हैं। तपते सूरज का सामना करते वीर इतवार को छत पर थे कि सामने सडक पर नज़र पड़ी तो प्रकाश की एक किरण वहाँ चमकी। झरना ही थी। हाथ में एक पर्ची लिये दलबीर की दुकान के बाहर खडी थी। दलबीर ने वीर की ओर इशारा किया। उनकी नज़रें झरना से मिलीं। ठीक उसी समय वीर ने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।

[क्रमशः]

Sunday, June 5, 2011

विश्वसनीयता का संकट - हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ अनुभव

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हमारे ज़माने में लोग अपनी डायरी में इधर-उधर से सुने हुए शेर आदि लिख लेते थे और अक्सर मूल लेखक का नाम भूल भी जाते थे। आजकल कई मासूम लोग अपने ब्लॉग पर भी ऐसा कर बैठते हैं। मगर कई कवियों को दूसरों की कविताओं को अपने नाम से छाप लेने का व्यसन भी होता है। कहीं दीप्ति नवल की कविता छप रही है, कहीं जगजीत सिंह की गायी गयी गज़ल, और कहीं हुल्लड़ मुरादाबादी की पैरोडी का माल चोर ले जा रहे हैं। और कुछ नहीं तो चेन-ईमेल में आयी तस्वीरें ही छप रही हैं।

चेन ईमेल के दुष्प्रभावों के बारे में अधिकांश लोग जानते ही हैं। यह ईमेल किसी लुभावने विषय को लेकर लिखे जाते हैं और इन्हें आगे अपने मित्रों व परिचितों को फॉरवर्ड करने का अनुरोध होता है। ऐसे अधिकांश ईमेल में मूल विषय तक पहुँचने के लिये भी हज़ारों ईमेल पतों के कई पृष्ठों को स्क्रोल डाउन करना पडता है। हर नये व्यक्ति के पास पहुँचते हुए इस ईमेल में नये पते जुडते जाते हैं और भेजने वालों के एजेंट तक आते हुए यह ईमेल लाखों मासूम पतों की बिक्री के लिये तैयार होती है। ऐसे कुछ सन्देशों में कुछ बातें अंशतः ठीक भी होती हैं परंतु अक्सर यह झूठ का पुलिन्दा ही होते हैं। मेरी नज़रों से गुज़रे कुछ उदाहरण देखिये

* यूनेस्को ने 'जन गण मन' को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान बताया है
* ब्रिटिश संसद में लॉर्ड मैकाले का शिक्षा द्वारा भारत को दास बनाने का ड्राफ्ट
* गंगाधर नेहरू का असली नाम गयासुद्दीन गाजी था
* टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादक ने मुम्बैया चूहा के नाम से पत्र लिखा
* ताजमहल तेजो महालय नामक शिव मन्दिर है
* हिटलर शाकाहारी था
* चीन की दीवार अंतरिक्ष से दिखने वाली अकेली मानव निर्मित संरचना है

पण्डित गंगाधर नेहरू
ऐसे ईमेल सन्देशों पर बहुत सी ब्लॉग पोस्ट्स लिखी जा चुकी हैं और शायद आगे भी लिखी जायेंगी। फ़ॉरवर्ड करने और लिखने से पहले इतना ध्यान रहे कि बिना जांचे-परखे किसी बात को आगे बढाने से हम कहीं झूठ को ही बढावा तो नहीं दे रहे हैं। और हाँ, कृपया मुझे ऐसा कोई भी चेन ईमेल अन्धाधुन्ध फॉरवर्ड न करें।

जब ऐसी ही एक ईमेल से उत्पन्न "एक अफ्रीकी बालक की य़ूएन सम्मान प्राप्त कविता" एक पत्रकार के ब्लॉग पर उनके वरिष्ठ पत्रकार के हवाले से पढी तो मैंने विनम्र भाषा में उन्हें बताया कि यूएन में "ऐन ऐफ़्रिकन किड" नामक कवि को कोई पुरस्कार नहीं दिया गया है और वैसे भी इतनी हल्की और जातिवादी तुकबन्दी को यूएन पुरस्कार नहीं देगा। जवाब में उन्होंने बताया कि "जांच-पड़ताल कर ही इसे प्रकाशित किया गया है। कृपया आप भी जांच लें।" आगे सम्वाद बेमानी था।

भारत की दशा रातोंरात बदलने का हौसला दर्शाते कुछ हिन्दी ब्लॉगों पर दिखने वाली एक सामान्य भूल है भारत का ऐसा नक्शा दिखाना जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य का अधिकांश भाग चीन-पाकिस्तान में दिखाया जाता है। कई नक्शों में अरुणाचल भी चीन के कब्ज़े में दिखता है। नैतिकता की बात क्या कहूँ, कानूनी रूप से भी ऐसा नक्शा दिखाना शायद अपराध की श्रेणी में आयेगा। दुर्भाग्य से यह भूल मैंने वरिष्ठ बुद्धिजीवी, पत्रकारों और न्यायवेत्ताओं के ब्लॉग पर भी देखी है। जहाँ अधिकांश लोगों ने टोके जाने पर भूल सुधार ली वहीं एक वरिष्ठ शिक्षाकर्मी ब्लॉगर ने स्पष्ट कहा कि उन्होंने तो नक़्शा गूगल से लिया है।

मेरी ब्लॉगिंग के आरम्भिक दिनों में एक प्रविष्टि में मैंने नाम लिये बिना एक उच्च शिक्षित भारतीय युवक द्वारा अपने उत्तर भारतीय नगर के अनुभव को ही भारत मानने की बात इंगित की तो एक राजनीतिज्ञ ब्लॉगर मुझे अमेरिकी झंडे के नीचे शपथ लिया हुआ दक्षिण भारतीय कहकर अपना ज्ञानालोक फैला गये। उनकी खुशी को बरकरार रखते हुए मैंने उनकी टिप्पणी का कोई उत्तर तो नहीं दिया पर उत्तर-दक्षिण और देसी-विदेशी के खेमों में बंटे उनके वैश्विक समाजवाद की हवा ज़रूर निकल गयी। उसके बाद से ही मैंने ब्लॉग पर अपना प्रचलित उत्तर भारतीय हिन्दी नाम सामने रखा जो आज तक बरकरार है।

मेरे ख्याल से हिन्दी ब्लॉग में सबसे ज़्यादा लम्बी-लम्बी फेंकी जा रही है भारतीय संस्कृति, भाषा और सभ्यता के क्षेत्र में। उदाहरणार्थ एक मित्र के ब्लॉग पर जब हिन्दी अंकों के उच्चारण के बारे में एक पोस्ट छपी तो टिप्पणियों में हिन्दी के स्वनामधन्य व्यक्तित्व राजभाषा हिन्दी के मानक अंकों को शान से रोमन बता गये। अन्य भाषाओं और लिपियों की बात भी कोई खास फर्क नहीं है। भारतीय देवता हों, पंचांग हों, या शास्त्र, आपको हर प्रकार की अप्रमाणिक जानकारी तुरंत मिल जायेगी।

अब तक के मेरे ब्लॉग-जीवन में सबसे फिज़ूल दुर्घटना एक प्रदेश के कुछ सरल नामों पर हुई जिसकी वजह से सही होते हुए भी एक स्कूल से अपना नाम पर्मानैंटली कट गया। बाद में सम्बद्ध प्रदेश के एक सम्माननीय और उच्च शिक्षित भद्रपुरुष की गवाही से यह स्पष्ट हुआ कि स्कूल के जज उतने ज्ञानी नहीं थे जितने कि बताये जा रहे थे। उस घटना के बाद से अब तक तो कई जगह से नाम कट चुके हैं और शायद आगे और भी कटेंगे लेकिन मेरा विश्वास है कि विश्वसनीयता की कीमत कभी भी कम नहीं होने वाली।

हिन्दी ब्लॉगिंग में अपने तीन वर्ष पूरे होने पर मैं इस विषय में सोच रहा था लेकिन समझ नहीं आया कि हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता और प्रामाणिकता की मात्रा कैसे बढ़े। आपके पास कोई विचार हो तो साझा कीजिये न।

Saturday, June 4, 2011

पर्यावरण दिवस 2011[इस्पात नगरी से - 41]

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सबके लिये पेयजल - एक पक्षी बॉस्टन से 

हर बालक को मिले माँ का प्रेम - रामपुर

दिल्ली की गर्मी में एक काक

न्यूयॉर्क के पोत पर एक आरामतलब कपोत

दो मुट्ठी आकाश - स्वच्छ पर्यावरण 
ॐ शांति: शांति: शांति:

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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Thursday, June 2, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 11

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पिछली कड़ियाँ - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10
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अपनी छुट्टी पूरी होते ही पिताजी तो वापस चले गये। परन्तु वीर और उनकी माँ छुट्टी भर नई सराय में ही रहे। दादी अकेली ज़रूर हुई थीं परंतु उनका जज़्बा बना हुआ था। अकेले में शायद रो लेती हों, मगर बहू और पोते के सामने कभी कमज़ोर नहीं दिखीं। पुत्तू और लखना भी सदा की भांति आते रहे और निक्की भी। स्कूल खुलने से पहले वीर को भी अपने घर जाना था। पहले पिताजी और अब माँ ने दादी को समझाने का प्रयत्न किया कि वे भी अपने पोते और बहू के साथ ही चलें परंतु दादी तो किसी भी कीमत पर नई सराय छोड़ने को तैयार ही नहीं थीं। वीर के चलने का दिन आया। वीर अपनी अटैचियाँ बांधे तैयार खड़े थे। माँ और दादी दोनों सजल नेत्रों से एक दूसरे के गले लगाकर रो रही थीं।

उसी समय कहीं से निक्की वहाँ आ गयी। कहीं से वीर की भौतिकी की पुस्तक ढूंढकर लाई थी। वीर ने पुस्तक हाथ में ली। लगभग उसी समय माँ ने विदा लेकर उन्हें चलने को कहा। लखना पहले ही इक्का ले आया था। इक्के में चुपचाप बैठे वे दोनों बस अड्डे जा रहे थे। माँ ने अचानक कहा, “क्या दिया निक्की ने तुम्हें?”

“मेरी किताब। और क्या?”

“किताब के साथ वह लिफाफा क्या है? तुम दूर ही रहना, पढाई में बिल्कुल ध्यान नहीं है इस लड़की का।”

वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झाँक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे। सुन्दर अक्षरों में स्पष्ट अंग्रेज़ी में लिखा था, बिना किसी लाग-लपेट के।

प्रिय वीर,

तुम्हारी पीड़ा का अनुमान है मुझे। तुम्हें शायद विश्वास न हो मगर अब मैं अपने से अधिक तुम्हें पहचानने लगी हूँ। मुझे पूरा अहसास है कि तुम पर क्या बीत रही है। काश! मैं एक जादुई परी होती और तुम्हारा दर्द कम कर सकती। यदि मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकी तो अपने को धन्य समझूंगी। अभी तो तुम यहीं हो और मैं अभी से तुम्हारी कमी महसूस करने लगी हूँ। मुझे पता नहीं मुझे क्या हुआ है। शायद तुम्हें पता हो। अगर हो तो मुझे मिलकर बताना ...

केवल तुम्हारी ...


पागल लड़की! वीर के दिल में अजीब सा कुछ हुआ। कलेजे में भीतर तक अच्छा लगा कि किसी को उनकी तकलीफ़ का अहसास है। निक्की की हिम्मत पर हँसी भी आई। उसके भविष्य के बारे में सोचकर दु:ख भी हुआ। माँ शायद ठीक ही कहती हैं। निक्की का ध्यान पढ़ाई से हट चुका है। अभी है ही कितनी बड़ी? 10-12 साल की ही होगी शायद।

[क्रमशः]