Saturday, August 11, 2012

वैजयंती, मेरे आंगन की - हरे कृष्णा!

वैजयंती की मुस्कान
* गवेधुक - वैजयन्ती माला *
(चित्र व परिचय: अनुराग शर्मा)

प्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयंतीमाला बाली लोक सभा सांसद रह चुकी हैं| वैजयंती माला का जन्म 13 अगस्त 1936 को मैसूर के एक आयंगर परिवार में हुआ। वे गॉल्फ़ की खिलाड़ी हैं और आज भी भरतनाट्यम का नियमित अभ्यास करती हैं| उनका विवाह डॉ. चमन लाल बाली के साथ हुआ। उन्हें जन्मदिन की अग्रिम शुभकामनायें!

प्राकृतिक मोती - वैजयंती के बीज
जन्माष्टमी आकर गई ही है। पूरा देश कृष्णमय हो रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का वर्णन आने पर मयूरपंख और वैजयंती माला का ज़िक्र आना भी स्वाभाविक है। आज की इस पोस्ट का विषय भी यही दूसरी वाली वैजयंती माला है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार यह वैजयंतीमाला श्रीकृष्ण के सीने पर सुशोभित होती है। शुभ्र श्वेत से लेकर श्यामल तक लगभग पाँच रंगों में उपलब्ध इसके मोती जैसे बीज प्राकृतिक रूप से ही छिदे हुए होते हैं और बिना सुई के ही माला में पिरोये जा सकते हैं। इसकी राखी और ब्रेसलैट आदि भी आसानी से बनाये जा सकते हैं। वैजयंती के पौधे का वैज्ञानिक नाम Coix lacryma-jobi है। संस्कृत में इसका एक नाम गवेधुक भी है। इसे अंग्रेज़ी में जॉब्स टीयर्स (job's tears) भी कहते हैं। चीनी में चुआंगू और जापानी में हातोमूगी के नाम से जाना जाता है। इसके मोती/बीज/दाने अमेरिका में चीनी किराने की दुकानों के साथ-साथ ऐमेज़ोन डॉट कॉम पर सरलता से उपलब्ध है जबकि भारत में भोज्य पदार्थ, सौन्दर्यबोध या पूजा सामग्री सभी प्रकार से हमारी परम्परा के अनेक अंगों की भांति यह पौधा भी उपेक्षित रह गया है।

गवेधुक के मोती जैसे फल वाला जंगली पौधा
ऐसा माना जाता है कि चावल के स्थान पर वैजयंती खाने से शरीर के कॉलेस्टरॉल में - विशेषकर बुरे कॉलेस्टरॉल में -कमी आती है। परंतु यह धारणा भी है कि यह दवाओं के साथ - विशेषकर डायबिटीज़ में - विचित्र व्यवहार कर सकता है। वैसे भी किसी भी दवा के सेवन के समय भोज्य पदार्थों के बारे में विशिष्ट सावधानी रखने की सलाह दी जाती है। वैजयंती एक जिजीविषा भरा पौधा है जो भारत के समस्त मैदानी क्षेत्रों में आराम से उग आता है। कीड़े-बीमारियों आदि से नैसर्गिक रूप से सुरक्षित वैजयंती के बीज हिन्द-चीन क्षेत्र के अनेक देशों में भोजन के लिये आटे के रूप में या चावल के विकल्प के रूप में खाये जाते हैं। कोरिया और चीन में इसके पेय और मदिरा भी बनाई जाती है। जापान में इसका सिरका और थाइलैंड में चाय भी बनती है। आश्चर्य नहीं कि यह पौधा भारतीय खेतों में अपने आप उग आता हो और अज्ञानवश खरपतवार समझकर उखाड़ दिया जाता हो। वैजयंती के बीज आरम्भ में धवल और नर्म होते हैं। कच्चे बीज को आसानी से छीला जा सकता है। पकने के साथ ही यह कड़े और स्निग्ध होते जाते है।

यह खर-पतवार वैजयंती नहीं है
वैसे पूजा सामग्री आदि बेचने वाले कुछ उद्यमी पहले से ही वैजयंती माला बेचते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों से वास्तु और ज्योतिष के फ़ैशन में आने के बाद से जहाँ रत्न आदि के व्यापार में उछाल आया है वहाँ वैजयंती माला के चित्र भी इंटरनैट पर दिखने लगे हैं। (वैजयंती माला का एक चित्र यहाँ देखा जा सकता है।) इन आधुनिक घटनाओं से इतर बहुत से भारतीय घरों में वैजयंती के पौधे लम्बे समय से लगे हैं। मेरे परिवार के कुछ घरों में भी ये पौधे हैं और उसके बीज (मोती या दाने) मेरे पास पिट्सबर्ग में भी रहे हैं। लेकिन सामान्यजन में इसकी जानकारी कम है। कई वर्ष पहले अंतर्जाल पर शायद किसी वैज्ञानिक पहेली में भी केलि के पौधे को वैजयंती बताया जा रहा था।

केलि (कैना लिली) भी वैजयंती नहीं है - यह चित्र गिरिजेश राव द्वारा
लेकिन इस बार जब एक आत्मीय की फ़ेसबुक वाल पर केलि के लिये वैजयंती नाम देखा तो पहचान के इस भ्रम पर रोशनी डालने के लिये वैजयंती पर लिखने का मन किया। लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में केलि के पौधे (कैना लिली) को किसी भ्रमवश वैजयंती समझा जा रहा है। इसके फूलों के तो हार भी बनते नहीं देखे, माला - वह भी वैजयंती - बनने की तो सम्भावना ही नहीं दिखती। पेड़-पौधों व पशु-पक्षियों के नामों के विषय में आलस अवाँछनीय होते हुए भी भारत में सामान्य है। ऐसे अज्ञान को बढावा देकर हम अन्जाने ही अपनी विरासत से दूर होते जा रहे हैं। सोमवल्ली जैसे पौधों की पहचान तो आज असम्भव सी दिखती है। ऐसे में ज़रूरत है कि भ्रम को बढावा देने से बचा जाये और जहाँ कहीं, जितनी बहुत पहचान बाकी रह गयी है उसे बचाया जाये।

गवेधुक, वैजयंती, जॉब्स टीयर्स - कितने नाम!
जब वैजयंती (या गवेधुक) पर लिखने की सोची तो यूँ ही मन में आया कि एक पौधा पिट्सबर्ग में उगाकर भी देखा जाये। कई गमलों में बीज लगाने के बाद उनमें से एक में घास-फूस जैसा जो कुछ भी उगा उसे उगने दिया। एक महीने में ही वैजयंती का पौधा अपनी अलग पहचान बताने लायक बड़ा हो गया है। यहाँ प्रस्तुत चित्र उसी पौधे का है। यह पौधा कुश घास जैसा दिखता है और मोती आने से पहले इसे ठीक से पहचान पाना या सामान्य घास से अलग कर पाना कठिन है। घास जैसे पौधों पर गिरिजेश ने पिछले वर्ष एक बहुत बढिया आलेख लिखा था, यदि आप फिर से पढना चाहें तो उसका लिंक इस आलेख के नीचे दिया गया है। आभार!

वैजयंती घास का सौन्दर्य
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"नहीं! वह सपना नहीं हो सकता।" देवकी ने कहा, "वह यहीं था, मेरे पास। मेरी नासिका में अभी तक उसकी वैजयंती माला के पुष्पों की गंध है। मेरे कानों में उसकी बाँसुरी के स्वर हैं। उसने छुआ भी था मुझे ..."

"तो तुम्हारा कृष्ण वंशी बजाता है?'' वसुदेव हँस पड़े, ''तुम्हें किसने बताया कि वह वंशी बजाता है? यादवों का राजकुमार वंशी बजाता है। वह ग्वाला है या चरवाहा कि वंशी बजाता है। तुमने कब देखा कि वह वैजयंती माला धारण करता है?"
[डॉ नरेंद्र कोहली के उपन्यास वसुदेव से एक अंश - लगता है नरेंद्र कोहली भी वैजयंती-माला को किसी खुशबूदार फूल का हार ही मान रहे हैं]
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आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी पर्व की हार्दिक बधाई!
सम्बन्धित कड़ियाँ *
* वैजयंती - विकीपीडिया
* कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़

Wednesday, August 8, 2012

दिल है सोने का, सोने की आशा

एमसी मेरीकॉम
अपनी श्रेणी में कई बार विश्वविजेता रहीं मणिपुर की मैरीकॉम से भारत को बड़ी उम्मीदें थीं। काँस्य लाकर भी उन्होंने देश को गर्व का एक अवसर तो दिया ही है साथ ही एक बार यह सोचने को बाध्य किया है कि ओलिम्पिक स्वर्ण पाने के लिये विश्वविजेता होना भर काफ़ी नहीं है। कुछ और भी चाहिये। वह क्या है? आम भारतीयों के बीच आपसी सहयोग और सहनशीलता का रिकॉर्ड देखते हुए दल के रूप में खेले जाने वाले खेलों में तो भारत को अधिक उम्मीद लगाना शायद बचपना ही होगा। लेकिन कम से कम अपनी खुद की ज़िम्मेदारी ले सकने वाली व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारतीयों के चमकने के अवसर बनाये जा सकते हैं। तैराकी जैसे खेलों में तो तकनीक की भूमिका इतनी अधिक है कि भारत जैसे अव्यवस्थित देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिये यात्रा बहुत लम्बी है। हाँ, तीरन्दाज़ी, निशानेबाज़ी, भारोत्तोलन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी आदि खेलों के लिये हमारे पास सक्षम खिलाड़ियों की कमी होनी नहीं चाहिये। फिर कमी कहाँ है? शायद हर जगह। खिलाड़ियों के चुनाव, प्रशिक्षण, सुविधायें, पोषण, चिकित्सा, प्रतिस्पर्धाओं से लेकर धन, आत्मविश्वास, राजनीति, और नीति-क्रियान्वयन तक हर जगह सुधार की बड़ी गुंजाइश है।

मैरीकॉम एक-दो बार नहीं पाँच बार (2002, 2005, 2006, 2008 और 2010) विश्व चैम्पियन रह चुकी हैं। लेकिन उन्होंने ये सभी स्वर्ण पदक 46 और 48 किलो की श्रेणियों में जीते है। वर्तमान ओलंपिक स्पर्धाओं में यह भार वर्ग है ही नहीं। यदि उन्हें खेलना होता तो अर्हता के लिये अपना भार बढाकर 51 किलो करना पड़ता जिससे वे फ्लाईवेट श्रेणी में भाग लेने की पात्र बनतीं। उन्होंने यही किया। मुझे नहीं पता कि उन्हें यह जानकारी कब मिली और अपना भार 10% बढाने के लिये उन्हें कितना समय और सहायता मिली। लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह निर्णय लेने का मतलब है कि इस बार उनका सामना अपनी नियत श्रेणी से अगली श्रेणी के और अधिक भारी वर्ग के प्रतियोगियों से था जो कि उनकी स्पर्धा को और कठिन करता है। भविष्य में ऐसी चुनौतियों को देख पाने और बेहतर हैंडल करने की सुनियोजित रणनीति आवश्यक है।

दीपिका कुमारी
तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में झारखंड की 18 वर्षीय दीपिका कुमारी की कहानी इतनी मधुर नहीं रही। धनुर्विद्या में प्रथम सीडेड दीपिका को लंदन ओलम्पिक से खाली हाथ आना पड़ा यह खबर शायद उतनी खास नहीं है जितनी यह कि झारखंड के उप मुख्यमंत्री उनका प्रदर्शन देखने के लिये पाँच अन्य व्यक्तियों के साथ आठ दिन तक ब्रिटेन की यात्रा पर थे। एक ऑटो रिक्शा चालक शिव नारायण महतो की बेटी पेड़ों से आम तोड़ने के लिये घर पर बनाये तीर कमान से अपनी यात्रा आरम्भ करके प्रथम सीड तक पहुँच पाती है लेकिन उसका खेल "देखने" के लिये मंत्री जी की विदेश यात्रा से देश की खेल प्राथमिकतायें तो ज़ाहिर होती ही हैं।

एक अन्य स्पर्धा में अमेरिकी टीम द्वारा अपील करने पर पहले विजयी घोषित किये गये भारतीय खिलाड़ी को फ़ाउल्स के आधार पर हारा घोषित किया गया। भारतीय स्रोतों से कहा जा रहा है कि प्रतिद्वन्द्वी अमेरिकी खिलाड़ी ने भी बिल्कुल वही ग़लतियाँ की थीं। यदि यह बात सच है तब हमारे अधिकारी शायद अपना पक्ष सामने रखने में पीछे रह गये। स्पष्ट है कि खिलाड़ियों को खेल सिखाने के साथ अधिकारियों को अपील आदि के नियम सिखाना भी ओलम्पिक की तैयारी का ज़रूरी भाग होना चाहिये।

मिन क्षिया
खेलों में चीन की प्रगति के बारे में काफ़ी चर्चा होती है। 2004 में एथेंस और 2008 में बीजिंग में स्वर्ण जीतने के बाद 26 वर्षीया मिनक्षिया जब लंडन में गोताखोरी का स्वर्ण जीत चुकी तब उसके परिवार ने उसे खबर दी कि उसके दादा और दादी गुज़र चुके हैं तथा उसकी माँ पिछले आठ वर्षों से कैंसर का इलाज करा रही है। चीन के कड़े नियमों में जहाँ किसी परिवार को दूसरा बच्चा पैदा करने की आज्ञा भी नहीं है, किसी खिलाड़ी को ओलम्पिक स्पर्धा से पहले पारिवारिक हानि के समाचार सुनाना शायद खतरे से खाली नहीं होगा। यह घटना कितनी भी अमानवीय लगे यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही दर्शाना है कि कुछ देशों के लिये अपने राष्ट्रीय गौरव के सामने नागरिकों के मानवीय अधिकारों को कुचलना सामान्य सी बात है। हमें चीन के स्तर तक गिरने की ज़रूरत नहीं लेकिन उससे पहले भी इतना कुछ है करने के लिये कि यदि हो जाये तो अनेक स्पर्धाओं - विशेषकर व्यक्तिगत - के पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। वह दिन जल्दी ही आये, इंतज़ार है। शुभकामनायें!

[The images in this post have been taken from various news sources on Internet.]

Sunday, August 5, 2012

बलवानों को दे दे ज्ञान - इस्पात नगरी से [59]

हर रविवार की तरह जब आज सुबह भारतीय समुदाय के लोग ओक क्रीक, विस्कॉंसिन के गुरुद्वारे में इकट्ठे हुए तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि वहाँ कैसी मार्मिक घटना होने वाली थी। अभी तक जितनी जानकारी है उसके अनुसार गोरे रंग और लम्बे-चौडे शरीर वाले एक चालीस वर्षीय व्यक्ति ने गोलियाँ चलाकर गुरुद्वारे के बाहर चार और भीतर तीन लोगों की हत्या कर दी। इस घटना में कई अन्य लोग घायल हुए हैं। सहायता सेवा पर आये फ़ोन कॉल के बाद गुरुद्वारे पहुँचने वाले पहले पुलिस अधिकारी को दस गोलियाँ लगीं और वह अभी भी शल्य कक्ष में है। बाद में हत्यारा भी पुलिस अधिकारियों की गोली से मारा गया।

सरकार ने इस घृणा अपराध घटना को आंतरिक आतंकवाद माना है और इस कारण से इस मामले की जाँच स्थानीय पुलिस के साथ-साथ आतंकवाद निरोधी बल (ATF) और केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (FBI) भी कर रहे हैं। हत्यारे के बारे में आधिकारिक जानकारी अभी तक जारी नहीं की गई है मगर पुलिस ने जिस अपार्टमेंट को सील कर जाँच की है उसके आधार पर एक महिला ने हत्यारे को वर्तमान निवास से पहले अपने बेटे के घर में किराये पर रहा हुआ बताया है। इस महिला के अनुसार हाल ही में इस व्यक्ति का अपनी महिला मित्र से सम्बन्ध-विच्छेद भी हुआ था।

यह घटना सचमुच दर्दनाक है। मेरी सम्वेदनायें मृतकों और घायलों के साथ हैं। दुख इस बात का है कि अमेरिका में हिंसा बढती दिख रही है। कुछ ही दिन पहले एक नई फ़िल्म के रिलीज़ के पहले दिन ही एक व्यक्ति ने सिनेमा हॉल में घुसकर सामूहिक हत्यायें की थीं। कुछ समय और पहले ठीक यहीं पिट्सबर्ग के मनोरोग चिकित्सालय में घुसकर एक व्यक्ति ने वैसा ही कुकृत्य किया था। हिंसा बढने के कारणों की खोज हो तो शायद हर घटना के बाद कुछ नई जानकारी सामने आये लेकिन एक बात तो पक्की है। वह है अमेरिका का हथियार कानून।

अधिकांश अमेरिकी आज भी बन्दूक खरीदने के अधिकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर देखते हैं। सामान्य पिस्तौल या रिवॉल्वर ही नहीं बल्कि अत्यधिक मारक क्षमता वाले अति शक्तिशाली हथियार भी आसानी से उपलब्ध हैं और अधिकांश राज्यों में कोई भी उन्हें खरीद सकता है। दुःख की बात यह है कि हथियार लॉबी कुछ इस प्रकार का प्रचार करती है मानो इस प्रकार की घटनाओं का कारण समाज में अधिक हथियार न होना हो। वर्जीनिया टेक विद्यालय की गोलीबारी की घटना के बाद हुई लम्बी वार्ता में एक सहकर्मी इस बात पर डटा रहा कि यदि उस घटना के समय अन्य लोगों के पास हथियार होते तो कम लोग मरते। वह यह बात समझ ही नहीं सका कि यदि हत्यारे को बन्दूक सुलभ न होती तो घटना घटती ही नहीं, घात की कमी-बेशी तो बाद की बात है।

आज की इस घटना ने मुझे डॉ. गोर्डन हडसन (Dr. Gordon Hodson) के नेतृत्व में हुए उस अध्ययन की याद दिलाई जिसमें रंगभेद, जातिवाद, कट्टरपन और पूर्वाग्रह आदि का सम्बन्ध बुद्धि सूचकांक (IQ) से जोड़ा गया था। यह अध्ययन साइकॉलॉजिकल साइंस में छपा है और इसका सार निःशुल्क उपलब्ध है। ब्रिटेन भर से इकट्ठे किये गये आँकड़ों में से 15,874 बच्चों के बुद्धि सूचकांक का अध्ययन करने के बाद मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि कम बुद्धि सूचकांक वाले बच्चे बड़े होकर भेदभाव और कट्टरता अपनाने में अपने अधिक बुद्धिमान साथियों से आगे रहते हैं। अमेरिकी आँकड़ों पर आधारित एक अध्ययन में कम बुद्धि सूचकांक और पूर्वाग्रहों का निकट सम्बन्ध पाया गया है। इसी प्रकार निम्न बुद्धि सूचकांक वाले बच्चे बड़े होकर नियंत्रणवाद, कठोर अनुशासन और तानाशाही आदि में अधिक विश्वास करते हुए पाये गये।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ...
इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि बेहतर समझ पूर्वाग्रहों का बेहतर इलाज कर सकती है। वर्जीनिया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डॉ. ब्रायन नोसेक (Dr. Brian Nosek) का कहना है कि अधिक बुद्धिमता तर्कों की असंगतता को स्वीकार कर सकती है जबकि कम बुद्धि के लिये यह कठिन है, उसके लिये तो कोई एक वाद या विचारधारा जैसे सरल साधन को अपना लेना ही आसान साधन है।

बुद्धि के विस्तार और व्यक्ति, वाद, मज़हब, क्षेत्र आदि की सीमाओं से मुक्ति के सम्बन्ध के बारे में मेरा अपना नज़रिया भी लगभग यही है। बुद्धि हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर सतत निर्देशित करती रहती है। पूर्वाग्रहों से बचने के लिये अपने अंतर का प्रकाशस्रोत लगातार प्रज्ज्वलित रखना होगा। सवाल यह है कि ऐसा हो कैसे? बहुजन में बेहतर समझ कैसे पैदा की जाय? सब लोग नैसर्गिक रूप से एक से कुशाग्रबुद्धि तो हो नहीं सकते। तब अनेकता में एकता कैसे लाई जाये, संज्ञानात्मक मतभेद (Cognitive dissonance) के साथ रहना कैसे हो? मुझे तो यही लगता है कि स्वतंत्र वातावरण में पले बढे बच्चे नैसर्गिक रूप से स्वतंत्र विचारधारा की ओर उन्मुख होते हैं जबकि नियंत्रण और भय से जकड़े वातावरण में परवरिश पाये बच्चों को बड़े होने के बाद भी मतैक्य, कट्टरता, तानाशाही ही स्वाभाविक आचरण लगते हैं। इसलिये हमारा कर्तव्य बनता है कि बच्चों को वैविध्य की खूबसूरती और सुखी मानवता के लिये सहिष्णुता की आवश्यकता के बारे में विशेष रूप से अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करें। इस विषय पर आपके विचार और अनुभव जानने की इच्छा है।
सम्बन्धित कड़ियाँ
* गुरुद्वारा गोलीबारी में सात मृत
* अमेरिका में आग्नेयास्त्र हिंसा
* प्रकाशित मन और तामसिक अभिरुचि
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
अहिसा परमो धर्मः
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥ (ऋग्वेद 12.191.4)