Saturday, June 28, 2014

लिपियाँ और कमियाँ



स्वर
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ ऎ ए ऐ ऒ ऑ ओ औ अं अः

व्यञ्जन
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल ळ व श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ श्र क़ ख़ ग़ ज़ ड़ ढ़ फ़

मात्रायें व चिह्न
फिर कभी

सम्प्रेषण का एक माध्यम ही तो है लिपि। ध्वनियों को, संवाद, विचार, कथ्य, तथ्य, समाचार और साहित्य को रिकार्ड करने का एक प्रयास ताकि वह सुरक्षित रहे, देश-काल की सीमाओं से परे संप्रेषित हो सके। समय के साथ लिपियाँ बनती बिगड़ती रही हैं। कुछ प्रसारित हूईं, कुछ काल के गर्त में समा गईं। जहां सिन्धी, पंजाबी, कश्मीरी, जापानी, हिन्दी, संस्कृत आदि अनेक भाषायेँ एकाधिक लिपियों में लिखी जाती रही हैं, वहीं रोमन, देवनागरी आदि लिपियाँ अनेक भाषाओं के साथ जूड़ी हैं। रोचक है लिपि-भाषा का यह अनेकानेक संबंध। अचूक हो या त्रुटिपूर्ण, पिरामिडों के अंकन निर्कूट तो कर लिए गए हैं लेकिन सिंधु-सरस्वती सभ्यता की लिपि आज भी एक चुनौती बनी हुई है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका ने जर्मनों द्वारा पकड़े जा रहे सैन्य संदेशों को सुरक्षित रखने के लिए मूल अमेरिकी (नेटिव इंडियन) समुदाय की एक लगभग अप्रचलित भाषा चोकटा (Choctaw) का सफल प्रयोग किया जिसके लिए उस समय किसी लिपि का प्रयोग ज्ञात नहीं था। जर्मन उन संदेशों को भेद नहीं सके और इस प्रकार वह संदेश प्रणाली एक अकाट्य शस्त्र साबित हुई।  

फेसबुक और कुछ काव्य मंचों पर हिन्दी शब्द लेखन की बारीकियों पर चल रही बहसों के मद्देनजर अपनी जानकारी में रहे कुछ तथ्य सामने रख रहा हूँ। स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉग की अन्य पोस्टों की तरह इस आलेख के पीछे भी केवल परंपरा से आई जानकारी मात्र है, हिन्दी का आधिकारिक अध्ययन नहीं, क्योंकि हिन्दी ब्लॉगिंग में उपस्थित हिन्दी शोधार्थियों के बीच अपनी हिन्दी केवल इंटरमीडिएट पास है। यह भी संयोग है कि इस ब्लॉग की छः साल पहले लिखी पहली पोस्ट संयुक्ताक्षर 'ज्ञ' पर थी।

सच यह है कि कमी किसी भी लिपि में हो सकती है। हाँ इतना ज़रूर है कि वाक और लिपि के अंतर की बात चलने पर देवनागरी में अन्य लिपियों की अनेक मौजूदा कमियाँ बहुत पहले ही दूर की जा चुकी हैं। sh जैसी ध्वनि के लिए भी श और ष जैसे अलग अक्षर रखना मामूली ध्वनिभेद को भी चिह्नित करने के प्रयास का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ल तथा ळ का अंतर महान राष्ट्रीय नायक लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक के कुलनाम को ही बदल देता है जबकि मराठी और हिन्दी की लिपि एक होने के कारण हम हिंदीभाषियों द्वारा उद्दंडता से यह गलती करते रहने का कोई कारण नहीं बनता। ध्वनि के कई अंतर उन अप्रचलित अक्षरों में निहित हैं जिनका ज्ञान किसी सरकारी या तथाकथित प्रगतिशील कारणवश हिन्दी कक्षाओं से क्षरता जा रहा है।

अगर हम किसी शब्द को गलत बोलते रहे हैं तो यह गलती हमारे बोलने की हुई लिपि की नहीं। लिपि की कमी तब होगी जब वह लिपि किसी भाषा में प्रयुक्त किसी ध्वनि/शब्द को यथावस्तु लिख न सके। एक जगह अमृतम् गमय को जोड़कर किसी ने अमृतंगमय लिख दिया था। पढ़ने वाले ने उसको अमृ + तङ्ग + मय करके पढ़ा तो यह लिपि की गलती नहीं, बल्कि लिखने और पढ़ने वाले का भाषा अज्ञान है। इसी प्रकार यदि "स्त्री" शब्द को इस्त्री या स्तर को अस्तर कहा जाये तो यह वाक-कौशल की कमी का हुई न कि लिपि की। कालिदास की कथा में वे उष्ट्र को उट्र कहते पाये गए थे। यदि उस समय लिपि होती या नहीं होती, उनके उच्चारण का दोष उनके उच्चारण का ही रहता, लिखने और पढे जाने के अंतर का नहीं। महाराष्ट्र के गाँव शिर्वळ को हर सरकारी, गैर-सरकारी बोर्ड पर शिरवल लिखा जाता था जो किसी भी अंजान व्यक्ति को पढ़ने में शिखल लगता था। पहले छापेखाने के सीमित अक्षरों और लेखकों, संपादकों व प्रकाशकों की लापरवाही से कई पुस्तकों, अखबारों में स्र को अक्सर स्त्र लिखा जाता देखा था। लिखे हुए को ब्रह्मवाक्य समझने वालों ने पढ़कर ही पहली बार जाने कई शब्दों, जैसे "सहस्र" आदि के उच्चारण इस कारण ही गलत समझे। आजकल कितनी कमियाँ हमारे कम्प्यूटरों/फोन आदि की आगम-लेखन-सुझाव क्षमताओं के कारण भी होते हैं क्योंकि इन क्षमताओं का अनुकूलन भारतीय लिपियों के लिए उतना भी नहीं हुआ है जितना सामान्य लेखन के लिए ज़रूरी है।

दिल्ली में हर सरकारी साइन पर ड को ड़ लिखने की कुप्रथा थी, जिसमें हर रोड, रोड़ हो जाती थी। हद तो तब हो गई जब मंडी हाउस को भी पथ-चिह्नों में मंड़ी हाउस लिखा पाया। स्कूल को उत्तर प्रदेश में कितने लोग इस्कूल कहते हैं और पंजाब में अस्कूल भी कहते हैं। कई हिन्दी भाषी तो टीवी पर स्पष्ट को भी अस्पष्ट कहकर अर्थ का अनर्थ कर रहे होते हैं। उर्दू सहित अनेक बोलियों के आलस और फारसी, रोमन जैसी लिपियों की कमियों के कारण भी कितने ही संस्कृत शब्द समयान्तराल में अपना मूल रूप खो बैठे हैं। फेसबुक पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के बारे में लिखे गए कुछ स्टेटस पढ़कर तो यही लगता है कि हिन्दी के मानकीकरण और शिक्षण पर और ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है, ताकि वाचन की क्षेत्रीय या व्यक्तिगत कमियों को लिपि की कमी न समझा जाये।

जब “र्“ व्यञ्जन की अपने बाद आने वाले किसी अन्य अक्षर से संधि होती है तो यह अगले अक्षर के ऊपर “र्क“, "र्ख" और “र्ट“ जैसे दिखाता है और संधि में जब र बाद में हो तो पिछले अक्षर के नीचे “क्र”, "ख्र" और “ट्र” जैसा दिखाता है। देवनागरी अपनाने वाली भाषाओं में "र्" से आरंभ होने वाले शब्द सीमित ही होंगे। कम से कम इस समय मुझे ऐसा कोई शब्द याद नहीं आ रहा है। लेकिन विदेशी भाषाओं में ऐसे शब्द सर्व सुलभ हैं जिन्हें लिखते और पढ़ते समय "र्" की संधि लिखने के पहले नियम के कारण अजीब सा लगता है। जैसे पक्वान्न के लिए प्रयुक्त होने वाला एक जापानी शब्द, जिसे रोमन में ryooree या ryuri जैसा लिखा जा सकता है, उसे नागरी में र्यूरी लिखते समय ध्यान न देने पर उच्चारण की गलती हो सकती है, यद्यपि यह लिपि की नहीं, बल्कि भाषा, लिपि और व्यक्ति के बीच की घनिष्ठता की कमी हुई। यह भी संभावना है कि इस शब्द का बेहतर लेखन र्यूरी न होकर ॠयूरी जैसा कुछ हो। एक ऑनलाइन नेपाली चर्चा में मैंने र्याल् (ryal) की ध्वनि को र्‍याल् लिखने का सुझाव देखा है। कंप्यूटर पर र्‍याल् कैसे लिखा कैसे जाएगा, यह नहीं पता चला। कोई संस्कृत विद्वान शायद अधिकार से स्पष्ट कर सकें। लेकिन हम सामान्य लोगों के लिए भी सत्यान्वेषण का पहला कदम तो अज्ञान के निराकरण का ही होना चाहिए।

कुछ अन्य उच्चारण भी हैं जिन्हें ठीक न लिखे जाने पर संदेह की स्थिति उत्पन्न होती है। जैसे अकलतरा लिखने पर वह अक-लतरा भी पढ़ा जा सकता है और अकल-तरा भी। यद्यपि रोमन में तो वही शब्द अकलतरा (akaltara) लिखने पर तो नागरी से कहीं अधिक ही संभावित उच्चारण बन जाते हैं। जहां अङ्ग्रेज़ी की गलतियों पर हम अति भावुक हो जाते हैं वहीं भारतीय भाषा-लिपि में होने वाली गलतियों की उपेक्षा ही नहीं कई बार उन्हें इस खामोख्याली में उत्साहित भी करते हैं, मानो हिन्दी का अज्ञान स्वतः ही अङ्ग्रेज़ी का सुपर-ज्ञान मान लिया जाएगा। अच्छा यही होगा कि लिखते समय उच्चारण का ध्यान रखा जाये और चन्द्रबिन्दु आदि चिह्नों का समुचित प्रयोग हो। लिपि-पाठ में दुविधा की स्थिति के लिए मेरा सुझाव तो यही है कि संदेह की स्थिति में कोई भी निर्णय लेते समय यह ध्यान रहे कि गलतियाँ बोलने,लिखने और पढ़ने, तीनों में ही संभव हैं। क्षेत्रीय उच्चारण की भिन्नताएँ भी स्वाभाविक ही हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वाक लेखन से पहले जन्मा है और बाद तक रहेगा। भाषा मूल है लिपि उसकी सहायक है।

काफी कुछ लिखना है इस विषय पर। ध्यान रहने और समय मिलने का संगम होते ही कुछ और ...
* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Monday, June 9, 2014

सत्य पर एक नज़र - दो कथाओं के माध्यम से

1. दो सत्यनिष्ठ (संसार की सबसे छोटी बोधकथा)
चोटी पर बैठा सन्यासी चहका, "धूप है"।  तलहटी का गृहस्थ बोला, "नहीं, सर्दी है"।  ऊपर चढ़ते पर्वतारोही ने कहा, "ठंड घट रही है।"
2. निबंध - लघुकथा

बच्चा खुश था। उसने न केवल निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया बल्कि इतना अच्छा निबंध लिखा कि उसे कोई न कोई पुरस्कार मिलने की पूरी उम्मीद थी। "एक नया दिन" प्रतियोगिता के आयोजक खुश थे। सारी दुनिया से निबंध पहुँचे थे, प्रतियोगिता को बड़ी सफलता मिली थी। आकलन के लिए निबंधों के गट्ठे के गट्ठे शिक्षकों के पास भेजे गए ताकि सर्वश्रेष्ठ निबंधों को इनाम मिल सके।

परीक्षक जी का हँस-हँस के बुरा हाल था। कई निबंध थे ही इतने मज़ेदार। उदाहरण के लिए इस एक निबंध पर गौर फरमाइए।

दिन निकल आया था। सूरज दिखने लगा। दिखता रहा। एक घंटे, दो घंटे, दस घंटे, बीस घंटे, एक दिन पाँच दिन, दो सप्ताह, चार हफ्ते, एक महीना, दो महीने, ....

शुरुआत से आगे पढ़ा ही नहीं गया, रिजेक्ट करके एक किनारे पड़ी रद्दी की पेटी में डाल दिया।  

उत्तरी स्वीडन के निवासी बालक को यह पता ही न था कि कोई विद्वान उसके सच को कोरा झूठ मानकर पूरा पढे बिना ही प्रतियोगिता से बाहर कर देगा।

हमारे संसार का विस्तार वहीं तक है जहाँ तक हमारे अज्ञान का प्रकाश पहुँच सके।          

Thursday, June 5, 2014

लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2

नोट: कुछ समय पहले मैंने यह लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1 में एक लेखक की ज़िम्मेदारी और उसकी मानसिक हलचल को समझने का प्रयास किया था। उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से जानकारी में वृद्धि हुई। पिछले दिनों इसी विषय पर कुछ और बातें ध्यान में आयी, सो चर्चा को आगे बढ़ाता हूँ।
कालजयी ग्रन्थों की सूची में निर्विवाद रूप से शामिल ग्रंथ महाभारत में मुख्य पात्रों के साथ रचनाकार वेद व्यास स्वयं भी उपस्थित हैं। कोई लोग जय संहिता को भले आत्मकथात्मक कृति कहें लेकिन आज की आत्मकथाओं में अक्सर दिखने वाले एकतरफा और सीमित बयान के विपरीत वहाँ एक समग्र और विराट वर्णन है। मेरे ख्याल से समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं। यदि लेखन संस्मरणात्मक या आत्मकथनपरक लगे, और पाठक उससे अपने आप को जुड़ा महसूस करें तो सोने में सुहागा। लघुकथा के नाम पर अनगढ़ चुट्कुले या किसी उद्देश्यहीन घटना का सतही और आंशिक विवरण सामने आये तो निराशा ही होती है।

बदायूँ में अपने अल्पकालीन निवास के दौरान एक बार मैंने पत्राचार के माध्यम से अपने प्रिय लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क से अच्छी कहानी के बारे में उनकी राय पूछी थी। अन्य बहुत से गुणों के साथ ही जिस एक सामान्य तत्व की ओर उन्होने दृढ़ता से इशारा किया था वह थी सच्चाई। उनके शब्दों में कहूँ तो, "अच्छी कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती हैं। कल्पना के आधार पर गढ़ी कहानियों के पेंच अक्सर ढीले ही रह जाते हैं।"
अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
महाभारत का तो काल ही और था, छापेखाने से सिनेमा तक के जमाने में पाठक का लेखक से संवाद भी एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अंधेरे में रखता है।

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। कथा निर्माण के दौरान मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ। हमारा परिचय बस उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहां भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ यथासंभव उठाकर उनका कायाकल्प ही कर दिया है। कुछ पात्र शायद अपने को वहां पहचान भी न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका असली जीवन नहीं है। इतना ज़रूर है कि मेरे पात्र बेहद भले लोग हैं। अच्छे दिखें या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।

मेरी कहानियाँ मेरे पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। लेकिन उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ वास्तविक घटनाओं का यथारूप वर्णन या किसी समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैं तो कथाकार कहलाना भी नहीं चाहता, मैं तो बस एक किस्सागो हूँ। मेरा प्रयास है कि हर किस्सा एक संभावना प्रदान करे , एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी अधिकाँश कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। जहाँ निराशा दिखती है, वहां भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतंगमय का उद्घोष भी है।
एक लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है। सर्वश्रेष्ठ लेखक यह सब करना चाहते हैं ...
अरे, आप भी तो लिखते हैं, आपके क्या विचार हैं लेखन के बारे मेँ?