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Monday, May 19, 2014

ईमान की लूट - लघुकथा

लुटेरों के गैंग को उस बार लूट में अच्छी ख़ासी मात्रा में ईमानदारी मिल गई। लूट का माल बांटते समय झगड़ा होने लगा। कोई कहता कि मैं सबसे बड़ा हूँ इसलिए ईमानदारी में ज़्यादा हिस्सा लूँगा, कोई बोला कि सबसे चालाक होने के कारण सबसे बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना चाहिए।

सरदार ने कहा कि उसूलन तो आधा हिस्सा उसका है बाकी आधे में सारा गैंग जो चाहे करे। गांधीवादी ने कहा कि उसने सबसे अधिक थप्पड़ खाये हैं इसलिए उसे सबसे अधिक भाग का अधिकार  है। जिहादी बोला कि सबसे ज़्यादा सेकुलर होने के कारण उसका हक़ सबसे बड़ा है। माओवादी बोला कि उसने बम और IED फोड़कर अन्य सदस्यों से ज़्यादा खतरा उठाया है इसलिए उसका हक़ भी ज़्यादा है। मार्क्सवादी कहने लगा कि उसे 75% मिलना चाहिए क्योंकि बाकी जनता में तो सब बराबर के अधिकारी हैं, सो उन्हें 25% भी कम नहीं।

वकील बोला कि गैंग को बचाने के लिए झूठ बोलते-बोलते उसकी ईमानदारी सबसे पहले खर्च हो जाती है वहीं प्रोफेसर ने छात्रों को फुसलाकर केडर भर्ती करने के काम को सबसे कठिन बताया। अर्थगामी ने लारा दिया कि जितनी ज़्यादा ईमानदारी उसे मिलेगी, वह दल को निवेश पर उतना ही अधिक लाभांश दिलवाएगा। पत्रकार का कहना था कि प्रचार के लिए उसे ईमानदारी खसोटने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

सबने एक दूसरे पर बंदूकें तान दीं। गोलियां चलीं तो कुछ मर-खप गए। बचे हुए लुटेरे गंभीर रूप से घायल होकर भाग लिए। लुटे-पिटे सरदार अकेले रह गए। अब उनकी ईमानदारी भी सब खर्च हो गई है। सो ईमानदारी बैंक पर अगला ज़्यादा बड़ा हाथ मारने की सोच रहे हैं। तब तक उनके छिटके हुए गैंग पर कब्जा करने के लिए कई अन्य घायल अपनी अपनी ईमानदारी का बचा-खुचा कटोरा लिए नज़रें गढ़ाए बैठे हैं।

देखते हैं जनता किसकी ईमानदारी से लहलोट होने वाली है। जोतखी बाबा बोले कि बिना किसी भेदभाव के, पुराने ईमानदारी-लूट गैंग के जिस प्रमाणित सदस्य की किस्मत बुलंदी पर होगी, सरदार वही बनेगा।