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Wednesday, January 28, 2009

जावेद मामू - भाग २

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जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली
और दिल्ली का दिल बरेली


अब पढिये आगे की कहानी:

जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय कोई नया या कठिन शब्द सामने आने पर वे मुझसे ही सहायता मांगते थे। मैं उनको उस कठिन हिन्दी शब्द को आम बोलचाल की भाषा में अनूदित करके समझा देता था। उदाहरण के लिए, जब वे मुझसे पूछते थे, "सोपानबद्ध क्या होता है?" तो मैं उन्हें उर्दू समकक्ष "सीढ़ी-दर-सीढ़ी" बता देता था। वे अक्सर कहते थे कि अगर मैं न होता तो उनके हिन्दी अखबार के आधे पैसे बेकार ही जाते। इसी बहाने से वे कभी-कभी मुझे हिन्दी ब्रिगेड का नाम लेकर चिढ़ाते भी थे। उदाहरण के लिए, वे कहते, "अच्छा खासा नाम था बनारस, बोलने में कितना अच्छा लगता था, हिन्दी ब्रिगेड ने बदलकर कर दिया वाणाणसी..."

वाराणसी को अपने अजीब मजाकिया ढंग से नाक से वाणाणसी कहते हुए वह "णा" की ध्वनि को बहुत लंबा खींचते थे। आख़िर एक दिन मैंने उन्हें बताया कि वाराणसी का एक और नाम भी था। बनारस से कहीं ज़्यादा खूबसूरत और उससे छोटा भी। जो किसी भी भाषा और लिपि में उतनी ही सुन्दरता से लिखा, पढ़ा, और सुना जा सकता था जैसे की मूल संस्कृत में। वह प्राचीन नाम था - काशी। "काशी" नाम सुनने के बाद से उनका वह मज़ाक बंद हो गया। आज सोचता हूँ तो याद आता है कि तब से अब तक देश में कितना कुछ बदल गया है। बंबई मुम्बई हो गया, मद्रास चेन्नई हो गया और कलकत्ता कोलकाता में बदल गया। और तो और, अब तो बैंगलोर भी बदलकर बेंगळूरू हो गया है। मज़े की बात है कि इन में से एक भी बदलाव हिन्दी ब्रिगेड का कराया हुआ नहीं है। हिन्दी ब्रिगेड तो बनारस को काशी कराने की भी नहीं सोच सकी मगर अफ़सोस कि आज भी सारे अपमान हिन्दी ब्रिगेड के हिस्से में ही आकर गिरते हैं।

उस समय की बरेली में हिन्दी के कई रूप प्रचलित थे। शुद्ध परिष्कृत खड़ी बोली, देशज उर्दू, ब्रजभाषा, और अवधी, ये सभी बोली और समझी जाती थीं। सिर्फ़ उर्दू की लिपि अलग थी। मैं काफ़ी साफ़ उर्दू बोलता था मगर पढ़ लिख नहीं सकता था। मेरे दादाजी फारसी के ज्ञाता रहे थे मगर इस समय वे इस संसार में नहीं थे। जावेद मामू को रोज़ उर्दू अखबार पढ़ते देखकर एक दिन मेरे मन में भी उर्दू की लिपि पढ़ना-लिखना सीखने की इच्छा हुई। उस दिन से जावेद मामू ने प्रतिदिन अपने काम से थोड़ा समय निकालकर मुझे उर्दू लिखना-पढ़ना सिखाना शुरू किया।

एक दिन मैं उनकी दूकान पर खडा था। शायरी पर बात हो रही थी। तभी एक मौलवी साहब कड़ुआ तेल लेने आए। दो मिनट चुपचाप खड़े होकर हम दोनों की बातचीत सुनी और फिर जावेद मामू से मुखातिब हुए। पूछने लगे, "ये सब क्या चल्लिया है?"

"ये हमसे उर्दू सीख रहे हैं" जावेद मामू ने समझाया

"कमाल है, ये क्या विलायत से आए हैं जो इन्हें उर्दू नहीं आती?" मौलवी साहब ने बड़े आश्चर्य से पूछा।

जब जावेद मामू ने बताया कि मैं उसी मुहल्ले में रहता हूँ तो मौलवी साहब गुस्से में बुदबुदाने लगे, "हिन्दुस्तान में ऐसे-ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हें उर्दू ज़ुबाँ नहीं आती है।"

स्पष्ट है कि मौलवी साहब को भारत के भाषायी वैविध्य का आभास न था, लेकिन उनकी विचित्र मुखमुद्रा के कारण यह घटना मेरे मन में स्थायी हो गयी।

उत्तर प्रदेश में शायद आज भी गन्ना और चीनी बहुत होता हो। उन दिनों तो रूहेलखंड का क्षेत्र चीनी का कटोरा कहलाता था। बरेली और आसपास के क्षेत्रों में कई चीनी मिलों के अलावा बहुत सारी खंडसालें थीं। गुड, शक्कर बूरा, बताशे और चीनी के बने मीठे खिलौनों आदि के कुटीर उद्योग भी वहाँ इफ़रात में थे। हमारे घर के पास भी एक बड़ी सी खंडसाल थी। वह खंडसाल हर साल गन्ने की फसल के दिनों में कुछ निश्चित समय के लिए खुलती थी। उन दिनों में आस-पास के गाँवों से किसान लोग मटकों में शीरा भर-भर कर अपनी बारी के इंतज़ार में खंडसाल के बाहर सैकडों बैलगाड़ियों में पंक्ति बनाकर खड़े रहते थे। मीठे शीरे की खुशबू हवा में बिखर जाती  थी। उस खुशबू से जैसे मधुमक्खियाँ इकट्ठी हो जाती हैं वैसे ही छोटे-छोटे गंजे और शैतान बच्चों के झुंड के झुंड वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। कभी मौका लग जाए तो वे मांगकर शीरा खा लेते थे। और कभी जब शीरा घर ले जाना हो तो चलती बैलगाड़ी के पीछे चुपचाप लटककर एक-आध मटका फोड़ देते थे और टपकते शीरे के नीचे चुपचाप अलुमीनम का कोई कटोरा आदि लगाकर उसे भर लेते थे और जब तक गाड़ीवान को पता लगे, भाग जाते थे। अक्सर दोनों पक्षों के बीच गालियों का आदान प्रदान होता रहता था। गाड़ी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह-तरह की रोचक हरकतें, जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे। बेचारे गरीब किसानों की मेहनत के घड़े टूटते देखकर अफ़सोस भी होता था लेकिन आमतौर पर यह सब स्थिति काफी हास्यास्पद और मनोरञ्जक होती थी।
[अगला भाग]

Tuesday, January 27, 2009

जावेद मामू - कहानी

मैं स्टेशन पर बैठा हुआ झुंझला रहा था। रेल अपने नियत समय से पूरे दो घंटे लेट थी। देसाई जी की बात सही है कि आम भारतीय ट्रेनों की लेटलतीफी से इतना त्रस्त रहता है कि आपातकाल में रेल को वक़्त पर चलाने के बदले में अपनी आजादी गिरवी रखकर भी खुश था। रेल के आते ही मेरा गुस्सा और झुंझलाहट दोनों हवा हो गए। दौड़कर अपना डिब्बा ढूंढा और सीट पर कब्ज़ा कर के बैठ गया। मैं बहुत खुश था। खुश होने की वजह भी थी। इतने लंबे अंतराल के बाद बरेली जो जा रहा था। पूरे तीस साल और तीन महीने बाद अपना बरेली फिर से देखने को मिलेगा। न जाने कैसा होगा मेरा शहर। वक़्त की आंधी ने शायद अब तक सब कुछ उलट-पुलट कर दिया हो। जो भी हो बरेली का अनूठापन तो कभी भी खो नहीं सकता। किसी शायर ने कहा भी है:

हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली, और दिल्ली का दिल बरेली

आज मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ और जहाँ भी हूँ, उसमें बरेली का बहुत बड़ा हाथ है। मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा वहाँ बीता है। जैसा कि सभी लोग लोग जानते-समझते हैं, हिन्दुस्तान की जनसंख्या मुख्यतः हिन्दू है। लेकिन बरेली वाले जानते हैं कि हमारे शहर में हिन्दुओं से ज़्यादह मुसलमान बसते हैं। हमारे मुहल्ले में सिर्फ़ हमारी गली हिन्दुओं की थी। बाकी तो सब मुसलमान ही थे। कुछेक मामूली फर्क के अलावा बरेली के हिन्दू और मुसलमान में कोई ख़ास अन्तर न था। वे सदियों से एक दूसरे के साथ रहते आए थे और 1857 में उन्होंने एक साथ मिलकर एक साल तक बरेली को अंग्रेजों से आजाद रखा था। नगर के 'लक्ष्मीनारायण मन्दिर' को लोग आज भी "चुन्ना मियाँ का मन्दिर" कहकर ही बुलाते हैं। हमारे इलाके में बस एक हमारा मन्दिर था बाकी सब तरफ़ मस्जिदें ही दिखती थी। हमारे दिन की शुरूआत अजान के स्वरों के साथ ही होती थी। मुहर्रम के दिनों में हम भी दोस्तों के साथ हर तरफ़ लकडी के विशालकाय ताजियों के जुलूस देखने जाया करते थे। कहते हैं कि बरेली जैसे विशाल और शानदार ताजिये दुनिया भर में कहीं नहीं होते। होली-दीवाली वे हमारे घर आकर गुझियाँ खाते, पटाखे छोड़ते, रंग लगवाते, और मोर्चे लड़ते थे। ईद पर वे मेरे लिए सेवइयाँ भी लाते थे।

सच तो यह है कि एक परम्परागत ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी मुझे वर्षों तक हिन्दू-मुसलमान का अन्तर पता नहीं था। काश! मेरा वह अज्ञान आज भी बना रहता तो कितना अच्छा होता। हमारे घर में दाल-चावल जावेद हुसैन की दुकान से आता था और सब्जी-फल आदि बाबू खान के यहाँ से। आटा नसीम की चक्की पर पिसता था और मेरी पतंगें नफीस की दुकान से आती थीं। हमारा नाई भी मुसलमान था और दर्जी भी। हमारा पहला रेडियो भी बिजली वाले तनवीर अहमद की दुकान से आया था और वह सारे भजन के रिकॉर्ड भी जिन्हें सुन-सुनकर मैं बड़ा हुआ।

मेरे आस-पास बिखरे भाँति-भाँति के लोगों में जावेद हुसैन एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने मेरे बालमन को बहुत प्रभावित किया। वे मेरे मामा जी के मित्र थे इसलिए मैं उन्हें मामू कहता था। हमारे घर के सामने ही उनकी परचूनी की दुकान थी। मैं लगभग रोज़ ही सामान की पर्ची लेकर उनकी दुकान पर जाता था और घर-ज़रूरत का सामान लाया करता था। उनके अन्य ग्राहकों के विपरीत मुझे किसी चीज़ का भाव पूछने की आवश्यकता न थी क्योंकि हमारा हिसाब महीने के अंत में होता था। उनकी दुकान में मेरा समय सामान लेने से ज़्यादा उनसे बातचीत करने में और अपने से बिल्कुल भिन्न उनके दूसरे ग्राहकों की जीवन-शैली देखने-समझने में बीतता था। उनकी दुकान वह स्थल था जहाँ मैं अपने मुस्लिम पड़ोसियों को नज़दीक से देखता था।

वे सभी गरीब थे। उनमें से अधिकाँश तो इतने गरीब थे कि आपमें से बहुत से लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उनके कपड़े अक्सर गंदे और फटे हुए होते थे। आदमी और लड़के तो आमतौर पर सिर्फ़ उतने ही कपड़े पहनते थे जिनसे शरीर का कुछ ज़रूरी भाग ढँक भर जाए। लड़कियों की दशा भी कोई ख़ास बेहतर नहीं होती थी। हाँ, औरतें ज़रूर नख-शिख तक काले या सफ़ेद बुर्के से ढँकी होती थीं। तब मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि अधिकाँश बच्चों का सर घुटा हुआ होता था। इसी कारण से वे बच्चे अक्सर एक दूसरे को 'अबे गंजे' कहकर भी बुलाते थे। अब मैं जानता हूँ कि उनके सर घुटाकर उनके माता-पिता बार-बार बाल कटाने के कष्ट से बच जाते थे और गंजा सर उन बच्चों को थोडा साफ़ भी रखता था जिनके लिए नहाना भी किसी विलास से कम नहीं था। जो भी हो वे सभी बच्चे मेरी तरह गंभीर और नीरस न होकर बड़े ही खुशमिजाज़, जीवंत और रोचक थे।

मुझे घर में कोई पालतू जानवर रखने की आज्ञा नहीं थी। इसके कई कारण दिए जाते थे। एक तो इससे उस पशु-पक्षी की स्वतन्त्रता का हनन होता था। दूसरे यह कि अधिकाँश पालतू पशु-पक्षी घर में आने लायक शुद्ध भी नहीं माने जाते थे। इस नियम के कुछ अपवाद भी थे। हमारी एक मौसी के घर में एक सुंदर, बड़ा सा तोता था जो सभी आने-जाने वालों को जय राम जी की कहता था। कुछ रिश्तेदारों के घर में कुत्ते भी पले थे। बाद में कुछ बड़ा होने पर मैंने जाना कि तोता और कुत्ता दोनों ही प्रकृति से अहिंसक माने जाते थे और यह दोनों ही पूर्ण शाकाहारी भोजन पर बहुत अच्छी तरह पल जाते थे। मुझे याद है कि मौसी के तोते को मेरे हाथ से अमरुद और हरी मिर्च खाना बहुत पसंद था। मगर मेरे मुसलमान पड़ोसियों के पास गज़ब के पालतू जानवर थे। रंग बिरंगे बज्रीगर से लेकर बड़े-बड़े कछुए तक, जो भी जानवर आप सोच सकते हैं वे सभी उनके पास थे। और अक्सर मैं बड़ों की निगाह बचाकर उन जानवरों के साथ खेल भी लेता था।

जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय जब भी उनके सामने कोई नया या कठिन शब्द आ जाता तो वे मुझसे ही सहायता मांगते थे।
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