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Monday, January 19, 2009

जूता जैदी का इराक प्रेम - हीरो से जीरो

जान खतरे में डाले बिना हीरो बनने के नुस्खे के जादूगर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूते फेंकने वाले इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी जूताकार की तारीफ़ में काफी सतही पत्रकारिता पहले ही हो चुकी है। सद्दाम हुसैन और अरब जगत के अन्य तानाशाहों के ख़िलाफ़ कभी चूँ भी न कर सकने वाले इस पत्रकार को इस्लामी राष्ट्रों के सतही पत्रकारों ने रातों-रात जीरो से हीरो बना दिया। तानाशाहों के अत्याचारों से कमज़ोर पड़े दबे कुचले लोगों ने इस आदमी में अपना हीरो ढूंढा। क्या हुआ जो जूता किसी तानाशाह पर न चल सका, आख़िर चला तो सही।

मगर अब जब इस जूताकार पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की अगली चाल का खुलासा हुआ है तो उसके अब तक के कई मुरीदों को बगलें झाँकने पड़ रही हैं। स्विट्ज़रलैंड के समाचार पत्र ट्रिब्यून डि जिनेवा ने मुंतज़र अल ज़ैदी के वकील माउरो पोगाया के हवाले से बताया कि ज़ैदी बग़दाद में नहीं रहना चाहता है उसे इराक ही नहीं, दुनिया के किसी दूसरे इस्लामी राष्ट्र पर भी इतना भरोसा नहीं है कि वह वहाँ रह सके। इन इस्लामी देशों में उसे अपनी सुरक्षा को लेकर इतना अविश्वास है कि अब उसने स्विट्जरलैंड में शरण माँगी है।

उसके स्विस वकील पोगाया ने बताया कि ज़ैदी के रिश्तेदार उनसे मिले थे और वे उसकी तरफ़ से स्विट्ज़रलैंड में राजनीतिक शरण मांग रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जैदी के अनुसार इराक में उसकी ज़िंदगी नरक के समान है और वह स्विट्जरलैंड में एक पत्रकार का काम इराक से अधिक बेहतर कर सकेगा। जैदी की इस दरख्वास्त से यह साफ़ हो गया है कि कल तक इस्लामी जगत का झंडा फहराने का नाटक करने वाले की असलियत के पीछे इराक या सद्दाम का प्रेम नहीं बल्कि आसानी से यूरोप में राजनैतिक शरण लेने का सपना छिपा हुआ था। यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि जैदी पहले ही इराकी प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में जूता फेंकने की अपनी हरकत को शर्मनाक कहकर उनसे क्षमादान की अपील कर चुका है।

Thursday, December 18, 2008

जूताकार की तारीफ़ में...

वैसे जूताकार जैसा कोई शब्द पहले से है या नहीं, मुझे नहीं पता। जिस तरह श्रम करने वाले कामगार होते हैं, (समाचार) पत्र में लिखने वाले पत्रकार होते हैं उसी तरह एक सम्माननीय अतिथि पर जूता फेंककर मारने वाले को जूताकार कहा जा सकता है। आजकल एक वीर-शिरोमणि जूताकार की चर्चा हर तरफ़ धड़ल्ले से हो रही है। आश्चर्य नहीं है कि उसकी तारीफ़ में कसीदे पश्चिमी सरहद के पार ज़्यादा पढ़े जा रहे है। मगर सरहद के इस तरफ़ भी तारीफ़ में कोई कमी नहीं है। तारीफ़ शायद और भी ज़्यादा होती अगर यह जूताकार महोदय जूते की जगह बम आदि फैंकने का साहस जुटा पाते। मगर साहस की कमी सिर्फ़ इराक में ही नहीं बल्कि समस्त अरब जगत में है। सच कहूं तो वहाँ डर और कमजोरी भी उतने ही इफरात में हैं जितना कि बंजर भूमि और तानाशाही। वरना ओसामा-बिन-लादेन के अरब और पाकिस्तानी जल्लादों को सउदी अरब के सुल्तानों का विरोध प्रकट करने के लिए अमेरिका की खुली हवा में रहकर, वहाँ का नमक खाकर वहीं के हजारों निर्दोष नागरिकों की हत्या करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे लोग अपनी दुश्मनी अपनी ज़मीन पर ही निबटा सकते थे।

सच यह है कि भारत से लेकर इस्राइल तक के दो प्रजातंत्रों के बीच के भूभाग में पनप रहे अरब-ईरान-तालेबान-पाकिस्तान जैसे जनतंत्र विरोधी (और जनविरोधी) क्षेत्रों, समुदायों की जनता में अपने हत्यारे और बलात्कारी तानाशाहों का मुकाबला करने का बिल्कुल भी दम नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपने आप में अनोखे दो जनतंत्रों से घिरा इतना बड़ा क्षेत्र किस्म-किस्म के जल्लादों द्वारा शासित नहीं होता। राजे-सुलतान-जनरल-तालेबान-आतंकवादी-मुल्ले जिसके हाथ में भी बन्दूक हो और मन में मानव जीवन के प्रति घृणा - वह यहाँ आराम से शासन कर सकता है।

उस इलाके में जूताकारों का जूता भी तब ही चल पाता है जब बुश महाशय की कृपा से लाखों निरीह मुसलमानों को गैस-चेंबर और गोलियों का निशाना बनाने वाला पिशाच सद्दाम हुसेन दोजख-नशीं हो चुका है। मेरे मन में सिर्फ़ एक ही सवाल उठता है कि कहाँ थे यह जूताकार महोदय जब सद्दाम ने उनके जैसे ५०० पत्रकारों को क़त्ल किया था? बेहतर होगा कि अपने को पत्रकार कहने वाले मौके का फायदा उठाकर नेता बनने की लालसा में जूतामार शहीद बनने के बजाय वीरगति को प्राप्त होकर (जान देकर) शहीद बनना सीखें और भारत, इस्रायल और अमेरिका जैसे लोकतंत्रों से सबक लेकर अपनी जनता को आज़ादी, इज्ज़त और दूसरे मूलभूत अधिकार देने की दिशा में काम करें। कम से कम इस सस्ती और घटिया जूतामार प्रसिद्धि के लालच से तो बचें।

जो भी हो इतना तय है की यह जूताकार महोदय कुछेक साल पहले के तानाशाह सद्दाम मामू को जूता दिखाने की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे गलती से अगर सद्दाम मामू के बुत (अरब देशों में तानाशाहों के बुत और बुत-परस्ती के बारे में विस्तार से फ़िर कभी) को भी जूता दिखा देते तो शायद वह ज़िंदा ही जंगली कुत्तों की खुराक बना दिए जाते।

दुखद है कि "संतोष: परमो धर्मः" के देश भारत में भी आजकल जूताकारी की असंतोषधर्मी प्रवृत्ति को बढावा दिया जा रहा है। जनता को इस दिशा में उकसाने वाले नेताओं को यह ध्यान रखना चाहिये कि पाकिस्तान के नाम पर अपना सब कुछ बर्बाद कर देने वालों की अगली पीढियों को कर्मों का फल बांगलादेश या बलूचिस्तान के नाम पर मिलता है। जो जूताकारों को चुनावी टिकट बांटेंगे, उनके खुद के ऊपर भी जूते पडने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।