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Sunday, July 6, 2014

ऋषियों का अमृत - उच्चारण ऋ का

स्वर स्वतंत्र हैं
ॐ अ आ इ ई उ ऊ ॠ ऌ ॡ ऎ ए ऐ ऒ ऑ ओ औ अं अः

लिपियाँ और कमियाँ लिखने के बाद इतनी जल्दी इस विषय पर और लिखना होगा यह सोचा नहीं था। भगवान भला करें आचार्य गिरिजेश राव और जिज्ञासु शिल्पा मेहता का, कि उच्चारण का एक संदर्भ आया और एक इस आलेख को मौका मिला। भारत की क्षमता, संभावना, इतिहास को मद्देनजर रखते हुए जब सद्य-भूत, वर्तमान और निकट भविष्य को देखते हैं तो यह आश्चर्यजनक लगता है कि संसार को अंकशास्त्र, योग, अहिंसा, संस्कृति, नागरी और संस्कृत देने वाले लोग आधुनिक भारतीयों के ही पूर्वज थे। भाषा और लिपि की बाबत मानवता काफी अनम्य रही है लेकिन भारत इस मामले में भी एक महासागर है। तो भी आज अपने ही शब्दों के उच्चारण के बारे में हम हद दर्जे के आलसी नज़र आते हैं। औरों की क्या कहूँ, मुझे खुद भी वर्ष की जगह बरस कहना सरल लगता है। एक पुरानी कविता में मैंने सरबस शब्द का प्रयोग किया था, जब एक प्रसिद्ध संपादिका जी ने कुछ पूछे-गछे बिना उसे सर्वस्व कर दिया तो मुझे ऐसा लगा जैसे उन्होने उस कविता का नहीं, बल्कि मेरा गला मरोड़ दिया था। भले ही उनकी विद्वता के हिसाब से उनका कृत्य सही रहा हो।

व्यंजन ज्ञ के उच्चारण का झमेला तो देश-व्यापी है लेकिन एक स्वर भी ऐसा है जिस पर आम सहमति बनती नहीं दिखती। इन्टरनेट पर उसे समझाने के कई उदाहरण उपस्थित हैं जिनमें से अधिकांश गलत ही लगते हैं। यह स्वर है , और सबसे अधिक गलत उच्चारण रि और रु के बीच झूलते दिखते हैं कृष्ण जी कहीं क्रिश्न जैसे लगते हैं और कहीं क्रुश्न हो जाते हैं। लगभग यही गति अमृत की भी होती है। संयोग से इस क्रम की पिछली पोस्ट "लिपियाँ और कमियाँ" मेँ “र्“ व्यञ्जन के असामान्य व्यवहार की बात चलाने पर र्यूरी/ॠयूरी और र्याल्/र्‍याल् जैसे शब्दों का का ज़िक्र आया था। आज उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।

स्वर की बात करने से पहले एक नज़र स्वर और व्यंजन के मूलभूत अंतर पर डालते चलें। सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति के अनुसार स्वर वे हैं जिन्हें मुखर पथ (vocal tract) से निर्बाध रूप से निरंतरता के साथ बोला जा सकता है। स्वर में एक नैसर्गिक गेयता है, शायद इसीलिए संगीत स्वरों से बनता है। एक स्वर से दूसरे में संक्रमण स्वाभाविक है। व्यंजनों के साथ ऐसा संभव नहीं है क्योंकि वे बलाघात से बोले जाते हैं और इसलिए वहाँ एक स्थिरता है जो एक व्यंजन की ध्वनि को दूसरे से अलग करती है। सरल शब्दों में कहें तो स्वरों के लिए केवल वायु प्रवाह चाहिए। स्वर को एक बार बोलने के बाद उसे वायु प्रवाह के साथ न केवल जारी रखा जा सकता है बल्कि वायु प्रवाह की दिशा या मात्रा बदलने भर से ही एक स्वर से दूसरे स्वर में निर्बाध गमन संभव है। जबकि व्यंजन का आरंभ और अंत मर्यादित है इसलिए एक व्यंजन से दूसरे में गमन भी लगभग वैसे ही है जैसे किसी दरवाजे से होकर एक कक्ष से दूसरे में प्रस्थान करना। यह बात और है कि अनेक ध्वनियाँ स्वर और व्यंजन की संधि पर खड़ी हैं।

ध्वनियों को पढ़कर समझना आसान नहीं है लेकिन ऋ के उच्चारण को जैसा मैंने समझा है वैसा, लिखकर बताने का प्रयास करता हूँ। प्रयास कितना सफल होता है, यह तो आप ही तय कर पाएंगे।
  1. सबसे पहले दो तीन बार स्पष्ट रूप से "र" बोलिए और देखिये किस प्रकार जीभ ने ऊपरी दाँत के ऊपरी भाग को छुआ।
  2. मुँह से हवा निकालते हुए स्वर "उ" की ध्वनि लगातार निकालें और जीभ की इस स्थिति को ध्यान में रखें।
  3. "उ" कहते कहते ही जीभ के सिरे को हल्का सा ऊपर करके निर्बाध "ऊ" कहने लगें।
  4. "ऊ" कहते-कहते ही जीभ के सिरे को हल्के से ऊपर तालू की ओर तब तक ले जाते जाएँ जब तक बाहर आती हवा जीभ से टकराकर प्रतिरोध की ध्वनि उत्पन्न न करे।
  5. जीभ को थोड़ा समायोजित करके वहाँ रखें जहाँ यह निरंतर ध्वनि RRRRRRR जैसी हो जाये
  6. यदि आप अब तक इस "ऋ" ध्वनि को सुनकर "र" से उसके भेद को पहचान गए तो काफी है, वरना अगले कदम पर चलते हैं।
  7. र की ध्वनि पर बिना अटके, झटके से हृषिकेश या हृतिक बोलिए, और उसे सुनते समय आरंभिक "ह" को इगनोर कर आगे की ध्वनि सुनिये तब भी शायद ऋ की ध्वनि स्पष्ट हो जाये
  8. अगर आप अभी भी अटके हैं तो यकीन मानिए यह ध्वनि आप अङ्ग्रेज़ी द्वारा बेहतर समझ पाएंगे। इंगलिश बोलने वाले लोग अपने शब्दों के बीच में आए "र" को अक्सर अर्ध-मूक सा बोलते हैं जिसे बोलते समय जीभ दाँत, तालू आदि की ओर आए बिना हवा में स्वतंत्र ही रह जाती है। कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।
  9. कुछ लोग अङ्ग्रेज़ी शब्द party को पा.र.टी कहकर र को स्पष्ट कहते हैं जबकि कुछ लोग उसे "पा अ टी" जैसे बोलते हैं। इसी प्रकार अङ्ग्रेज़ी शब्द morning को कई भारतीय "र" के साथ मॉ.र.निंग जैसे कहते हैं जबकि कुछ लोग ऐसे कहते हैं कि वह कुछ कुछ मॉण्णिंग या मॉर्णिंग जैसा लगता है। दोनों ही शब्दों को बाद वाली ध्वनि में बोलते हुए सुनिए और उपरोक्त पांचवें बिन्दु की निरंतर RRRRRRR ध्वनि से साम्य देखने - लाने का प्रयास कीजिये।
  10. अब उन शब्दों का उच्चारण करें जिनमें ऋ बीच में आती है, या संधि होकर अर्ध र जैसी बनती है, यथा - अमृत, मृत, महर्षि और राजर्षि आदि - ध्यान रहे कि ऋ की ध्वनि सुनने में "र" और "अ" के बीच की होगी और उस समय जीभ हवा में स्वतंत्र होगी।
  11. यदि किसी को आकाशवाणी समाचार पर श्री बरुन हलदर द्वारा पढ़ा जाता "द न्यूज व्येड/उएड बाय बोरेन हाल्डा" जैसा कुछ याद हो तो मुझे लगता है कि उनके कहे "रैड बाय" की ध्वनि में र नहीं "ऋ" जैसा ही कुछ होता था। क्या कोई उनकी किसी ऑडियो क्लिप को ढूंढ सकता है?
  12. नीचे दिये वीडियो क्लिप में अङ्ग्रेज़ी शब्द read के ऐसे दो उच्चारण सुनाई दे रहे हैं, जिन्हें हम हिन्दी में रीड और रैड जैसे लिखते हैं। पहचानने का प्रयास कीजिये कि "र" की ध्वनि हमारे "र" वाले किसी शब्द, जैसे "राम" या "रीमा" आदि से कितनी अलग है। नोटिस कीजिये कि R की ध्वनि कहने में जीभ हवा में है, "र" जैसे प्रहारावस्था में नहीं। यह उच्चारण निरंतरता के मामले में र की अपेक्षा ऋ के निकट है



यदि अभी भी अस्पष्टता है लेकिन अधैर्य नहीं, तो फिर खास आपके लिए है हिन्दी की यह ऑडियो क्लिप। सुनिए (विशेषकर जब RRRRRRRRRR बोला जा रहा है) और अपना फीडबैक दीजिये:

ऋ - डाउनलोड ऑडियो क्लिप

नोट: अपनी ही ऑडियो क्लिप स्वयं सुनने के बाद मुझे अब इस बात पर संशय है कि ऐसी ध्वनियों को केवल ऑडियो के माध्यम से समझाया जा सकता है। फोन पर अक्सर "स" और "फ" की ध्वनियाँ एक सी ही सुनाई देती हैं। इसलिए यदि अभी भी बात स्पष्ट न हो पाई हो तो कमी आपके समझने की नहीं, शायद मेरे समझाने की ही है जो कि व्यक्तिगत कक्षा में आसानी से दूर की जा सकती है।
* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
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उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Saturday, June 28, 2014

लिपियाँ और कमियाँ



स्वर
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ ऎ ए ऐ ऒ ऑ ओ औ अं अः

व्यञ्जन
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल ळ व श ष स ह
क्ष त्र ज्ञ श्र क़ ख़ ग़ ज़ ड़ ढ़ फ़

मात्रायें व चिह्न
फिर कभी

सम्प्रेषण का एक माध्यम ही तो है लिपि। ध्वनियों को, संवाद, विचार, कथ्य, तथ्य, समाचार और साहित्य को रिकार्ड करने का एक प्रयास ताकि वह सुरक्षित रहे, देश-काल की सीमाओं से परे संप्रेषित हो सके। समय के साथ लिपियाँ बनती बिगड़ती रही हैं। कुछ प्रसारित हूईं, कुछ काल के गर्त में समा गईं। जहां सिन्धी, पंजाबी, कश्मीरी, जापानी, हिन्दी, संस्कृत आदि अनेक भाषायेँ एकाधिक लिपियों में लिखी जाती रही हैं, वहीं रोमन, देवनागरी आदि लिपियाँ अनेक भाषाओं के साथ जूड़ी हैं। रोचक है लिपि-भाषा का यह अनेकानेक संबंध। अचूक हो या त्रुटिपूर्ण, पिरामिडों के अंकन निर्कूट तो कर लिए गए हैं लेकिन सिंधु-सरस्वती सभ्यता की लिपि आज भी एक चुनौती बनी हुई है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका ने जर्मनों द्वारा पकड़े जा रहे सैन्य संदेशों को सुरक्षित रखने के लिए मूल अमेरिकी (नेटिव इंडियन) समुदाय की एक लगभग अप्रचलित भाषा चोकटा (Choctaw) का सफल प्रयोग किया जिसके लिए उस समय किसी लिपि का प्रयोग ज्ञात नहीं था। जर्मन उन संदेशों को भेद नहीं सके और इस प्रकार वह संदेश प्रणाली एक अकाट्य शस्त्र साबित हुई।  

फेसबुक और कुछ काव्य मंचों पर हिन्दी शब्द लेखन की बारीकियों पर चल रही बहसों के मद्देनजर अपनी जानकारी में रहे कुछ तथ्य सामने रख रहा हूँ। स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉग की अन्य पोस्टों की तरह इस आलेख के पीछे भी केवल परंपरा से आई जानकारी मात्र है, हिन्दी का आधिकारिक अध्ययन नहीं, क्योंकि हिन्दी ब्लॉगिंग में उपस्थित हिन्दी शोधार्थियों के बीच अपनी हिन्दी केवल इंटरमीडिएट पास है। यह भी संयोग है कि इस ब्लॉग की छः साल पहले लिखी पहली पोस्ट संयुक्ताक्षर 'ज्ञ' पर थी।

सच यह है कि कमी किसी भी लिपि में हो सकती है। हाँ इतना ज़रूर है कि वाक और लिपि के अंतर की बात चलने पर देवनागरी में अन्य लिपियों की अनेक मौजूदा कमियाँ बहुत पहले ही दूर की जा चुकी हैं। sh जैसी ध्वनि के लिए भी श और ष जैसे अलग अक्षर रखना मामूली ध्वनिभेद को भी चिह्नित करने के प्रयास का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ल तथा ळ का अंतर महान राष्ट्रीय नायक लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक के कुलनाम को ही बदल देता है जबकि मराठी और हिन्दी की लिपि एक होने के कारण हम हिंदीभाषियों द्वारा उद्दंडता से यह गलती करते रहने का कोई कारण नहीं बनता। ध्वनि के कई अंतर उन अप्रचलित अक्षरों में निहित हैं जिनका ज्ञान किसी सरकारी या तथाकथित प्रगतिशील कारणवश हिन्दी कक्षाओं से क्षरता जा रहा है।

अगर हम किसी शब्द को गलत बोलते रहे हैं तो यह गलती हमारे बोलने की हुई लिपि की नहीं। लिपि की कमी तब होगी जब वह लिपि किसी भाषा में प्रयुक्त किसी ध्वनि/शब्द को यथावस्तु लिख न सके। एक जगह अमृतम् गमय को जोड़कर किसी ने अमृतंगमय लिख दिया था। पढ़ने वाले ने उसको अमृ + तङ्ग + मय करके पढ़ा तो यह लिपि की गलती नहीं, बल्कि लिखने और पढ़ने वाले का भाषा अज्ञान है। इसी प्रकार यदि "स्त्री" शब्द को इस्त्री या स्तर को अस्तर कहा जाये तो यह वाक-कौशल की कमी का हुई न कि लिपि की। कालिदास की कथा में वे उष्ट्र को उट्र कहते पाये गए थे। यदि उस समय लिपि होती या नहीं होती, उनके उच्चारण का दोष उनके उच्चारण का ही रहता, लिखने और पढे जाने के अंतर का नहीं। महाराष्ट्र के गाँव शिर्वळ को हर सरकारी, गैर-सरकारी बोर्ड पर शिरवल लिखा जाता था जो किसी भी अंजान व्यक्ति को पढ़ने में शिखल लगता था। पहले छापेखाने के सीमित अक्षरों और लेखकों, संपादकों व प्रकाशकों की लापरवाही से कई पुस्तकों, अखबारों में स्र को अक्सर स्त्र लिखा जाता देखा था। लिखे हुए को ब्रह्मवाक्य समझने वालों ने पढ़कर ही पहली बार जाने कई शब्दों, जैसे "सहस्र" आदि के उच्चारण इस कारण ही गलत समझे। आजकल कितनी कमियाँ हमारे कम्प्यूटरों/फोन आदि की आगम-लेखन-सुझाव क्षमताओं के कारण भी होते हैं क्योंकि इन क्षमताओं का अनुकूलन भारतीय लिपियों के लिए उतना भी नहीं हुआ है जितना सामान्य लेखन के लिए ज़रूरी है।

दिल्ली में हर सरकारी साइन पर ड को ड़ लिखने की कुप्रथा थी, जिसमें हर रोड, रोड़ हो जाती थी। हद तो तब हो गई जब मंडी हाउस को भी पथ-चिह्नों में मंड़ी हाउस लिखा पाया। स्कूल को उत्तर प्रदेश में कितने लोग इस्कूल कहते हैं और पंजाब में अस्कूल भी कहते हैं। कई हिन्दी भाषी तो टीवी पर स्पष्ट को भी अस्पष्ट कहकर अर्थ का अनर्थ कर रहे होते हैं। उर्दू सहित अनेक बोलियों के आलस और फारसी, रोमन जैसी लिपियों की कमियों के कारण भी कितने ही संस्कृत शब्द समयान्तराल में अपना मूल रूप खो बैठे हैं। फेसबुक पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के बारे में लिखे गए कुछ स्टेटस पढ़कर तो यही लगता है कि हिन्दी के मानकीकरण और शिक्षण पर और ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है, ताकि वाचन की क्षेत्रीय या व्यक्तिगत कमियों को लिपि की कमी न समझा जाये।

जब “र्“ व्यञ्जन की अपने बाद आने वाले किसी अन्य अक्षर से संधि होती है तो यह अगले अक्षर के ऊपर “र्क“, "र्ख" और “र्ट“ जैसे दिखाता है और संधि में जब र बाद में हो तो पिछले अक्षर के नीचे “क्र”, "ख्र" और “ट्र” जैसा दिखाता है। देवनागरी अपनाने वाली भाषाओं में "र्" से आरंभ होने वाले शब्द सीमित ही होंगे। कम से कम इस समय मुझे ऐसा कोई शब्द याद नहीं आ रहा है। लेकिन विदेशी भाषाओं में ऐसे शब्द सर्व सुलभ हैं जिन्हें लिखते और पढ़ते समय "र्" की संधि लिखने के पहले नियम के कारण अजीब सा लगता है। जैसे पक्वान्न के लिए प्रयुक्त होने वाला एक जापानी शब्द, जिसे रोमन में ryooree या ryuri जैसा लिखा जा सकता है, उसे नागरी में र्यूरी लिखते समय ध्यान न देने पर उच्चारण की गलती हो सकती है, यद्यपि यह लिपि की नहीं, बल्कि भाषा, लिपि और व्यक्ति के बीच की घनिष्ठता की कमी हुई। यह भी संभावना है कि इस शब्द का बेहतर लेखन र्यूरी न होकर ॠयूरी जैसा कुछ हो। एक ऑनलाइन नेपाली चर्चा में मैंने र्याल् (ryal) की ध्वनि को र्‍याल् लिखने का सुझाव देखा है। कंप्यूटर पर र्‍याल् कैसे लिखा कैसे जाएगा, यह नहीं पता चला। कोई संस्कृत विद्वान शायद अधिकार से स्पष्ट कर सकें। लेकिन हम सामान्य लोगों के लिए भी सत्यान्वेषण का पहला कदम तो अज्ञान के निराकरण का ही होना चाहिए।

कुछ अन्य उच्चारण भी हैं जिन्हें ठीक न लिखे जाने पर संदेह की स्थिति उत्पन्न होती है। जैसे अकलतरा लिखने पर वह अक-लतरा भी पढ़ा जा सकता है और अकल-तरा भी। यद्यपि रोमन में तो वही शब्द अकलतरा (akaltara) लिखने पर तो नागरी से कहीं अधिक ही संभावित उच्चारण बन जाते हैं। जहां अङ्ग्रेज़ी की गलतियों पर हम अति भावुक हो जाते हैं वहीं भारतीय भाषा-लिपि में होने वाली गलतियों की उपेक्षा ही नहीं कई बार उन्हें इस खामोख्याली में उत्साहित भी करते हैं, मानो हिन्दी का अज्ञान स्वतः ही अङ्ग्रेज़ी का सुपर-ज्ञान मान लिया जाएगा। अच्छा यही होगा कि लिखते समय उच्चारण का ध्यान रखा जाये और चन्द्रबिन्दु आदि चिह्नों का समुचित प्रयोग हो। लिपि-पाठ में दुविधा की स्थिति के लिए मेरा सुझाव तो यही है कि संदेह की स्थिति में कोई भी निर्णय लेते समय यह ध्यान रहे कि गलतियाँ बोलने,लिखने और पढ़ने, तीनों में ही संभव हैं। क्षेत्रीय उच्चारण की भिन्नताएँ भी स्वाभाविक ही हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वाक लेखन से पहले जन्मा है और बाद तक रहेगा। भाषा मूल है लिपि उसकी सहायक है।

काफी कुछ लिखना है इस विषय पर। ध्यान रहने और समय मिलने का संगम होते ही कुछ और ...
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Thursday, June 19, 2008

अ से ज्ञ तक - From A to Z

क्या आप बता सकते हैं कि मराठी के द्नयानेश्वर, पंजाबी के ग्यानी जी, उर्दू के अन्जान, गुजराती के कृतग्नता और संस्कृत के ज्ञानपीठ में क्या समानता है? बोलने में न हो परन्तु लिखने में यह समानता है कि इन सभी शब्दों में संयुक्ताक्षर ज्ञ प्रयोग होता है।

भारतीय लिपियों में संभवतः सर्वाधिक विवादस्पद ध्वनि "ज्ञ" की ही है। काशी तथा दक्षिण भारत में इसकी ध्वनि [ज + न] की संधि जैसी होती है. हिन्दी, पंजाबी में यह [ग् + य] हो जाता है। गुजराती में यह [ग् + न] है और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में [द् + य + न] बन जाता है। खुशकिस्मती से नेपाली भाषा ने इसके मूल स्वरुप को काफी हद तक बचा कर रखा है. संस्कृत में यह [ज्+ न्+अ] है, हालांकि कई बार विभिन्न अंचलों के लोग संस्कृत पढ़ते हुए भी मूल ध्वनि को विस्मृत कर अपनी आंचलिक ध्वनि का ही उच्चारण करते हैं।

ज्ञ युक्त शब्दों की व्युत्पत्ति भी देखें तो भी यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इसकी प्रथम ध्वनि ज की है न कि द या ग की। उदाहरण के लिए ज्ञान का मूल ज (knowledge) है। इसी प्रकार यज्ञ का मूल यज धातु है।

यदि 'ज्ञान' शब्द का शुद्ध उच्चारण ढूँढा जाय तो यह कुछ कुछ 'ज्नान' जैसा सुनाई देगा। संज्ञा को 'संज्+ ना' पढ़ा  जायेगा, प्रज्ञा 'प्रज्ना' हो जायेगा और विज्ञान 'विज्नान' कहलायेगा। यदि आपने यहाँ तक पढ़ते ही उर्दू के "अन्जान" और संस्कृत के "अज्ञान" (उच्चारण: 'अज्नान') में समानता देख ली है तो कृपया अपने कमेन्ट में इसका उल्लेख अवश्य करें और मेरा नमस्कार भी स्वीकार करें। हिन्दी का ज्ञान सम्बन्धी शब्द समूह यथा जान, अन्जान, जानना आदि भी ज्ञान से ही निकला है। वैसे, मेरा विश्वास है कि अतीत की अंधेरी ऐतिहासिक गलियों में नोलेज (kn-क्न), नो (know), डायग्नोसिस (diagnosis), प्रॉग्नोसिस (prognosis), व नोम (gnome) आदि का सम्बन्ध भी इस ज्ञान से मिल सकता है।

मुझे पता है कि आपमें से बहुत से लोगों को मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा होगा। बचपन से पकड़ी हुई धारणाओं से बाहर आना आसान नहीं होता है। अगली बार जब भी आप ज्ञ लिखा हुआ देखें तो पायेंगे कि मूलतः यह ज ही है जिसके सिरे पर न भी चिपका हुआ है। बेहतर होगा कि एक बार खुद ही ज्ञ को अपने हाथ से लिखकर देखिये।

आपके सुझावों और विचारों का स्वागत है। यदि मेरी कोई बात ग़लत हो तो एक अज्ञानी मित्र समझकर क्षमा करें मगर गलती के बारे में मुझे बताएँ अवश्य। धन्यवाद!
Devanagari letters for Hindi, Nepali, Marathi, Sanskrit etc.


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