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Tuesday, December 24, 2013

संगीता रिचर्ड बनाम देवयानी खोबरागड़े बनाम भावुक भारतीय

शहीद सूबेदार कुंवर पाल
दिसंबर 2013: मेरठ के सूबेदार कुँवर पाल गुरुवार को भारतीय शांति सैनिकों के शिविर पर हुए हमले में मारे गए। दक्षिणी सूडान से उनके शव को लाने में हो रही देरी पर उनके परिवार और गाँव में बहुत रोष है। उनकी पत्नी के भाई कहते हैं, "कोई नेता होता तो दो घंटे में इंतज़ाम हो जाता. यहाँ सेना के जवान के लिए कोई सुविधा नहीं है?"

दिसंबर 2013: न्यूयॉर्क में अपनी नौकरानी के शोषण और प्रताड़ना तथा अमेरिकी वीसा प्रक्रिया के साथ धोखाधड़ी के आरोप में न्यूयॉर्क में पकड़ी गई देवयानी खोबरागड़े को सस्पेंड करने के बजाय भारत सरकार अमेरिका के खिलाफ हर तरह के विरोध दर्ज़ करने के बाद देवयानी को राजनीतिक प्रतिरक्षा का लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से उसे संयुक्त राष्ट्र के स्थाई प्रतिनिधि के रूप में प्रोन्नत करती है। खबरें देखने पर पता लगता है कि देवयानी खोबरागड़े ने वीसा प्रक्रिया में तो धोखाधड़ी की ही थी, साथ ही नौकरानी द्वारा कानूनी सहायता लेने पर उसके परिवार के खिलाफ भारत में धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज़ कराकर उसके पति को भी गिरफ्तार कराया था। बात यहीं नहीं रुकी, देवयानी ने नौकरानी का पासपोर्ट रद्द कराया और फिर पासपोर्टविहीन होने के कारण उसे अवैध आप्रवासी बताकर अमेरिकी सरकार पर दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास द्वारा उसकी गिरफ्तारी के लिए दवाब डाला। एक ओर एक निम्न-मध्यवर्गीय घरेलू नौकरानी और दूसरी ओर एक शक्तिशाली नौकरशाह परिवार। दवाब बढ़ता गया और अंततः बात यहाँ तक पहुँची कि अमेरिकी सरकार को संगीता के परिवार को दमन से बचाने के लिए अमेरिका लाना पड़ा।

दोनों परिस्थितियों की तुलना करने पर न केवल शहीद सूबेदार के परिजनों के शब्द सही साबित होते हैं बल्कि हमारे महान राष्ट्र के आदर्श वाक्य "सत्यमेव जयते" को भी गहरी चोट पहुँचती है और मेरे जैसा सामान्य बुद्धि वाला एक भारतीय यह सोचने को बाध्य होता है कि देश की वर्तमान व्यवस्था किस किस्म के लोगों को लाभ पहुँचाने में लगी है और एक गरीब भारतीय नागरिक के दमन के लिए उसके लिए हमारी मशीनरी कितना दूर तक जा सकती है।

एक ओर निहित स्वार्थ के लिए कानून को नचाने वाले नेता और नौकरशाह हैं और दूसरी ओर वे सैनिक हैं जिनके सिर आतंकवादी काट लेते हैं, जिनके शरीर को पड़ोसी देश की सेना अपमानजनक रूप से क्षत-विक्षत करती है। जिनकी विधवाओं को देने के नाम पर बने "आदर्श" के फ्लैट कुछ भ्रष्ट नेता और नौकरशाह मिलकर बाँट लेते हैं।

एक ओर पूरा भारतीय नौकरशाही तंत्र है और दूसरी ओर एक घरेलू सहायिका संगीता रिचर्ड है जो अपने घर-परिवार से दूर एक समृद्ध राजनयिक के परिवार की सेवा में लगी है और जब अपने पैसे या समय के बारे में कानूनन जायज़ शिकायत करती है तो उसकी मालकिन अपने प्रभाव का प्रयोग करके एक ऐसे इकरारनामे के आधार उसके पति को भारत में चार सौ बीसी के आरोप में गिरफ्तार करवाती है,जो आगे चलकर मालकिन देवयानी के खुद के अपराध का प्रमाण बनता है। देवयानी को इतने पर भी तसल्ली नहीं होती तो अपने रसूख का प्रयोग कर अमेरिकी प्रशासन और दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास पर दवाब डलवाती है कि पासपोर्ट रद्द होने के बावजूद भी अमेरिका में रुकी हुई सहायिका को गिरफ्तार करके सज़ा काटने के लिए भारत क्यों नहीं भेजा जा रहा है। जबकि वह पासपोर्ट तो संगीता की मर्ज़ी और जानकारी के बिना (संभवतः देवयानी की पहल पर) रद्द किया गया था। इस जोश में वह अमेरिकी दूतावास को गलती से यह भी बता बैठती है कि भारत में संगीता और उसके पति के खिलाफ कोर्ट और पुलिस के जोश का आधार देवयानी का तैयार किया गया एक ऐसा दूसरा इकरारनामा (25,000 रुपये मासिक का) है जो उसने संगीता को नौकरी देते समय लिखवाया था और घरेलू नौकरानी का वीसा दाखिल कराते समय, अमेरिकी कानून की प्रतिबद्धता (न्यूयॉर्क में 9.75 डॉलर प्रति घंटा या अधिक) की बात पर हस्ताक्षर करते समय उनके शोषण-विरोधी श्रम क़ानूनों की काट के लिए उन्हीं के विरुद्ध बनाए गए इस इकरारनामे की बात छिपा ली गई थी। वीसा अर्ज़ी में घोषित और अमेरिका में रहते हुए न्यूनतम वेतन या उससे अधिक वेतन देने के वादे वाले इकरारामे से इतर (कम पैसे वाला) कोई भी इकरारनामा अमेरिका में कार्य के नियमों का खुला उल्लंघन है, और 25,000 रुपये मासिक के ऐसे छिपे हुए और समांतर समझौते का उद्देश्य सिर्फ इतना ही हो सकता है कि संगीता को नियम से कम वेतन दिया जाय और यदि कभी वह अपने अधिकारों के बारे में जान जाये और उनकी मांग करे तो उसे भारत में कानूनी कार्यवाही के नाम से धमकाया जा सके। क्या ऐसा इकरारनामा भारतीय संविधान के तहत कानूनी माना जाएगा? मुझे इसमें शक है लेकिन कानूनी विशेषज्ञों की राय जानना चाहूँगा।

देवयानी सरकारी सुविधाओं का पूर्ण लाभ उठा रही थीं। खबरें हैं कि वे अमेरिका के सबसे महंगे इलाकों में से एक मैनहेटन में चार बेडरूम के निवास में रह रही थीं जहां पति और दो बच्चों के परिवार और नौकरानी के साथ एक राजनयिक के रहने योग्य घर का किराया मात्र ही एक भारतीय राजनयिक के तथाकथित "मामूली" वेतन से कहीं अधिक होगा। उनकी न्यूयोर्क पोस्टिंग का एक आधार उसी नगर में जन्मे उनके अमेरिकी पति आकाश सिंह राठोर का निवास भी था। इससे पहले 1999 में जब आकाश सिंह राठोर बर्लिन में थे तब देवयानी को बर्लिन पोस्टिंग दिलाने के लिए उनसे दो रैंक ऊपर रहे महावीर सिंघवी की उपस्थिति को नकार कर नियमों में बदलाव किया गया था, यह बात महावीर सिंघवी द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध दायर मुकदमे का निर्णय सिंघवी के पक्ष में करते समय भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी मानी थी। सिंघवी को नौकरी से सस्पेंड किया गया था। खबर है कि उन्हें बहाल कराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया। आप समझ ही गए होंगे कि यह खबर कहीं नहीं है कि जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होगी या नहीं।

शहीदों की विधवाओं के पुनर्वास के नाम पर मुंबई में हुए आदर्श सोसाइटी फ्लैट घोटाले की जांच करने वाले न्यायिक जांच आयोग ने देवयानी खोबरागड़े को उन 25 आवंटियों की सूची में रखा है जिन्होने आवंटन के अयोग्य होते हुए भी सोसाइटी में फ्लैट प्राप्त किया था। हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जे ए पाटिल की अगुवाई वाले दो सदस्यीय आयोग की रपट में देवयानी के सेवानिवृत्त आईएएस पिता और बेस्ट (BEST) के तत्कालीन महाप्रबंधक उत्तम खोबरागड़े पर आरोप है कि उन्होंने आदर्श सोसाइटी का फ्लोर एरिया बढ़ाने के लिए बेस्ट का नजदीकी प्लॉट हस्तांतरित कर दिया था। इस काण्ड में भी जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होने की खबर नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र विधानसभा ने तो रिपोर्ट में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों विलाराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और अशोक चव्हाण का नाम होने के कारण रिपोर्ट को ही अमान्य कर दिया है। अमेरिका में काम कर रही नौकरानी को अमेरिका में निर्धारित न्यूनतम वेतन देने की बात पर राजनयिकों के कम वेतन का रोना रोने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि देवयानी द्वारा इस फ्लैट के लिए दिये गए एक करोड़ दस लाख रुपये के लिए किसी बैंक लोन का कोई रिकार्ड जांच समिति को नहीं मिला है।

देवयानी से संबन्धित पिछली तीन घटनाएँ तो सत्तासीन हठधर्मी के बाइप्रोडक्ट के रूप में प्रकाश में आ गईं। लेकिन हमारे आसपास हर रोज़ न जाने ऐसी कितनी घटनाएँ हो रही हैं जहाँ भ्रष्ट नेता-नौकरशाह-अपराधी गठबंधन आम भारतीय नागरिकों के अधिकारों का हनन करता रहता है और उन्हीं को नेतृत्व प्रदान करने का ढोंग भी रचता है। दुख की बात यह है कि इस मामले के सामने आने तक देवयानी ने महिला अधिकारों की रक्षक की छवि बनाकर रखी थी। भारत में रहते हुए अपने सम्बन्धों, बाहुबल और सत्ता के मद में चूर लोग कई बार यह बात भूल जाते हैं कि (भारत के बाहर) अधिकांश विकसित देशों के विकास के मूल में एक सुदृढ़ कानूनी व्यवस्था है। वे देश तरक्की इसलिए कर सके क्योंकि वहाँ सामंतों द्वारा अधीनस्थों के खिलाफ कानून-पुलिस-नियम आदि का दुरुपयोग कर पाना आसान नहीं है।

नौकरों के मानवाधिकार का हनन भारत में आम है लेकिन अमेरिका में पहले भी कई भारतीय धनाढ़्यों का नाम इस अपराध में सामने आया है। मई 2007 में न्यूयॉर्क के धनपति व्यापारी महेंद्र मुरलीधर सभनानी और उनकी पत्नी वर्षा सभनानी को अपने लॉन्ग आइलैंड (न्यूयॉर्क) स्थित घर में इंडोनेशियाई मूल की दो महिलाओं को कई सालों से गुलामों की तरह रखने और निरंतर प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था।

सन 2001 में बर्कले कैलिफोर्निया में एक गर्भवती किशोरी की मृत्यु की जांच जब आगे बढ़ी तो भारत में इंजीनियरिंग कॉलेज और धर्मार्थ संस्था चलाने वाले एक परोपकारी भारतीय व्यवसाई का नाम सामने आया जिसने बर्कले से अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर किया था। जांच आगे बढ़ी तो पता लगा कि अमेरिका में नौकरी दिलाने के बहाने भारतीय लड़कियों को अमेरिका लाकर उनके शोषण का बड़ा रैकेट चल रहा था। अंत में वीसा फ्रॉड, करचोरी और मानव तस्करी के आरोप में लकी रेड्डी को 97 महीने कारावास, बीस लाख डॉलर के जुर्माने की सज़ा तो मिली ही, अदालत के आदेश पर उसने पीडिताओं को 89 लाख डॉलर का भुगतान भी किया।

इस साल के आरंभ में न्यूयॉर्क राज्य में ही 30,000 वर्ग फुट के 34 कमरों वाले घर में रहने वाली भारतीय मूल की एनी जॉर्ज को अपनी घरेलू नौकरानी के शोषण के अपराध में सजा हुई थी। इस कांड में नौकरानी भी भारतीय मूल की (केरल से लाई गई) थी। सुबह साढ़े पाँच से रात के 11 बजे तक बिना छुट्टी लगातार काम करने के बाद एक बड़ी अलमारी में ज़मीन पर सोने वाली परिचारिका अङ्ग्रेज़ी नहीं बोल सकती थी।

देवयानी से पहले के कई मामलों में भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका भी रही है। 2011 में न्यूयॉर्क उपदूतावास के ही कॉन्सुलर प्रभु दयाल पर उनकी भारत से लाई गई घरेलू नौकरानी संतोष भारद्वाज ने मिलते जुलते आरोप लगाए थे। खोबरागड़े की तरह प्रभुदयाल ने भी अमेरिका से मांग की थी कि संतोष को पकड़कर भारत भेज दिया जाये। उस मुकदमे में भी भारत सरकार अपने अधिकारी की ओर से लड़ी और गरीब भारतीय नागरिक के जायज़ अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने का काम अमेरिकी सरकार ने किया। बाद में ऐसी खबरें आईं कि प्रभुदयाल ने अदालती व्यवस्था के बाहर समझौता कर लिया था।

2010 में इसी उपदूतावास की प्रेस सचिव डॉ नीना मल्होत्रा भी अपनी घरेलू नौकरानी शांति गुरुङ्ग के साथ इसी स्थिति का सामना कर चुकी हैं जिन पर फरवरी 2012 में अपनी नौकरानी को देने के लिए 15 लाख डॉलर का हर्जाना लगाया गया था। इस केस में नीना और उनके पति ने दिल्ली हाईकोर्ट से शांति को भारत के बाहर कोई कानूनी कार्यवाही न करने देने का आदेश दिलाया था।

हाँ, यह पहली बार हुआ है जब बात इतनी आगे पहुँच गई कि आरोपी को गिरफ्तार करने की नौबत आ गई। यदि खोबरागड़े की पहल पर भारतीय व्यवस्था द्वारा संगीता के परिवार को भारत में प्रताड़ित करने और अमेरिका पर उसकी गिरफ्तारी और वापसी का ऐसा गहरा दवाब नहीं बनाया जाता तो शायद मामला ऐसे टकराव तक नहीं पहुँचता।

दुख की बात है कि जैसे ही ऐसी कोई भी खबर आती है हमारे राष्ट्रीय प्रेम की केतली में ज्वार आ जाता है और हम सही-गलत सब भूलकर अमेरिका को लतियाने बैठ जाते हैं। इतना भी याद नहीं रहता कि दूसरा पक्ष अमेरिका नहीं है, एक अन्य भारतीय नागरिक है जो भारतीय न्याय व्यवस्था में केवल जेल जाने के लिए अभिशप्त है। भारतीय कानून के कागज के सहारे जब शक्तिशाली नेता या राजनयिक एक घरेलू नौकर को "मेरी मानो या जेल जाओ" की धमकी देते हैं तो यह भी उसी राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार का ही एक भयानक चेहरा है जिसे हम नकार नहीं सकते। अपने शोषण का विरोध करने वाली घरेलू नौकरानियों को अमेरिकी वीसा उल्लंघन के लिए भारत में गिरफ्तार करवाने की मांग करने वाले भारतीय राजनयिकों को अपनी कानूनी ज़िम्मेदारी याद रहे तो देश की छवि चकनाचूर होते रहने से बचेगी।
कुछ लोग अपने अपराध का नहीं, अपने प्रति हुई कानूनी कार्यवाही का प्रायश्चित करते हैं
अब बातें उन भावनात्मक सवालों की जिन्हें सोशल मीडिया में भोले-भारतीयों द्वारा बारंबार उठाया जा रहा है। इनमें से अधिकांश का स्रोत देवयानी, उसके परिवारजनों और कुछ नेताओं से जुड़ा है।

1. अमेरिका जिस तरह संगीता को बचा रहा है उसके जासूस होने की संभावना है।
- संगीता को बचाने का प्रयास अमेरिकी मानवाधिकार प्रतिबद्धता के एकदम अनुकूल है। यदि भारत में ऐसी प्रतिबद्धता दिख जाये तो हमारी वंचित और दरिद्र जनता के न जाने कितने सपने साकार हो जाएँ। देवयानी का तो पति ही अमेरिकी नागरिक है, क्या इतने भर से आप देवयानी और उसके पति पर भी जासूस होने का आरोप लगाने का साहस करेंगे? कमजोर को लतियाने और दबंग से डर जाने की आदतें छोड़िए और कभी कभी दिमाग पर ज़ोर डालने की कोशिश भी कीजिये। अमेरिकी कानून में यह प्रयास है कि अवैध आप्रवासियो को भी अपने या परिवार के इलाज या शिक्षा आदि में कोई बाधा न पहुँचे और उनके मानवाधिकारों की रक्षा हो। अपनी शरणागत-वत्सल परंपरा तेज़ी से भूलने वाले देश को आज के अमेरिका से काफी कुछ सीखने की ज़रूरत है

2. देवयानी दलित है, यह केस उच्चजातियों की साजिश है।
- देवयानी का परिवार भारत के बड़े धनिक और राजनीतिक शक्ति-सम्पन्न परिवारों में से एक है। उसे मेडिकल कॉलेज और नौकरी में कानून के तहत आरक्षण भले ही मिला हो लेकिन इस मामले में दलित कार्ड का प्रयोग करना भी वंचितों और दलितों का मखौल उड़ाने जैसा है। इस केस में यदि कोई दलित है तो वह संगीता है।

3. यह अमेरिका की हिन्दू विरोधी साजिश है
- संगीता के नाम में रिचर्ड देखते ही आपको हिन्दू याद आ गए? इससे पहले शांति गुरुङ्ग और संतोष भारद्वाज को बचाने में तो अमेरिका हिन्दू विरोधी नहीं था। वैसे, मीडिया में जितनी सामग्री उपलब्ध है उसके अनुसार देवयानी का परिवार हिन्दू नहीं नव-बौद्ध (माइनस हिन्दू) लगता है। सच यह है कि अमेरिका एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और ऐसे कयास बड़े बचकाने हैं।

4. भारत में अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार किया जाये क्योंकि उनमें से कोई भी अमेरिका के हिसाब से न्यूनतम वेतन नहीं देता होगा।
- कुतर्क का यह एक उत्तम उदाहरण है। हमें तो यह भी नहीं पता कि उनमें से कितनों के घर में नौकर हैं। और फिर आप भारत में भारत के कानून के पक्षधर हैं कि अमेरिका के? यह सच है कि भारत में भी न्यूनतम वेतन आदि के क़ानूनों के निर्माण और अनुपालन की ज़रूरत है और इस दिशा में प्रयास होना चाहिए। अमेरिका में हर कार्यालय में न्यूनतम वेतन के सरकारी निर्देश बुलेटिन बोर्ड पर किसी दर्शनीय स्थल पर लगाए जाने का प्रावधान भी है। हम भी कानून बनाने और उसे लागू करने के बाद इस प्रकार की छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दे सकते हैं।
जिस तेज़ी से न्यूयॉर्क में भारतीय राजनयिक नौकरों के दमन और शोषण के मामलों में फंस रहे हैं भारतीय उप-दूतावास को अपने ही परिसर में उच्च-स्तरीय स्कैन सुविधाओं से लेस एक भारतीय-कामगार-शोषण-जेल-सेल खोलने के मामले पर विचार करना चाहिए ताकि अधिकारियों को शारीरिक जांच से न गुज़रना पड़े।
5. अमेरिकी दूतावास के समलैंगिक कर्मचारियों को भारतीय कानून के तहत गिरफ्तार किया जाये
- पुनः, क्या आपको पता है कि देश भर के सारे समलैंगिक अमेरिकी दूतावास में ही रहते हैं? आज़ादी के छः दशक बाद भी जिस देश की राजधानी तक को विकास छू भी नहीं गया है, वहाँ अमेरिकी समलैंगिकों को पकड़ने को प्राथमिकता बनाना, साफ दिखा रहा है कि हमारे नेता देश की जनता की जरूरतों के बारे में कितने जागरूक हैं।    

6. पासपोर्ट रद्द होने के बाद संगीता रिचर्ड फ्यूजिटिव (भगोड़ी अपराधी) है, उसके अमेरिका रुकने का कोई कानूनी आधार नहीं है, उसे गिरफ्तार करके भारत भेजा जाये
- संगीता को भारत से राजनयिक पासपोर्ट बनवाने के बाद उसके वीसा के कागजों पर झूठ लिखकर अमेरिका लाकर कानून से अधिक काम और कम वेतन देने के बाद उसका पासपोर्ट रद्द कराकर उसे अवैध बनाने वाली जब देवयानी है तो फिर संगीता गिरफ्तार क्यों हो? बल्कि भारतीय कानून उसे किस आधार पर फ्यूजिटिव कह सकता है? और अगर वह फ्यूजिटिव है तो उसे विदेश ले जाकर फ्यूजिटिव बनाने वाले के प्रति भारतीय कानून के तहत क्या कार्यवाही की जा रही है? संगीता कानूनी तरीके से वैध वीसा और पासपोर्ट पर अमेरिका आई है और यहाँ रहते हुए किसी गैरकानूनी गतिविधि में लिप्त नहीं है। उसके खिलाफ कोई पुराना आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। पासपोर्ट न होना कोई अपराध नहीं है। वह इस कांड की मूल पीड़िता है, उसके खिलाफ कोई भी कानूनी आधार नहीं बनता, न यहाँ, न भारत में।

7. भारतीय राजनयिकों का वेतन इतना कम है कि वे अमेरिका के न्यूनतम वेतन के नियमों का पालन नहीं कर सकते
- इससे लचर तर्क कोई हो सकता है क्या? आप सिविल सरवेंट हैं, भारत से नौकरानी लाना आपकी कानूनी बाध्यता नहीं है। पैर उतने ही पसारिए जितनी चादर है। वैसे वेतन कम होने की बात पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि अधिकारियों को मूल वेतन के अलावा अनेक मोटे भत्ते भी मिलते हैं। शशि थरूर ने तो एक टीवी कार्यक्रम में यह भी कहा है कि राजनयिकों को नौकरानी के वेतन का भी आंशिक भुगतान मिलता है। वैसे, भारत में करोड़ों की संपत्ति की स्वामिनी, मैनहेटन में रहने वाली देवयानी के केस में तो वेतन कोई मायने ही नहीं रखता। फिर भी अगर सरकार को इस मुद्दे पर अपने अधिकारियों से इतनी ही सहानुभूति है और वह नौकरानी रखने की परंपरा का पोषण करना चाहती है तो अमेरिका स्थित राजनयिकों के घरेलू सहायकों के लिए कानून-सम्मत वेतन और सभी ज़रूरी सुख-सुविधाओं की पक्की व्यवस्था करे और उल्लंघन करने वाले राजनयिकों को कड़ी सज़ा का प्रावधान करे।

8. देवयानी को बेटी के सामने हथकड़ी लगाई गई
- जहां इतने झूठ वहाँ एक और सही। भारत से इतर अमेरिका के कानून में पकड़े जाने पर हथकड़ी लगाना सामान्य कानूनी प्रक्रिया है। फिर भी देवयानी के केस में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है। न उसे बेटी के सामने पकड़ा गया और न ही हथकड़ी लगाई गई।

9. देवयानी को नशेड़ियों, यौनकर्मियों और अपराधियों के साथ रखा गया
- यह बचकाना आरोप पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कि देवयानी का साथ देने के लिए अमेरिकी सरकार ने नशेड़ियों, यौनकर्मियों और अपराधियों की विशेष व्यवस्था की थी। अव्वल तो देवयानी के पास यह जानने का कोई आधार नहीं है कि वहाँ उपस्थित अन्य लोग कौन थे। दूसरे, वे भी आरोपी ही रहे होंगे। अपने आपको निरपराध घोषित करने वाले व्यक्ति दूसरों को एक जनरल स्टेटमेंट देकर नशेड़ी, यौनकर्मी और अपराधी कैसे कह देते हैं यह बात समझ आ जाये तो इस केस की अन्य बातें समझना भी आसान हो जाएगा। लगता है कि कुछ लोग सोचते हैं कि जैसे वे अपने घरेलू नौकर भी अपने साथ विदेश ले जाते हैं वैसे ही अदालत/थाने में अपनी विशेष सेल भी साथ लेकर चलेंगे।

10. देवयानी को राजनयिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी
- जहां तक मैं समझता हूँ, राजनयिक कारण से ही पकड़े जाने में देर हुई। देवयानी को आधिकारिक मामलों में सीमित राजनयिक सुरक्षा उपलब्ध है जो व्यक्तिगत नौकर के लिए किए गए वीसा फ्रॉड या वेतन अपराध पर लागू नहीं होती है। अगर वे संगीता के खिलाफ बदले की कार्यवाही को अति की हद तक नहीं बढ़ातीं तो अमेरिकी सरकार को न तो झूठे इकरारनामे का पता लगता और न ही संगीता के परिवार की सुरक्षा की चिंता करनी होती। देवयानी, उसके पिता और भारत-सरकार के सहयोग से संगीता पर हो रहे सरकारी दमन ने यह सिद्ध कर दिया कि शोषण की बात न केवल सच्ची है बल्कि यदि समय पर एक्शन न लिया गया तो संगीता और उसका परिवार सुरक्षित नहीं है। यदि यह अति न की जाती तो यह मामला केवल न्यूनतम वेतन न देने का ही रहता और शायद प्रभुदयाल मामले की तरह ही समुचित हरजाना देने पर निबट भी जाता।

11. देवयानी की जांच का उद्देश्य उसे अपमानित करना था
- कानूनरहित वातावरण में रहने का एक बड़ा खामियाजा यह है कि लोग टिकट खिड़की पर पंक्ति भी तब तक नहीं लगा सकते जब तक कि लाठीचार्ज न हो जाये। जिस देश में रेल में काली और बाहर खाकी वर्दी पहनकर कोई भी उगाही कर सकता हो वहाँ व्यवस्था के मुद्दों को समझ पाना थोड़ा कठिन तो हो ही जाता है। भारत में पिछले दिनों निर्भया कांड के मुख्य आरोपी ने कड़ी सुरक्षा वाली सेल में आत्महत्या कर ली तो मीडिया पर काफी हल्ला हुआ। इसके पहले उत्तर प्रदेश के मुख्य सर्जन के हत्याकांड केस में अभियुक्त पुलिस कस्टडी में संदिग्ध परिस्थितियों में मर गए। एक प्रमुख आतंकवादी कस्टडी से भाग गया। हर साल न जाने कितने आरोपी पुलिस कस्टडी में मारे जाते हैं जिनकी ज़िम्मेदारी किसी पर नहीं आती क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में यह तय ही नहीं हो पाता है कि मृत्यु का कारक क्या था, शस्त्र कैसे अंदर पहुँचा आदि। कितने मामलों में तो यह भी सिद्ध नहीं हो पाता कि पुलिस ने मृतक को पकड़ा भी था कि नहीं क्योंकि देश में कोई सिद्ध प्रणाली ही नहीं है। हर ज़िम्मेदारी को "सब कुछ चलता है" और "जुगाड़" के नियमान्तर्गत निबटाया जा रहा है। भारत के भाग्य-विधाता तो भ्रष्टाचार और लोकपाल पर चर्चा में व्यस्त हैं लेकिन विकसित देशों में सरकारी न्याय-कारागार-पुलिस व्यवस्था के अंदर लाये गए सभी व्यक्तियों के बारे में व्यवस्थित कार्यक्रम है जिसे उन्नत बनाने के प्रयास चलते रहते हैं। इस प्रणाली के तहत न केवल हर आने जाने वाले की पुख्ता जानकारी हर समय मौजूद रहती है बल्कि इस बात का भी अतिसंभव प्रयत्न रहता है कि किसी प्रकार के गैरकानूनी पदार्थ की आवाजाही न हो सके। इन्हीं नियमों के अंतर्गत कुछ स्थानों में शारीरिक जांच का प्रबंध भी है। ऐसी जगह पर एक विदेशी नागरिक ही नहीं, उस व्यवस्था का निर्माता भी आरोपी के तौर पर जाएगा तो उसकी भी वैसी ही जांच होगी।
अमेरिकी प्रशासन की यह व्यवस्था आज देवयानी के लिए नहीं बनी, बल्कि लंबे समय से स्थापित है और इसका उद्देश्य बिना किसी भेदभाव के पुलिस, न्याय, गवाह, आरोपी, मुजरिम, मुलजिम आदि सबकी सुरक्षा निश्चित करना है। शारीरिक जांच में लगाए गए सुरक्षाकर्मी (महिलाओं के केस में महिला, पुरुषों के केस में पुरुष) को जांच से गुज़र रहे व्यक्ति का स्पर्श करने की मनाही है।

सीधी-सच्ची बात यह है कि इतने सारे आपराधिक मामलों के सामने आने के बावज़ूद भी भारत सरकार घरेलू नौकरानी साथ ले जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा ही क्यों देती है? क्या अमेरिका में रहने वाले सभी आप्रवासी अपनी-अपनी नौकरानियाँ लेकर आते हैं? बेहतर हो कि इस बार कुछ सबक लिया जाय और राजनयिकों को भी श्रम, मानवाधिकार और कानून का सम्मान करने की शिक्षा दी जाये। वीसा अर्जियों पर झूठ लिखने के प्रति उन्हें सख्त चेतावनी दी जाये और सरकार का स्टैंड ऐसे किसी भी झूठ के साथ खड़े न होने का रहे। उन्हें यह भी याद दिलाया जाये कि वे जनसेवक (सिविल सेरवेंट्स) हैं दासस्वामी (स्लेव मास्टर्स/मालिक) नहीं। उन्हें कड़े शब्दों में बताया जाये कि व्यक्तिगत खुंदक के चलते वे दूसरों के पासपोर्ट रद्द करने/कराने से बचें। साथ ही घरेलू नौकरानियों सहित सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का वचन दिया जाये और उनके खिलाफ बदले की कार्यवाही करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही का विधान हो। सरकारी दमन का शिकार बने ऐसे नागरिकों के विरुद्ध लगाए गए सभी आरोपों की जांच हो और झूठे मुक़द्दमे वापस लिए जाएँ।

इस मुद्दे को अमेरिका की "चौधराहट" या "दादागिरी" समझने वाले मित्रों से मेरा यही अनुरोध है कि अगर अपनी धरती पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध खड़े होना चौधराहट है तो भारत के लिए भी चौधरी बनाने का एक ज़बरदस्त मौका है। और वह है एक आम भारतीय नागरिक संगीता रिचर्ड और उस जैसी अनेक शोषित और पीड़ित भारतीय महिलाओं के शोषण के खिलाफ प्रतिबद्धता दिखाना। शर्म की बात है कि विदेश हमारे नागरिक के अधिकार के लिए खड़ा है और हम उनसे कुछ सीखने के बजाय अपने ही नागरिक के असंवैधानिक दमन में पार्टी बने हुए हैं।

यद्यपि इस मामले में आर्थिक भ्रष्टाचार भी सामने आया है लेकिन भ्रष्टाचार केवल पैसे के लेनदेन तक सीमित नहीं होता है। सत्ता के दुरुपयोग के उपरोक्त सारे कृत्य भी मेरी नज़र में भ्रष्टाचार के ही उदाहरण हैं। विदेशों में पोस्टेड राजनयिक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उन पर महती ज़िम्मेदारी है। ऐसे पदों के लिए ऐसे लोग चुने जाने चाहिए जिनकी न्याय-निष्ठा, निष्पक्षता और ईमानदारी अटूट और विश्वसनीय हो। बस एक बात मेरी समझ में नहीं आती है कि "सत्यमेव जयते" के देश में भ्रष्टाचार का झण्डा ऐसी बुलंदी के साथ कैसे रह रहा है? और फिर जब अमेरिका ने अपनी धरती पर "एक भारतीय के विरुद्ध" हुए मानवाधिकार उल्लंघन के एक अपराध को रोकने की कोशिश की तो हमने इसका इतना कडा विरोध क्यों किया? हमारे नेताओं और नौकरशाहों को तय करना चाहिए कि वे भारत के "सत्यमेव जयते" के आग्रह के रक्षक हैं कि भक्षक। और साथ ही हमारी जनता को हर बार एक नई तरह से भावनात्मक मूर्ख बनते रहने का भोलापन छोड़ने का प्रयास करना चाहिए।
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नकद धर्म - स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में
[नोट: मैं कोई सरकारी अधिकारी नहीं हूँ, न ही इस केस से संबन्धित कागजातों की मूलप्रतियाँ मुझे दिखाई गई हैं। पूरा आलेख विश्वसनीय और सार्वजनिक सूत्रों में प्रकाशित समाचारों, अपनी सहज बुद्धि और भारत व अमेरिका में नौकरशाहों के साथ हुए अनुभवों के साथ-साथ भारत भर में आसानी से देखे जा सकने वाले घरेलू नौकरों तथा दबंग नौकरशाहों के व्यवहार और प्रवृत्तियों पर आधारित है।]

Friday, April 5, 2013

माल असबाब की सुरक्षा - हार की जीत

अमेरिका के एक हवाई अड्डे से बाहर आकर जब पार्किंग तक जाने के लिए शटल बस में बैठा तो मेरे साथ कई अन्य लोग भी चढ़े। बूढ़े हों या जवान, सीट लेने से पहले सबने अपनी भारी-भारी अटैचियों को सामान के लिए बनी जगह में करीने से लगाया। चालक भी सबके बैठने तक रुका रहा। अगले टर्मिनल पर फिर वही सब दोहराया गया। इस बार एक व्यक्ति के पास दो भारी सूटकेस सहित चार अदद थे। सामान की जगह खाली थी लेकिन उसकी नज़र सीट पर थीं। पीछे सीट भी खाली थीं मगर वहाँ तक कौन जाये सो वह सबसे आगे विकलांगों व बुज़ुर्गों के लिए छोड़ी सीट पर जम गया। चलने के लिए बनी थोड़ी सी जगह में अपनी अटैचियाँ और थैले भी अपने आस पास जमा लिए। उसके बाद हर टर्मिनल पर लोग उसके सामान से अपने घुटने टकराते हुए निकलते रहे मगर वह तसल्ली से अपने आइफोन पर संगीत सुनता रहा। न किसी अटकते हुए व्यक्ति ने उसे सामान रखने की जगह दिखाई और न ही उसने खुद तकलीफ की।

मुझे याद आया जब डीटीसी की बस में एक कंडक्टर ने किसी को अपनी अटैची पीछे रखने को कहा था और इस बात पर लंबी बहस चली जिसका निष्कर्ष यह निकाला कि सामान साथ न रखने पर उसके चोरी होने की आशंका बनी रहती है। मतलब यह कि जो आदमी दूसरों के लिए जितनी अधिक असुविधा पैदा कर सकता है उसका माल उतना ही सुरक्षित है। समाज जितना अधिक स्वार्थी और जंगली होगा, अपनी सुरक्षा और दूसरों की असुविधा का संबंध उतना ही गहरा होता जाएगा।

आज के भारत का हाल नहीं पता लेकिन हमारे जमाने में एक व्यापक जनधारणा यह थी कि निजी क्षेत्र की क्षमता सरकारी तंत्र से अधिक होते है। दिल्ली में निजी क्षेत्र की रेड/ब्लू लाइन के अत्याचार रोज़ सहने वाले भी बिजली, पानी की बात चलने पर छूटते ही कहते थे, "प्राइवेट कर दो, दो दिन में हालत बदल जाएगी।" सुना है अब सब प्राइवेट हो गया है और झुग्गी-झोंपड़ी वाले भी हजारों रुपये के बिल से त्रस्त हैं। सुनवाई के नाम पर बस एक ही कार्यवाही होती है, कनैक्शन काटने की। कुकुरमुत्ते की तरह उग आए प्राइवेट स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय तक नहीं हैं और जनसेवा के नाम पर करोड़ों की ज़मीन खैरात में पाने वाले फाइव-स्टार अस्पतालों में मुरदों को भी निचोड़ लेने की अफवाहें आती रहती हैं।

बदइंतजामी और भ्रष्टाचार के चलते जब एक निजी बैंक का दिवाला पिट गया तो उसके कर्मचारियों की नौकरी और जमकर्ताओं की पूंजी बचाने के लिए उसका शव एक सक्षम सरकारी बैंक की पीठ पर लाद दिया गया। हमारी शाखाओं का भाषाई संतुलन रातों-रात बदल गया। पाटना वापस पटना हो गया लेकिन बेचारे पद्मनाभन जी कुछ और बन गए। काम न जानने का आधार काम न करने का कारण बना और "सेवा के लिए विकास" की जगह "मैन्नू ते कुछ पता ई नई" बैंक का नया आदर्श वाक्य बनने के सपने देखने लगा। कुल मिलाकर मेरा अवलोकन यही था कि काम करने वालों से काम तो होता है लेकिन कभी-कभार गलती भी हो सकती है। लेकिन जिसने कभी कुछ किया ही नहीं, टोटल-मुफ्तखोरी की, उसकी कलम न कभी कोई कागज़ छूएगी, न कभी उनके हस्ताक्षर पकड़ में आएंगे। हारने दो उनको जो अपनी ज़िंदगी गुज़र देते हैं खून-पसीना बहाने में।

समाज में सब कुछ सही नहीं है, सब कुछ सही शायद कभी न हो। लेकिन इतना तय है कि बेहतरी की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। जब तक गलत करने वालों को सज़ा और सही उदाहरण रखने वालों को उत्साह नहीं मिलेगा, "ज्योतिर्गमय" की आशा बेमतलब है। बुराई के साथ कोई रियायत नहीं, लेकिन यह सदा याद रहे कि भले लोगों से मतांतर होने पर भी सदुद्देश्य के मार्ग में हमें उनका हमसफर बने रहना है। बल्कि सच कहूं तो मतांतर वाले सज्जनों की सहयात्रा हमारी उन्नति के लिए एक अनिवार्य शर्त है क्योंकि वे हमें सत्य का वह पक्ष दिखते हैं जिसे देखने की हमें आदत नहीं होती। अच्छाई को रियायत दीजिये। मिल-बैठकर चिंतन कीजिये। एक दूसरे के सहयोगी बनिए। आँख मूंदकर चलना मूर्खों की पहचान है। इंसानी शक्ल वाली भेड़ों के लिए तो बहुत से वाद, मजहब और विचारधाराएँ दुनिया में थोक में मौजूद हैं। सभी रेंगने वालों को कौन उठा पाया है? लेकिन पर्वतारोहियों का हित इसी में है कि हिमालय का पतन न हो। एक दूसरे को छूट दीजिये, सहयोग कीजिये लेकिन आपके आसपास "क्या" हो रहा है के साथ "क्यों" हो रहा है पर भी पैनी नज़र रखिए।

दूध देने वाली गाय हो या जहर देने वाला नाग, स्वार्थी लोगों ने दोनों को दुहा है लेकिन हमारी विशालहृदया संस्कृति ने दोनों को ही आदर दिया है। समन्वय हमारी संस्कृति के मूल में है। अतिवाद थोपने वाली, लोगों को दीवारों में बांटने वाली, या भेद के आधार पर हिंसा लादने वाली विचारधाराएँ उत्तरी, पश्चिमी या पूर्वी सीमा से घुसपैठ करने की कितनी भी कोशिश करें, भारतीय संस्कृति कभी नहीं कहला सकतीं।

Tuesday, February 1, 2011

नानृतम् - कविता

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क्या हुआ सब तेज
गुम हुआ वह ओज
मुख मलिन है
ग्रहण जो है
आन्धी घनी औ' धुन्ध भी
गहरा रही है
पूर्वप्रसवा है कुपोषित
दिख रही निष्प्राण सी है
पर हटेगी नहीं
वह टिकेगी यहीं
और जन्म देगी
एक सुन्दर स्वस्थ
नव आशा किरण को
दुश्मन भले फैला रहे
अफवाह झूठी ला रहे
कि चिरयुवा स्थूलकाय
रोज़ नौ सौ चूहे खाय
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।

Saturday, October 18, 2008

सत्यमेव जयते - एक कविता

सच कड़वा है कहने वाले,
न जानें सच क्या होता है।

सच मीठा भी हो सकता है,
क्या जाने जो बस रोता है।

दोषारोप लगें कितने, सच
सिसकता है न रोता है।

सच तनकर चलते रहता है,
जब झूठ फिसलता होता है।

सच वैतरणी भी तरता है,
जहाँ झूठ लगाता गोता है।

सच की छाया तरसेगा ही
जो बीज झूठ के बोता है।


न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा ।
यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥
(महाभारत)
अर्थ: बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न असत्य है। जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है।