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Monday, May 4, 2015

5 मई - क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन


प्रीतिलता वादेदार (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932)
5 मई को महान क्रांतिकारी व प्रतिभाशाली छात्रा प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन है। आइये इस दिन याद करें उन हुतात्माओं को जिन्होने अपने वर्तमान की परवाह किए बिना हमारे स्वतंत्र भविष्य की कामना में अपना सर्वस्व नोछावर कर दिया।

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 चटगाँव (अब बंगला देश) में हुआ था। उन्होने सन् 1928 में चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की और सन् 1929 में ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया था जो उन्हें 80 वर्ष बाद मरणोपरान्त प्रदान की गयी।

उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल की सक्रिय सदस्य प्रीतिलता ने 23 सितम्बर 1932 को एक क्रांतिकारी घटना में अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वयं ही मृत्यु का वरण किया था। अनेक भारतीय क्रांतिकारियों की तरह प्रीतिलता ने एक बार फिर यह सिद्ध किया किया कि त्याग और निर्भयता की प्रतिमूर्तियों के लिए मात्र 21 वर्ष के जीवन में भी अपनी स्थाई पहचान छोड़ कर जाना एक मामूली सी बात है।

प्रीतिलता वादेदार, विकीपीडिया पर

Wednesday, July 18, 2012

1857 के महानायक मंगल पांडे

19 जुलाई सन 1827 को बलिया जिले के नगवा ग्राम में जानकी देवी एवं सुदृष्टि पाण्डेय् के घर उस बालक का जन्म हुआ था जो कि भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखने वाला था। इस यशस्वी बालक का नाम रखा गया मंगल पाण्डेय। कुछ् सन्दर्भों में उनका जन्मस्थल अवध की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर ग्राम (अब ज़िला अम्बेडकरनगर का एक भाग) बताया गया है और उनके माता-पिता के नाम क्रमशः अभय रानी और दिवाकर पाण्डेय। इन सन्दर्भों के अनुसार फ़ैज़ाबाद के दुगावाँ-रहीमपुर के मूल निवासी पण्डित दिवाकर पाण्डेय सुरहुरपुर स्थित अपनी ससुराल में बस गये थे। कुछ अन्य स्थानों पर उनकी जन्मतिथि भी 30 जनवरी 1831 दर्शाई गई है। इन सन्दर्भों की सत्यता के बारे में मैं अभी निश्चित नहीं हूँ। यदि आपको कोई जानकारी हो तो स्वागत है।

प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रथम सेनानी मंगल पाण्डेय सन 1849 में 22 वर्ष की उम्र में ईस्ट इंडिया कम्पनी की बेंगाल नेटिव इंफ़ैंट्री की 34वीं रेजीमेंट में सिपाही (बैच नम्बर 1446) भर्ती हो गये थे। ब्रिटिश सेना के कई गोरे अधिकारियों की तरह 34वीं इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर भी ईसाई धर्म का प्रचारक था। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नियाँ, या वे स्वयं बाइबिल के हिन्दी अनुवादों को फारसी और भारतीय लिपियों में छपाकर सिपाहियों को बाँट रहे थे। ईसाई धर्म अपनाने वाले सिपाहियों को अनेक लाभ और रियायतों का प्रलोभन दिया जा रहा था। उस समय सरकारी प्रश्रय में जिस प्रकार यूरोप और अमेरिका के पादरी बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करने के लिये भारत में प्रचलित धर्मों का अपमान कर रहे थे, उससे ऐसी शंकाओं को काफ़ी बल मिला कि गोरों का एक उद्देश्य भारतीय संस्कृति का नाश करने का है। अमेरिका से आये पादरियों ने सरकारी आतिथ्य के बल पर रोहिलखंड में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। फ़तहपुर के अंग्रेज़ कमिश्नर ने नगर के चार द्वारों पर खम्भे लगवाकर उन पर हिन्दी और उर्दू में दस कमेन्डमेंट्स खुदवा दिए थे। सेना में सिपाहियों की नैतिक-धार्मिक भावनाओं का अनादर किया जाने लगा था। इन हरकतों से भारतीय सिपाहियों को लगने लगा कि अंग्रेज अधिकारी उनका धर्म भ्रष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे।

सेना में जब ‘एनफील्ड पी-53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का प्रयोग शुरू हुआ तो भारतीयों को बहुत कष्ट हुआ क्योंकि इन गोलियों को चिकना रखने वाली ग्रीज़ दरअसल पशु वसा थी और गोली को बन्दूक में डालने से पहले उसके पैकेट को दांत से काटकर खोलना पड़ता था। अधिकांश भारतीय सैनिक तो सामान्य परिस्थितियों में पशुवसा को हाथ से भी नहीं छूते, दाँत से काटने की तो बात ही और है। हिन्दू ही नहीं, मुसलमान सैनिक भी उद्विग्न थे क्योंकि चर्बी तो सुअर की भी हो सकती थी - अंग्रजों को तो किसी भी पशु की चर्बी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। कुल मिलाकर सैनिकों के लिये यह कारतूस काफ़ी रोष का विषय बन गये। सेना में ऐसी खबरें फैली कि अंग्रेजों ने भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए जानबूझकर इन कारतूसों में गाय तथा सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया है।

इन दिनों देश में नई हलचल दिख रही थी। छावनियों में कमल और गाँवों में रोटियाँ बँटने लगी थीं। कुछ बैरकों में छिटपुट आग लगने की घटनायें हुईं। जनरल हीयरसे जैसे एकाध ब्रिटिश अधिकारियों ने पशुवसा वाले कारतूस लाने के खतरों के प्रति अगाह करने का असफल प्रयास भी किया। अम्बाला छावनी के कप्तान एडवर्ड मार्टिन्यू ने तो अपने अधिकारियों से वार्ता के समय क्रोधित होकर इन कारतूसों को विनाश की अग्नि ही बताया था लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि, दिल्ली से लन्दन तक सत्ता के अहंकार में डूबे किसी सक्षम अधिकारी ने ऐसे विवेकी विचार पर ध्यान नहीं दिया।

26 फरवरी 1857 को ये कारतूस पहली बार प्रयोग होने का समय आने पर जब बेरहामपुर की 19 वीं नेटिव इंफ़ैंट्री ने साफ़ मना कर दिया तो उन सैनिकों की भावनाओं पर ध्यान देने के बजाय उन सबको बैरकपुर लाकर बेइज़्ज़त किया गया। इस घटना से क्षुब्ध मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च सन् 1857 को बैरकपुर में अपने साथियों को इस कृत्य के विरोध के लिये ललकारा और घोड़े पर अपनी ओर आते अंग्रेज़ अधिकारियों पर गोली चलाई। अधिकारियों के नज़दीक आने पर मंगल पाण्डेय ने उनपर तलवार से हमला भी किया। उनकी गिरफ्तारी और कोर्ट मार्शल हुआ। छह अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई।

This article was originally written by 
Anurag Sharma for pittpat.blogspot.com
मंगल पाण्डे की फांसी के लिए 18 अप्रैल की तारीख तय हुई लेकिन यह समाचार पाते ही कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ असंतोष भड़क उठा जिसके मद्देनज़र अंग्रेज़ों ने उन्हें आठ अप्रैल (8 अप्रैल 1857) को ही फाँसी चढ़ा दिया। 21 अप्रैल को उस टुकड़ी के प्रमुख ईश्वरी प्रसाद को भी फाँसी चढ़ा दिया। अंग्रेज़ों के अनुसार ईश्वरी प्रसाद ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार न करके आदेश का उल्लंघन किया था। इस विद्रोह के चिह्न मिटाने के उद्देश्य से चौंतीसवीं इंफ़ैंट्री को ही भंग कर दिया गया। इस घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर अंग्रेज़ों के अन्दाज़े के विपरीत भारतीय सैनिकों में भय के स्थान पर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। लगभग इसी समय नाना साहेब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई भी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ मैदान में थे। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के प्रथम नायक बनने का श्रेय मंगल पाण्डेय् को मिला।

एक भारतीय सिपाही मंगल पाण्डेय का साहस मुग़ल साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसे दो बडे साम्राज्यों का काल सिद्ध हुआ जिनका डंका कभी विश्व के अधिकांश भाग में बजता था। यद्यपि एक वर्ष से अधिक चले संघर्ष में अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाने और अनेक वीरों के प्राणोत्सर्ग के बाद अंततः हम यह लड़ाई हार गये लेकिन मंगल पाण्डेय और अन्य हुतात्माओं के बलिदान व्यर्थ नहीं गये। 1857 में भड़की क्रांति की यही चिंगारी 90 वर्षों के बाद 1947 में भारत की पूर्ण-स्वतंत्रता का सबब बनी। स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों ने सर्वस्व त्याग के उत्कृष्ट उदाहरण हमारे सामने रखे हैं। आज़ाद हवा में साँस लेते हुए हम सदा उनके ऋणी रहेंगे जिन्होंने दासता की बेड़ियाँ तोड़ते-तोड़ते प्राण त्याग दिये।

[आलेख: अनुराग शर्मा; चित्र: इंटरनैट से साभार]
सम्बन्धित कडियाँ
* अमर महानायक तात्या टोपे का लाल कमल अभियान
* प्रेरणादायक जीवन चरित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* शहीद मंगल पांडे के गाँव की शिनाख्त

Sunday, July 1, 2012

चुटकी भर सिन्दूर

कल इंडियन आयडल पर आशा भोसले को देखा पूरे शृंगार और आभूषणों के साथ, मन को बहुत अच्छा लगा कि इस आयु में भी किसी समारोह में जाते समय वे प्रेज़ेंटेबल होना पसन्द करती हैं। उसी बात पर गांधी और टैगोर के बीच का वह सम्वाद याद आया जब टैगोर ने मलिन होकर दूसरों के सामने जाने को हिंसा का ही एक रूप बताया था। अधिकांश व्यक्ति सुन्दर दिखना चाहते हैं। सफ़ेद बाल वाले उन्हें रंगने पर लगे हैं, झुर्रियों वाले बोटॉक्स या फेसलिफ़्ट की शरण में जा रहे हैं। प्राकृतिक रूप से या फिर कीमोथेरेपी आदि के प्रभाव से बाल गिर जाने पर लोग विग, वीविंग या केश-प्रत्यारोपण आदि अपना रहे हैं। कितने लोग तो कद बढाने के लिये अति-कष्टप्रद और खर्चीली हड्डी-तोड़ शल्यक्रिया भी करा रहे हैं। गोरेपन की क्रीम की तो बात ही क्या की जाये, उसे हम भारतीयों से बेहतर कौन पहचानता है।

भारतीय संस्कृति की विविधता उसकी परम्पराओं में झलकती है। लगभग दो दशक पहले की माधुरी पत्रिका में लता मंगेशकर का मांग भरा चित्र देखकर हिन्दी क्षेत्रों में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया था। असलियत जानने पर बहुत से लोग बगले झाँकते नज़र आये थी। गांगेय क्षेत्र में जहाँ मांग भरना सुहाग का प्रतीक बन गया है वहीं अधिकांश महाराष्ट्र में एक नन्हीं बच्ची भी शृंगार के रूप में मांग भर सकती है। रुहेलखण्ड में तो मुसलमान विवाहितायें भी सुनहरी अफ़शाँ या चन्दन से मांग भरती हैं। लेकिन दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।

सिन्दूर प्रसाधन है?
ठीक से पता नहीं कि भारत में सिन्दूर कब और कहाँ नारी की वैवाहिक स्थिति का प्रतीक बन गया लेकिन इतना तो हम सब को मानना पड़ेगा कि विवाह संस्कार की ही तरह कर्णछेदन, मुंडन और यज्ञोपवीत भी कभी एक बड़े समुदाय के सांस्कारिक जीवन का महत्वपूर्ण भाग रह चुके हैं। जहाँ कई माँएं स्वयं ही बढ़-चढ़कर बचपन में ही अपनी बेटियों के नाक कान छिदवा देती हैं वहीं आजकल लड़कों का कर्णछेदन - जोकि शास्त्रानुसार लड़के, लड़की सभी के लिये समान था - अव्वल तो होता ही नहीं, यदि हो भी तो कान सचमुच नहीं छेदा जाता है। इसी प्रकार पुरोहितों के अतिरिक्त आजकल शायद ही कोई पुरुष शिखाधारी दिखता हो। यज्ञोपवीत भी कम से कम उत्तर भारत से तो ग़ायब ही होता जा रहा है।


वस्त्रों की बात आने पर भी यही दिखता है कि स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे तहमद की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।

यह सारी बातें शायद यहाँ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि पिछले 8-10 दिनों में मेरे द्वारा पढे जाने वाले ब्लॉग्स पर शृंगार, परम्परा और व्याधि से सम्बन्धित विषयों पर तीन अलग-अलग प्रविष्टियाँ पढने को नहीं मिलतीं। अधिकांश व्यक्ति स्वयं भी सुन्दर दिखना चाहते हैं और जाने-अनजाने अपने आसपास भी सौन्दर्य देखना चाहते हैं यह समझने के लिये हमें सौन्दर्य सम्बन्धित व्यवसायों के आंकड़े देखने की ज़रूरत नहीं है। स्त्रियों को शृंगारप्रिय बताने वाले पुरुषों को भी दर्ज़ी, नाई, आदि की व्यवसायिक सेवायें लेते हुए देखा जा सकता है। उनकी उंगली में अंगूठी और गले में सोने की लड़ या हाथ में डिज़ाइनर घड़ी होना आजकल कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि माथे का बेना/टीका शृंगार है तब टाई को क्या कहेंगे? आखिर इस सब को किसी जेंडर विशेष या व्याधि या परम्परा से बांधा ही क्यों जाये? व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है।  

एक पल रुककर विचारिये, और हमारे महान राष्ट्र की महानतम परम्परा का और अपने अन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
निरामिष पर ताज़ा आलेख: भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा
रेडियो प्लेबैक इंडिया की प्रस्तुति: बिम्ब एक प्रतिबिम्ब अनेक: शब्दों के चाक पर - 5
* सम्बन्धित कड़ियाँ * 
* लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़
* भारतीय संस्कृति के रखवाले
* कितने सवाल हैं लाजवाब?
* ब्राह्मण कौन?
* विश्वसनीयता का संकट

Tuesday, April 17, 2012

अमर महानायक तात्या टोपे (1814-1859)

तात्या टोपे की समाधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर से शायद ही कोई अपरिचित हो। जी हाँ, अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक कमांडर तात्या टोपे का वास्तविक नाम यही था।

1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।

लाल कमल अभियान 1857
तात्या टोपे के परिवार की वर्तमान पीढी के श्री पराग टोपे ने कुनबे के अन्य सदस्यों व इतिहासकारों के सहयोग से 1857 के संग्राम के कुछ छिपे हुए पन्नों को रोशन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन और परिवार में चल रही कथाओं के अनुसार 1857 के संग्राम के तयशुदा आरम्भ से कहीं पहले ही तात्या ने ब्रिटिश सेना के भारतीय प्लाटूनों को कमल भेजकर उनकी भागीदारी, संख्या और सैन्यबल सुनिश्चित करना आरम्भ कर दिया था। भागीदारी में सहमति देने वाले सैनिकों द्वारा कमल की पंखुड़ियाँ रखी जाने के बाद खाली डंडियाँ गिनकर सेना का आगत गमनागमन तय किया गया। डंडियों से निकले कमलगट्टों के मखाने के साथ रोटियों को ग्रामप्रधानों में बाँटकर सेना के संचलन के समय उनके सम्भावित मार्ग पर रसद की आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम किया गया। रोटियाँ और कमल बँटने की घटनाओं का ज़िक्र कई इतिहास ग्रंथों में मिलता है परंतु उसका विस्तृत स्पष्टीकरण अन्यत्र नहीं दिखता।

अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।

टोपे परिवार, परम्परागत वेशभूषा में (ऑपरेशन रेड लोटस से साभार)
तात्या के विरोधी भी तात्या के सैन्य-संचलन के क़ायल थे। कई ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि सिन्धिया सरीखे कुछ राजा अंग्रेज़ों के पक्ष में न आये होते तो 1857 में भारत से गोरों का सफ़ाया निश्चित था। ऐतिहासिक कथा यह है कि 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेज़ों ने बन्दी बना लिया गया। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 1857 के डेढ वर्ष बाद अभी भी यत्र-तत्र संघर्षरत भारतीय सैनिकों का मनोबल तोड़ने के लिये तात्या टोपे को फ़ांसी देना तो तय था, तो भी शिवपुरी में सैनिक अदालत की काग़ज़ी कार्यवाही पूरी की गयी। फ़ांसी देने से पहले बन्दी तात्या से लिखवाये गये बयानों में उनका नाम तात्या टोपे (नाना साहेब के कार्यकर्ता) लिखा गया है। स्वाधीनता संग्राम में अपनी भागीदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा कि वे अपने देश के महाराज नाना साहेब की ओर से अपनी देशरक्षा के लिये लड़े हैं और वे किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी असैनिक को चोट पहुँचाई है। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गयी और आज ही के दिन ... 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।

डॉ. राजेश टोपे से एक अविस्मरणीय मुलाकात
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।

पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।

अमर हो स्वतंत्रता!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* तात्या टोपे - अधिकारिक वैब साइट
* तात्या टोपे - हिन्दी विकीपीडिया
* तात्या टोपे प्रशंसक पृष्ठ - फ़ेसबुक
* फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

Tuesday, March 27, 2012

क्या तिब्बत की आग चीनी तानाशाही को भस्म करेगी?

स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति

सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।

चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

धन्यवाद भारत!
 भारत सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार को तिब्बतियों के इस कठिन समय में भारतीय राष्ट्रीय नारे "सत्यमेव जयते" को सिद्ध करना चाहिये। तिब्बती समुदाय पर हिंसक कार्यवाही करने के बजाय उन्हें चीनी नेताओं की आँखों में आँखें डालकर तिब्बत मुद्दे पर स्पष्ट बात करनी चाहिये। वहीं भारतीय जनता को भी इस विषय पर तिब्बत की स्वतंत्रता के समर्थन में खुलकर सामने आना चाहिये बल्कि चीन से भारतीय भूमि वापसी की मांग के लिये भी सरकार पर दवाब डालना चाहिये। कितने आश्चर्य की बात है कि देशभक्ति का दावा करने वाली किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक भारतीय भूमि की वापसी को अपनी नीति में शामिल करने का साहस नहीं दिखाया। कैसा राष्ट्रप्रेम है यह?

कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
 
अमेरिका में  स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल  चित्र )
1952 के चीनी आक्रमण से पहले तक तिब्बत कम से कम 1300 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में था। चीनदेश का जो भी हाल रहा हो त्रिविष्टप भूमि के आर्यावर्त से नियमित सम्बन्ध थे। दलाई लामा को अपना स्वामी मानने वाले तिब्बत की अपनी मुद्रा और डाक टिकट चीनी हमले तक चलते थे। सच तो यह है कि तिब्बत की अपनी सेना भी थी जिसने 1952 के प्रतिरोध के अतिरिक्त छठी शताब्दी में दो सौ वर्षों तक चीन से युद्ध किया था। डोगरा जनरल जोरावर सिंह के तिब्बत अभियान में सोने की गोली से मारे जाने की बात राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखी है। चीन के दुष्प्रचार मे भले ही अरुणाचल, सिक्किम और भूटान की तरह तिब्बत भी चीन के अंग बताये जाते हों परंतु सत्य यही है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद तिब्बत का जैसा नाता भारत और नेपाल के साथ रहा है वैसा चीन के साथ कभी नहीं रहा। तिब्बत की भाषा और लिपि सम्पूर्ण चीन में एक भाषा का दावा करने वाले चीन से एकदम अलग है। तिब्बती लिपि तो भारतीय लिपि परिवार की ही सदस्य है। भाषा और संस्कृति भी चीन के बजाय हिमालयी राज्यों से मिलती है।

स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज
पंचशील की सन्धि करने के बाद भारत पर अचानक हमला करने वाले विस्तारवादी और उद्दण्ड चीन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। अक्साई-चिन पर कब्ज़ा किये रहने के बावजूद चीन का जब मन करता है वह कभी कश्मीर और कभी अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के वीसा के बहाने भारत की प्रभुसत्ता का मज़ाक उड़ाने लगता है। बढती शक्ति से बौराये चीनी तिब्बत से निकलने वाली हमारी नदियों के रुख मोड़ रहे हैं। अपने सैनिकों के लिये दुर्गम स्थलों तक आधुनिक ट्रेनें चलाने वाला चीनी प्रशासन कैलाश और मानसरोवर जैसे प्राचीन तीर्थों की यात्राओं पर जाने वाले हमारे यात्रियों से भारी वीसा शुल्क लेने के बाद भी उन्हें मौलिक सुविधायें तक मुहैया नहीं कराता। चीनी अधिकारियों के हाथों भारतीय व्यापारियों के साथ हालिया बदसलूकी और वियेतनाम के साथ खनन परियोजनाओं सम्बन्धी समझौतों के समय खनन स्थल पर अपने नौसैनिक बेड़े की गश्तें कराना चीन द्वारा भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का स्पष्ट उदाहरण है।

सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें
तिब्बत पर चीन के दमन का विरोध न केवल एक मानवता के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि भारत के स्थाई शत्रु तानाशाह चीन की गुंडागर्दी को काबू में रखने के लिये आवश्यक भी है। नेपाल और पाकिस्तान भले ही मुँह सिये बैठे रहें, कम से कम भारत को यह चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज विश्व मंच पर उठाए।  एक स्वतंत्र तिब्बत के अस्तित्व के साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद का अंत तो होगा ही, भारत के साथ-साथ नेपाल और भूटान को भी एक दानवी पड़ोसी से छुटकारा मिलेगा। हमारी नदियाँ स्वतंत्र होंगी और पिछले वर्षों में सतलज में आयी कृत्रिम बाढ जैसी विभीषिकाओं से छुटकारा मिलेगा। अक्साई चिन व पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ाये कश्मीर के उत्तरी भाग से लिये गये भूभाग की वापसी का मार्ग भी साफ़ होगा और चीन द्वारा तिब्बत को पर्माण्वीय कचरे का ढेर बनाये जाने की आशंकाओं के भय से मुक्ति भी मिलेगी। तिब्बत जैसे मित्रवत पड़ोसी की उपस्थिति से उत्तरी सीमा पर हथियारों व वन्यपशुओं की तस्करी से बचाव जैसे लाभ भी स्वतः ही मिलेंगे।

यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।
कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।

जय तिब्बत! जय भारत!  अमर हो स्वतंत्रता!

सम्बन्धित कड़ियाँ
Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल

Thursday, July 7, 2011

न्यूयॉर्क नगरिया [इस्पात नगरी से 43]

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पिट्सबर्ग में चार जुलाई के समारोह के अगले दिन ही अचानक ही न्यूयॉर्क जाने का संयोग बन गया। वैसे तो वहाँ इतनी बार जाना होता है मानो मेरा एक घर वहीं हो परंतु हर बार समय इतना कम होता है कि जब तक किसी को बताने की सोचूँ, तब तक वापस आ चुका होता हूँ। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। घर से निकलते ही अपने न्यूयॉर्क के कुछ मित्रों को पूर्वसूचना दे दी। एक मित्र के साथ एक पूरा दिन रहा। ग्राउण्ड ज़ीरो से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की दौड के बीच में कुछ देर तफ़रीह का समय भी मिला।

इस यात्रा के कुछ चित्र प्रस्तुत हैं, शायद आपको पसन्द आयें।

हैम्सली भवन

प्रमुख डाकघर
आतंकवादियों द्वारा गिराये गये जुडवाँ स्तम्भों के स्थल पर कार्य जारी है

आतंकियों द्वारा गिराये स्तम्भ के स्थल पर आकार लेता एक नया भवन

गतिमान पुलिस का तिपहिया वाहन 

नगर के एक मुख्य मार्ग पर घुडसवार पुलिस अधिकारी

संयुक्त राष्ट्र परिसर में एक कलाकृति  

स्वर्णमण्डित स्वातंत्र्य की देवी

ग्रैंड सेंट्रल स्टेशन

यहाँ के सिगार कास्त्रो नहीं खरीद सकता - एक पुरानी दुकान

न्यूयॉर्क ने मात्र 18 मास में एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग खडी कर दी थी 

विश्व की व्यापार राजधानी के लिये - भारत में बना हुआ 

ज़मीन कब्ज़ियाने के लिये शंघाई नागरिकों पर हो रहे कम्युनिस्ट अत्याचारों की कहानी सुनाने संयुक्त राष्ट्र कार्यालय आये चीनी शरणार्थी

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी 2011 में भी अपनी जनता को दोज़ख भेज रही है

अधिकांश चीनी पीछे छूटे अपने परिवार के डर से कैमरा के सामने नहीं आये परंतु यह दो निडर प्रस्तुत हैं

बन्दूक द्वारा जनता को कुचलने वालों का दुनिया भर में वही हाल होगा जो इस पिस्तौल का हुआ है

वापसी से पहले युवा और विद्वान ब्लॉगर अभिषेक ओझा के दर्शन हुए, यात्रा सफल रही।

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: All photos by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* स्टेटस ऑफ चाइनीज़ पीपल (अंग्रेज़ी)
* संयुक्त राष्ट्र (विकीपीडिया)
* न्यूयॉर्क में हिंदी

Monday, July 19, 2010

यह सूरज अस्त नहीं होगा!


(19 जुलाई 1827 --- 8 अप्रैल 1857)

जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, वह हमेशा के लिये डूब गया. सिर्फ एक सिपाही ने गोली चलाने का साहस किया और यह असम्भव घटना इतिहास में दर्ज़ हो गयी. उसी सिपाही की गोली का एक साइड इफ़ेक्ट यह भी हुआ कि विश्व के सबसे धनी मुगल साम्राज्य का भी खात्मा हो गया. एक सिपाही का साहस ऐसे दो बडे राजवंशों का काल सिद्ध हुआ जिनका डंका कभी विश्व के अधिकांश भाग में बजता था.

इतिहास भी कैसी-कैसी अजब करवटें लेता है – क्या इत्तफाक़ है कि 1857 की क्रांति को भडकाने वाली एनफील्ड राइफल के लिये पशु-वसा में लिपटी उस गोली को बनाने वाली एनफील्ड कम्पनी इंग्लैंड में अपनी दुकान कबकी समेट चुकी है परंतु भारत में अभी भी गोली (बुलेट मोटरसाइकिल) बना रही है.



1857 के स्वाधीनता संग्राम की पहली गोली चलाने वाले अमर शहीद मंगल पांडे के जन्म दिन पर नमन! मृत्युदंड के समय वे 29 वर्ष के थे.

मंगल पाण्डेय की भूमिका में आमिर खान

[सभी चित्र इंटरनैट से साभार]
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