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Saturday, April 11, 2015

ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार - लघुकथा

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)
झुमकेचल प्रसाद काम में थोड़ा कमजोर था। बदमाशियाँ भी करता था। दिखने में ठीक-ठाक था और उसके साथियों ने उसके इस ठीक-ठाक का भाव काफी चढ़ाया हुआ था। सो, वह अपने आप को डैनी, नहीं, शायद राजेश खन्ना समझता था। अब नौजवान राजेश खन्ना अपने से कई साल छोटे और कई किलो हल्के अधिकारी के अधीनस्थ होकर आराम से तो काम कर नहीं सकता सो हर बात में थोड़ा बहुत विद्रोह भी दिखाता रहता था। अकारण द्रोह का एक कारण शायद उस अधिकारी का अनारक्षित कोटे से आना भी था।

झुमकेचल के काम में काफी कमियाँ थीं। लेकिन अधिकारी उसकी क्षमता को जानते हुए उसे कुछ जताए बिना शाम को घर जाने से पहले उसकी गलतियाँ ठीक कर देता था। जितना जायज़ था उतनी छूट अधिकारी उसे हमेशा देता रहा। वह फरीदाबाद से दिल्ली आता था। आने में अक्सर देर हो जाती थी। वरिष्ठ प्रबंधक कड़कसिंह रोज़ सुबह दरवाजे पर लगी घड़ी के नीचे खड़ा हर देर से आने वाले की क्लास लगाता था। उसकी समस्या को ध्यान से सुनने के बाद अधिकारी ने कड़कसिंह से कड़क बहसें कर के अपने अधीनस्थों की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उसकी देरी सदा के लिए अनुशासन के दायरे से निकलवा दी। हर सुबह बाकी लेट-लतीफों को झिड़कता कड़कसिंह जब उसे कुछ नहीं कहता तो उसकी सुबह, जोकि अब लगभग दोपहर हो चुकी होती थी, उत्साह से भर जाती। इसी उत्साह में अब वह नियमित रूप से देर से आने लगा। जब कई दिन तक अधिकारी की ओर से उसकी नियमित देरी का कोई प्रतिरोध नहीं दिखा तो एक दिन अपनी सुबह की देरी को कम्पनसेट करने के उद्देश्य से उसने शाम को जल्दी घर जाने की बात की। अधिकारी ने उस दिन आराम से जाने दिया तो अगले दिन से उसने जल्दी जाने का अधिकार अपने गमछे में खोंस लिया और प्रतिदिन जल्दी जाने लगा।

आप सोचेंगे कि अधिकारी से मिलने वाले हर लाभ के बाद वह बेहतर होता गया होगा लेकिन हुआ इसका उलट। न तो उसके काम की गलतियों में कोई सुधार हुआ, न ही उसके नाजायज अक्खड़पन में कोई कमी आई। कुछ दिन बाद जब उसके लंच से वापस आने का समय उसके स्वास्थ्य की अनिवार्यता, यानी टेबल टेनिस के खेल के कारण बढ़ गया तो अधिकारी ने उसे कुछ कहे बिना भविष्य में कोई रियायत न देने का निश्चय किया।

एक दिन उसने बताया कि घर में चल रही पुताई के कारण वह लंचटाइम में ही घर चला जाएगा। अधिकारी को क्या एतराज़ होता, उसने विनम्रता से बता दिया कि छुट्टियाँ उसकी कमाई हुई हैं, आधा दिन की ले या पूरे दिन की, उसकी मर्ज़ी। छुट्टी का नाम सुनते ही वह गरम हो गया। शोर-शराबा सुनकर टेबल टेनिस के कुछ दबंग कामरेड भी मौका-ए-वारदात पर पहुँच गए। जिन्होंने सरकारी बैंक में काम किया हो उन्हें पता ही होगा कि बैंकिंग चुटकुलों में अधिकारियों का प्रयोग अक्सर ताश के जोकर की तरह किया जाता है। सो एकाध महारथी ने अपने मित्र के पक्ष में घिसे हुये चुटकुले जैसा कुछ कहा। अधिकारी ने उसके अधूरे ज्ञान वाले चुट्कुले वाला पूरा उपन्यास बाँच दिया। एकाध साथी ने वैज्ञानिक तर्क दिये, तो उनके आगे वैज्ञानिक निष्कर्ष रख दिये गए। फिर शाखा के सबसे भारी बोझ ने अपने वजन का प्रयोग किया तो इस छोटे से अधिकारी ने उसी के वजन और मूमेंटम का तात्कालिक प्रयोग करते हुए उसे काउंटर की दीवार पे दोहरा हो जाने दिया। कराहता हुआ बोझ अपनी सीट पर जाकर बड़बड़ाते हुए स्टाफ सेक्शन के नाम एक हाथापाई की शिकायत लिखने लगा।

बात हाथ से निकलते देखकर झुमकेचल प्रसाद जी अधिकारी को बताने लगे कि वे रोज़ जल्दी भले चले जाते हों, अपना सारा काम सही-सही पूरा करके जाते हैं। बात गलत थी सो अधिकारी ने रिजेक्ट कर दी। झुमकेचल की आवाज़ फिर ऊँची हो गई। गरजकर बोला "मेरे काम में एक भी कमी निकाल कर दिखा दो।" अधिकारी ने उस महीने की बनाई उसकी विवरणियों के फोल्डर सामने रख दिये। हर पेज पर लाल स्याही से ठीक की हुई कम से कम एक गलती चमक रही थी। कहीं स्पेलिंग, कहीं संख्या, कहीं जोड़, कहीं कोड, कहीं कुछ और। क्षण भर में झुमकेचल का चेहरा, शरीर, हाव-भाव, सब ऐसा हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर दस जूते मारे हों। उसने मरी हुई आवाज़ में पूछा, "लेकिन आपने इसके लिए कभी डाँटा भी नहीं, न मुझसे कभी ठीक कराया।"

खैर, बंदा एकदम सुधर गया। जाने से पहले उसने छुट्टी की अर्ज़ी अधिकारी के सामने रख दी जो अधिकारी ने अपने विवेक से निरस्त भी कर दी। कुछ दिन बाद जब वह अधिकारी व्यक्तिगत काम से एक हफ्ते की छुट्टी पर गया तो उसके वापस आते ही झुमकेचल ने सबसे पहले अपने अधिकारी से उसके सब्स्टिट्यूट की शिकायत की, "मैंने बस 15 मिनट पहले जाने के लिए पूछा तो बोले सारा काम सही-सही पूरा करके चले जाना और जब सब कर दिया तो कहने लगे कि जाओ सीनियर मेनेजर से पर्मिशन ले लो।"

"आज चले जाना" कहकर अधिकारी मुस्करा दिया। पहाड़ ऊँट से ऊँचा हो गया था।
निष्कर्ष: शेर अगर हिरण को न खाये तो उसका मतलब ये नहीं होता कि हिरण शेर से ताकतवर हो गया है। इसका अर्थ ये है कि शेर शाकाहारी है। लेकिन हिरण तेंदुए से फिर भी काम नहीं निकलवा सकता।

Monday, October 13, 2008

करमा जी की टुन्न-परेड

बात तब की है जब मैं दिल्ली में नौकरी करने आया था। नौकरी के साथ एक घर भी मिला था और साथ में थोड़ा-बहुत फर्नीचर भी। मगर मैट्रेस आदि तो खुद ही खरीदना था। मेरे एक सहकर्मी ने कहा कि वह मुझे अपनी कार से नज़दीक के बाज़ार ले चलेगा और हम गद्दों को कार के ऊपर बाँध कर घर ले आयेंगे। सहकर्मी का नाम जानने से कोई फायदा नहीं है। सुविधा के लिए हम उन्हें 'फितूर साहब' कह सकते हैं। फितूर साहब वैसे तो अच्छे परिवार से थे मगर कोई ज़्यादा भरोसे के आदमी नहीं थे। उनकी संगत भी ख़ास अच्छी नहीं थी। उम्र में मुझसे दसेक साल बड़े थे, लेकिन मेरे मातहत होने के नाते मेरी काफी इज्ज़त करते थे। मुझे दिल्ली के बाज़ारों की बहुत जानकारी नहीं थी, भाव-तोल करना भी नहीं आता था और ऊपर से वाहन के नाम पर सिर्फ़ एक स्कूटर था। इसलिए मैंने फितूर साहब की बात मान ली।

तय हुआ कि इस शनिवार की शाम को मैं उनके घर आकर वहाँ से उनके साथ उनकी कार में चल दूंगा। शनिवार के दिन हमारा दफ्तर आधे दिन का होता था इसलिए मुझे भी कोई मुश्किल नहीं थी। तो साहब शाम को जब मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी, बच्चे और माताजी से मुलाक़ात हुई मगर वे कहीं नज़र नहीं आए। जब पूछा तो उनकी माँ ने झुंझलाते हुए कहा, "बरसाती में बैठा है मंडली के साथ, देख लो जाकर।"

मैं ऊपर गया तो पाया कि दफ्तर के कई सारे उद्दंड कर्मचारी एक-एक गिलास थामे लम्बी-लम्बी फैंक रहे थे। दो बाल्टियों में बर्फ में गढ़ी हुई कुछ बोतलें थीं और कुछ बोतलें किनारे की बार में करीने से लगी हुई थीं। फितूर साहब ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मेरे लिए विशेष रूप से नरम-पेय की व्यवस्था भी थी। मैंने महसूस किया कि एकाध लोगों को वहाँ पर एक नरम-पेय वाले व्यक्ति का आना अच्छा नहीं लगा। उनका अपना घर होता तो शायद दरवाजा बंद भी कर देते मगर फितूर साहब के सामने चुपचाप बैठे रहे।

मेहमानों में मेरे एक और मुरीद भी थे। अजी नाम में क्या रक्खा है? फ़िर भी आप जिद कर रहे हैं तो उन्हें 'करमा जी' कहकर पुकार लेते हैं। करमा जी के हाथ में सबसे बड़ा गिलास था और वह ऊपर तक लबालब भरा हुआ था। बाकी सारी भीड़ रह-रह कर करमा जी की "कैपसिटी" की तारीफ़ कर रही थी। मुझे इतना अंदाज़ तो हो गया था कि उन लोगों की सभा लम्बी चलने वाली थी। कोक की बोतल ख़त्म करते-करते मुझे यह भी पता लगा कि पीने के बाद वे सभी भंडारा रोड पर डिनर करने जा रहे थे।

मेरा वहाँ और अधिक रुकने का कोई कारण न था। सो अपना पेय निबटा कर मैं उठा। मेरा इरादा ताड़कर फितूर साहब उठे और जिद करने लगे कि मैं डिनर उन लोगों के साथ करुँ तभी तो मेरे सहकर्मियों से मेरी जान-पहचान हो सकेगी। मेरे न करने पर वे मेरा हाथ पकड़कर बोले, "आप चले जाओगे तो हम सब का दिल टूट जायेगा", फ़िर कान के पास फुसफुसाते हुए बोले, "बिल इस करमा जी के बच्चे से लेंगे, हमेशा आकर मुफ्त की डकारता रहता है। बहुत पैसा लगता है मेरा इसकी दारू में।" सुनकर मुझे अजीब सा लगा। पीने वालों का दिल साफ़ होने के बारे में काफी अफवाहें उड़ती रहती थीं, मगर उनसे साक्षात्कार पहली बार हो रहा था। मुझे फितूर साहब के दोमुँहेपन पर क्रोध भी आया और करमा जी से सहानुभूति भी हुई।

थोड़ी देर और पीने के बाद सब लोगों ने अपने-अपने दुपहिये उठाये और गंतव्य पर निकल पड़े। मैं अपना स्कूटर फितूर साहब के घर छोड़कर उनकी कार में गया। रेस्तराँ छोटा सा था मगर देखने से ही पता लग रहा था कि काफी महँगा होगा। इस रेस्तराँ में शराब परोसने का लाइसेंस नहीं था मगर रसूख वाली जगह और करमा जी की पहुँच के कारण इन सब के लिए उनकी पसंद के पेय लाये गए। करमा जी मेरे ठीक सामने बैठे थे। जब वे कबाब खा रहे थे तो एक साथी ने बताया कि करमा जी वैसे तो शुद्ध शाकाहारी हैं मगर शराब पीने के बाद वे कबाब को शाकाहार में ही शामिल कर लेते हैं। कबाब ज़मीन पर गिरने के बाद पहले उनके हाथ से गिलास छूटकर नीचे गिरा और फ़िर आँखें गोल-गोल घुमाते हुए वे ख़ुद ही मेज़ पर धराशायी हो गए। मैंने ज़िंदगी में पहली बार किसी को टुन्न होते हुए देखा था और यकीन मानिए मेरे लिए वह बड़ा रोमांचकारी अनुभव था।

मुझे तो कोई ख़ास भूख नहीं थी मगर बाकी सब लोगों ने छक कर खाया-पीया और बिल करमा जी के खाते में डालकर बाहर आ गए। जैसे-तैसे, गिरते-पड़ते करमा जी भी बाहर आए। सभी लोग पान खाने चले गए मगर करमा जी बड़ी कठिनाई से फितूर साहब की कार का सहारा लेकर खड़े हो गए। दो मिनट बाद जब वे गिरने को हुए तो इस गिरोह के अकेले सभ्य आदमी गंजी शक्कर ने सहारा देकर उन्हें कार में बिठा दिया। अपनी अर्ध-टुन्न भलमनसाहत में गंजी शक्कर यह नहीं देख सका कि करमा जी गिर नहीं रहे थे बल्कि शराब-कबाब आदि के कॉम्बिनेशन को उगलकर धरती माता के आँचल को अपने प्यार से सनाना चाह रहे थे। जब तक गंजी शक्कर जी समझते, दो बातें एकसाथ हो गयीं। इधर फितूर साहब पान खाकर आ गए और उधर उनकी कार में बैठे करमा जी ने पीछे की सीट पर उल्टी कर दी।

कॉमेडी को ट्रेजेडी में बदलते देर न लगी। फितूर साहब ने गालियों का शब्दकोष करमा जी पर पूरा का पूरा उड़ेल दिया। बाकी लोग भी जोश में आ गए। खाना-पीना सब हो ही चुका था। अब फुर्सत का समय था। गिरोह दो दलों में बँट चुका था। एक में मैं और गंजी शक्कर थे जो कि करमा जी की दयनीय दशा को ध्यान में रखकर उन्हें कार से घर छोड़ने के पक्ष में थे। अपने स्कूटर पर जाने की उनकी हालत न थी और इस टुन्न हालत में दिल्ली के नाकाबिले-भरोसा ऑटो-रिक्शा में अकेले भेजने का मतलब उनकी घड़ी, चेन, अंगूठी, ब्रेसलेट आदि से; शायद उनकी जान से भी, निजात पाना हो सकता था। मगर दूसरा दल उनकी जान वहीं पर, उसी वक़्त लेना चाहता था। मैं अकेला होश में था इसलिए जब मैंने फितूर साहब को कंधे पकड़कर ज़ोर से झिंझोडा तो मेरी बात उन्हें तुरंत समझ में आ गयी। चूंकि गंजी शक्कर इस दुर्घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था इसलिए पीछे की सीट पर बैठकर करमा जी को संभालने का काम उसीके हिस्से में आया।

फितूर साहब ने बड़बड़ाते हुए गाडी भंगपुरा की और दौड़ा दी। नशे में धुत तीनों लोग एक दूसरे पर वाक्-प्रहार करते जा रहे थे। तीन शराबियों को एक साथ झगड़ा करते और बीच-बीच में फलसफा झाड़ते देख-सुन कर काफी मज़ा आ रहा था। कुछ ही देर में हम भंगपुरा में थे मगर करमा जी का घर किसी ने न देखा था। हर चौराहे से पहले फितूर साहब अपनी गाड़ी रोकते और गुस्से से पूछते, "करमा जी, कित्थे जाणा है?"

पीछे की सीट से करमा जी उनींदे से अपने दोनों हाथों से हवा में तलवार सी भाँजते हुए उत्तर देते, "सज्जे-खब्बे, ...  लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"

झख मारकर फितूर साहब किसी भी तरफ़ गाड़ी मोड़ लेते और अगले चौराहे पर फ़िर वही सवाल होता और करमा जी उसी तरह उनींदे से आभासी तलवार चलाते हुए दोहराते, "सज्जे-खब्बे, लेफ्ट-राइट-लेफ्ट।"

करीब आधे घंटे तक भंगपुरा की खाक छानने के बाद फितूर साहब ने एक वीरान सड़क पर कार रोकी और गंजी शक्कर ने दरवाजा खोलकर करमा जी को बाहर धकेल दिया। करमा जी भी रुके बिना सामने की एक अंधेरी गली में गिरते पड़ते गुम हो गए।

उस रात मैं ठीक से सो न सका। रात भर सोचता रहा कि न जाने करमा जी किस नाली में पड़े होंगे। अगले दिन जब दफ्तर पहुँचा तो पाया कि करमा जी पहले से अपनी सीट पर बैठे हुए कागजों से धींगामुश्ती कर रहे थे। कहना न होगा कि गद्दे मैंने बाद में एक दिन ख़ुद जाकर ही खरीद लिए और दूकानदार ने उसी दिन घर भी पहुँचा दिए।