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Sunday, November 6, 2011

क्रोध पाप का मूल है ...

काम क्रोध मद लोभ की, जब लौ मन में खान।
तब लौ पण्डित मूर्खौ, तुलसी एक समान॥
~ तुलसीदास
त्स्कूबा में एक समुराई वीर
भाई मनोज भारती की चार पुरुषार्थों पर सुन्दर पोस्ट पढी। उन्होंने शास्त्रों में वर्णित चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का विस्तार से ज़िक्र किया। सन्दर्भ में काम, क्रोध आदि दोषों की बात भी सामने आयी। उससे पहले पिछले दिनों क्रोध एवम अन्य दुर्गुणों पर ही शिल्पा मेहता की तीन प्रविष्टियाँ  दिखाई दीं। इन स्थानों पर जहाँ क्रोध के दुष्परिणामों की बात कही गयी है वहीं एक बिल्कुल अलग ब्लॉग पर लिखी प्रविष्टियों और टिप्पणियों में क्रोध का बाकायदा महिमामण्डन किया गया है। सच यह है कि क्रोध सदा विनाशक ही होता है। क्रोध जहाँ फेंका जाये उसकी तो हानि करता ही है, जिस बर्तन में रहता है उसे भी छीलता रहता है। इसी विषय पर स्वामी बुधानन्द की शिक्षाओं पर आधारित मानसिक हलचल की एक पुराने आलेख में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने क्रोध से बचने या उसपर नियंत्रण पाने के उपायों का सरल वर्णन किया है।
दैव संशयी गांठ न छूटै, काम-क्रोध माया मद मत्सर, इन पाँचहु मिल लूटै। ~ रविदास
भारतीय संस्कृति में जहाँ धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ काम्य हैं, उसी प्रकार बहुत से मौलिक पाप भी परिभाषित हैं। कहीं 4, कहीं 5, कहीं 9, संख्या भिन्न हो सकती है लेकिन फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, यह चार दुर्गुण सदा ही पाप की सूची में निर्विवाद रहे हैं।

वांछनीय = चार पुरुषार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
अवांछनीय = चार पाप = काम, क्रोध, लोभ, मोह

क्रोध, लोभ, मोह जैसे दुर्गुणों के विपरीत कामना अच्छी, बुरी दोनों ही हो सकती है। जीते-जी क्रोध, लोभ, और मोह जैसे दुर्गुणों से बचा जा सकता है परंतु कामना से पीछा छुड़ाना कठिन है, कामना समाप्त तो जीवन समाप्त। इसलिये सत्पुरुष अपनी कामना को जनहितकारी बनाते हैं। जहाँ हम अपनी कामना से प्रेरित होते हैं, वहीं संत/भक्त प्रभु की कामना से - जगत-हितार्थ। बहुत से संत तब आत्मत्याग कर देते हैं जब उन्हें लगता है कि या तो उद्देश्य पूरा हुआ या समय। इसलिये काम अवांछनीय व काम्य दोनों ही सूचियों में स्थान पाता रहा है।
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल।
जेहिबस जन अनुचित करहिं चलहिं विश्व प्रतिकूल॥
~ तुलसीदास
गीता के अनुसार रजोगुणी व्यक्तित्व की अतृप्त अभिलाषा 'क्रोध' बन जाती है। गीता में ही क्रोध, अहंकार, और द्रोह को अवांछनीय बताया गया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भी क्रोध हमारे आंतरिक शत्रुओं में से एक है। ॠग्वेद में असंयम, क्रोध, धूर्तता, चौर कर्म, हत्या, प्रमाद, नशा, द्यूतक्रीड़ा आदि को पाप के रुप में माना गया है और इन सबको दूर करने के लिए देवताओं का आह्वान किया गया है। ईसाइयत में भी क्रोध को सात प्रमुख पापों में गिना गया है। मनुस्मृति के अनुसार धर्म के दस मूल लक्षणों में एक "अक्रोध" है। धम्मपद की शिक्षा अक्रोध से क्रोध को, भलाई से दुष्टता को, दान से कृपणता को और सत्य से झूठ को जीतने की है। संत कबीर ने क्रोध के मूल में अहंकार को माना है।
कोटि करम लोग रहै, एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार॥
~ कबीरदास
क्रोध के विषय में एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अक्रोध के साथ किसी आततायी का विवेकपूर्ण और द्वेषरहित प्रतिरोध करना क्रोध नहीं है। इसी प्रकार भय, प्रलोभन अथवा अन्य किसी कारण से उस समय क्रोध को येन-केन दबा या छिपाकर शांत रहने का प्रयास करना अक्रोध की श्रेणी में नहीं आएगा। स्वयं की इच्छा पूर्ति में बाधा पड़ने के कारण जो विवेकहीन क्रोध आता है वह अधर्म है। अत: जीवन में अक्रोध का अभ्यास करते समय इस अत्यंत महत्वपूर्ण अंतर को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। अंतर बहुत महीन है इसलिये हमें अक्सर भ्रम हो जाते हैं। क्रोध शक्तिहीनता का परिचायक है, वह कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
क्रोध पाप ही नहीं, पाप का मूल है। अक्रोध पुण्य है, धर्म है, वरेण्य है। ~भालचन्द्र सेठिया
क्रोध एवम क्षमा का तो 36 का आंकड़ा है। क्रोधजनित व्यक्ति के हृदय में क्षमा का भाव नहीं आ सकता। बल्कि अक्रोध और क्षमा में भी बारीक अंतर है। अक्रोध में क्रोध का अभाव है अन्याय के प्रतिकार का नहीं। अक्रोध होते हुए भी हम अन्याय को होने से रोक सकते हैं। निर्बलता की स्थिति में रोक न भी सकें, प्रतिरोध तो उत्पन्न कर ही सकते हैं। जबकि क्षमाशीलता में अन्याय कर चुके व्यक्ति को स्वीकारोक्ति, पश्चात्ताप, संताप या किसी अन्य समुचित कारण से दण्ड से मुक्त करने की भावना है। क्रोध ही पालने और बढावा देने पर द्रोह के रूप में बढता जाता है।
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥
~कबीरदास
आत्मावलोकन और अनुशासन के बिना हम इन भावनात्मक कमज़ोरियों पर काबू नहीं पा सकते हैं। भावनात्मक परिपक्वता और चारित्रिक दृढता क्रोध पर नियंत्रण पाने में सहायक सिद्ध होती हैं। लेकिन कई बार इन से पार पाना असम्भव सा लगता है। ऐसी स्थिति में प्रोफ़ेशनल सहायता आवश्यक हो जाती है। ज़रूरत है कि समय रहते समस्या की गम्भीरता को पहचाना जाये और उसके दुष्प्रभाव से बचा जाये। क्या आप समझते हैं कि क्रोध कभी अच्छा भी हो सकता है? यदि हाँ तो क्या आपको अपने जीवन से या इतिहास से ऐसा कोई उदाहरण याद आता है जहाँ क्रोध विनाशकारी नहीं था? अवश्य बताइये। साथ ही ऐसे उदाहरण भी दीजिये जहाँ क्रोध न होता तो विनाश को टाला जा सकता था। धन्यवाद!
क्रोध की उत्पत्ति मूर्खता से होती है और समाप्ति लज्जा पर ~पाइथागोरस


अगली कड़ी में देखिये
[मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग]



[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Samurai face captured by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पुरुषार्थ - गूंजअनुगूंज (मनोज भारती)
* ज्वालामुखी - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध और पश्चाताप - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें? - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* गुस्सा - डॉ. महेश शर्मा
* पाप का मूल है क्रोध - भालचन्द्र सेठिया
* क्रोध का दुर्गुण - कृष्णकांत वैदिक
* क्रोध आग और निंदा धुआँ - दीपक भारतदीप
* क्रोध से नुकसान - प्रयास
* anger
* क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात