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Wednesday, July 18, 2012

1857 के महानायक मंगल पांडे

19 जुलाई सन 1827 को बलिया जिले के नगवा ग्राम में जानकी देवी एवं सुदृष्टि पाण्डेय् के घर उस बालक का जन्म हुआ था जो कि भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखने वाला था। इस यशस्वी बालक का नाम रखा गया मंगल पाण्डेय। कुछ् सन्दर्भों में उनका जन्मस्थल अवध की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर ग्राम (अब ज़िला अम्बेडकरनगर का एक भाग) बताया गया है और उनके माता-पिता के नाम क्रमशः अभय रानी और दिवाकर पाण्डेय। इन सन्दर्भों के अनुसार फ़ैज़ाबाद के दुगावाँ-रहीमपुर के मूल निवासी पण्डित दिवाकर पाण्डेय सुरहुरपुर स्थित अपनी ससुराल में बस गये थे। कुछ अन्य स्थानों पर उनकी जन्मतिथि भी 30 जनवरी 1831 दर्शाई गई है। इन सन्दर्भों की सत्यता के बारे में मैं अभी निश्चित नहीं हूँ। यदि आपको कोई जानकारी हो तो स्वागत है।

प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रथम सेनानी मंगल पाण्डेय सन 1849 में 22 वर्ष की उम्र में ईस्ट इंडिया कम्पनी की बेंगाल नेटिव इंफ़ैंट्री की 34वीं रेजीमेंट में सिपाही (बैच नम्बर 1446) भर्ती हो गये थे। ब्रिटिश सेना के कई गोरे अधिकारियों की तरह 34वीं इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर भी ईसाई धर्म का प्रचारक था। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नियाँ, या वे स्वयं बाइबिल के हिन्दी अनुवादों को फारसी और भारतीय लिपियों में छपाकर सिपाहियों को बाँट रहे थे। ईसाई धर्म अपनाने वाले सिपाहियों को अनेक लाभ और रियायतों का प्रलोभन दिया जा रहा था। उस समय सरकारी प्रश्रय में जिस प्रकार यूरोप और अमेरिका के पादरी बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करने के लिये भारत में प्रचलित धर्मों का अपमान कर रहे थे, उससे ऐसी शंकाओं को काफ़ी बल मिला कि गोरों का एक उद्देश्य भारतीय संस्कृति का नाश करने का है। अमेरिका से आये पादरियों ने सरकारी आतिथ्य के बल पर रोहिलखंड में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। फ़तहपुर के अंग्रेज़ कमिश्नर ने नगर के चार द्वारों पर खम्भे लगवाकर उन पर हिन्दी और उर्दू में दस कमेन्डमेंट्स खुदवा दिए थे। सेना में सिपाहियों की नैतिक-धार्मिक भावनाओं का अनादर किया जाने लगा था। इन हरकतों से भारतीय सिपाहियों को लगने लगा कि अंग्रेज अधिकारी उनका धर्म भ्रष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे।

सेना में जब ‘एनफील्ड पी-53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का प्रयोग शुरू हुआ तो भारतीयों को बहुत कष्ट हुआ क्योंकि इन गोलियों को चिकना रखने वाली ग्रीज़ दरअसल पशु वसा थी और गोली को बन्दूक में डालने से पहले उसके पैकेट को दांत से काटकर खोलना पड़ता था। अधिकांश भारतीय सैनिक तो सामान्य परिस्थितियों में पशुवसा को हाथ से भी नहीं छूते, दाँत से काटने की तो बात ही और है। हिन्दू ही नहीं, मुसलमान सैनिक भी उद्विग्न थे क्योंकि चर्बी तो सुअर की भी हो सकती थी - अंग्रजों को तो किसी भी पशु की चर्बी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। कुल मिलाकर सैनिकों के लिये यह कारतूस काफ़ी रोष का विषय बन गये। सेना में ऐसी खबरें फैली कि अंग्रेजों ने भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए जानबूझकर इन कारतूसों में गाय तथा सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया है।

इन दिनों देश में नई हलचल दिख रही थी। छावनियों में कमल और गाँवों में रोटियाँ बँटने लगी थीं। कुछ बैरकों में छिटपुट आग लगने की घटनायें हुईं। जनरल हीयरसे जैसे एकाध ब्रिटिश अधिकारियों ने पशुवसा वाले कारतूस लाने के खतरों के प्रति अगाह करने का असफल प्रयास भी किया। अम्बाला छावनी के कप्तान एडवर्ड मार्टिन्यू ने तो अपने अधिकारियों से वार्ता के समय क्रोधित होकर इन कारतूसों को विनाश की अग्नि ही बताया था लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि, दिल्ली से लन्दन तक सत्ता के अहंकार में डूबे किसी सक्षम अधिकारी ने ऐसे विवेकी विचार पर ध्यान नहीं दिया।

26 फरवरी 1857 को ये कारतूस पहली बार प्रयोग होने का समय आने पर जब बेरहामपुर की 19 वीं नेटिव इंफ़ैंट्री ने साफ़ मना कर दिया तो उन सैनिकों की भावनाओं पर ध्यान देने के बजाय उन सबको बैरकपुर लाकर बेइज़्ज़त किया गया। इस घटना से क्षुब्ध मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च सन् 1857 को बैरकपुर में अपने साथियों को इस कृत्य के विरोध के लिये ललकारा और घोड़े पर अपनी ओर आते अंग्रेज़ अधिकारियों पर गोली चलाई। अधिकारियों के नज़दीक आने पर मंगल पाण्डेय ने उनपर तलवार से हमला भी किया। उनकी गिरफ्तारी और कोर्ट मार्शल हुआ। छह अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई।

This article was originally written by 
Anurag Sharma for pittpat.blogspot.com
मंगल पाण्डे की फांसी के लिए 18 अप्रैल की तारीख तय हुई लेकिन यह समाचार पाते ही कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ असंतोष भड़क उठा जिसके मद्देनज़र अंग्रेज़ों ने उन्हें आठ अप्रैल (8 अप्रैल 1857) को ही फाँसी चढ़ा दिया। 21 अप्रैल को उस टुकड़ी के प्रमुख ईश्वरी प्रसाद को भी फाँसी चढ़ा दिया। अंग्रेज़ों के अनुसार ईश्वरी प्रसाद ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार न करके आदेश का उल्लंघन किया था। इस विद्रोह के चिह्न मिटाने के उद्देश्य से चौंतीसवीं इंफ़ैंट्री को ही भंग कर दिया गया। इस घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर अंग्रेज़ों के अन्दाज़े के विपरीत भारतीय सैनिकों में भय के स्थान पर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। लगभग इसी समय नाना साहेब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई भी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ मैदान में थे। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के प्रथम नायक बनने का श्रेय मंगल पाण्डेय् को मिला।

एक भारतीय सिपाही मंगल पाण्डेय का साहस मुग़ल साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसे दो बडे साम्राज्यों का काल सिद्ध हुआ जिनका डंका कभी विश्व के अधिकांश भाग में बजता था। यद्यपि एक वर्ष से अधिक चले संघर्ष में अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाने और अनेक वीरों के प्राणोत्सर्ग के बाद अंततः हम यह लड़ाई हार गये लेकिन मंगल पाण्डेय और अन्य हुतात्माओं के बलिदान व्यर्थ नहीं गये। 1857 में भड़की क्रांति की यही चिंगारी 90 वर्षों के बाद 1947 में भारत की पूर्ण-स्वतंत्रता का सबब बनी। स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों ने सर्वस्व त्याग के उत्कृष्ट उदाहरण हमारे सामने रखे हैं। आज़ाद हवा में साँस लेते हुए हम सदा उनके ऋणी रहेंगे जिन्होंने दासता की बेड़ियाँ तोड़ते-तोड़ते प्राण त्याग दिये।

[आलेख: अनुराग शर्मा; चित्र: इंटरनैट से साभार]
सम्बन्धित कडियाँ
* अमर महानायक तात्या टोपे का लाल कमल अभियान
* प्रेरणादायक जीवन चरित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* शहीद मंगल पांडे के गाँव की शिनाख्त

Saturday, March 26, 2011

शिक्षा और ईमानदारी

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पहले सोचा था कि आज लखनऊ विकास प्राधिकरण में ईमानदारी के साथ मेरे प्रयोग के बारे में लिखूंगा परंतु फिर पांडेय जी की पोस्ट
डिसऑनेस्टतम समय – क्या कर सकते हैं हम? पर भारतीय नागरिक की टिप्पणी पर ध्यान चला गया। इसमें और बातों के साथ एक विचारणीय मुद्दा शिक्षा का भी था:

"हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं."

हम सभी अमूमन यह मानते हैं कि स्कूली शिक्षा हमें बुराइयों से बाहर निकालेगी। भारतीय नागरिक का अनुभव ऐसा नहीं लगता। मेरा अनुभव तो निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। देश के प्रशासन में बेईमानी इस तरह रमी हुई है कि इससे गुज़रे बिना एक आम भारतीय का जीना असम्भव सा ही लगता है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी पढे लिखे लोगों पर ही है। अगर शिक्षा ईमानदार बनाती तो यह शिक्षित वर्ग रोज़ ईमानदारी के नये उदाहरण सामने रख रहा होता और बेईमानी हमारे लिये विचार-विमर्श का विषय नहीं होती। कई लोग कहते हैं कि देश की जडें काटने का काम पढे लिखे लोगों ने सबसे अधिक किया है। अपने निहित स्वार्थ और सत्ता, पद और धन की लोलुपता के लिये देश का बंटवारा करके अलग पाकिस्तान बनाने की हिमायत करने वाले अनपढ लोग नहीं बल्कि बडे-बडे बैरिस्टर, शिक्षाविद, और साहित्यकार आदि थे। बस मैं गवर्नर-जनरल बन जाऊँ, चाहे इसके लिये मुझे "सारे जहाँ से अच्छा" वतन काटना पडे और इस विभाजन में चाहे दसियों लाख लोगों को अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पडे। केवल स्कूली शिक्षा इस आसुरी विचार को काबू नहीं कर सकती है।

कुछ स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा भले ही जोड दी गयी हो मगर "जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है..." का शायराना विचार वास्तविक जीवन में चलता नहीं है। बच्चे बडों को देखकर सीखते हैं। जब तक हम बडे मनसः वाचः कर्मणः ईमानदार होने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम यह मूल्य अपने बच्चों तक नहीं पहुँचा सकते हैं। "कैसे कैसे शिक्षक" में मैने "तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना" वाले शिक्षक का उदाहरण दिया था। उन्हीं के एक सहकर्मी थे एमकेऐस। भावुकहृदय कवि, चित्रकार, अभिनेता और अध्यापक। मैने इन कलाकार को अपने एक मित्र से कहते सुना, "एक नागरिक के रूप में मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरा बेटा ईमानदार बने परंतु एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ कि दुनिया उसे ईमानदारी से जीने नहीं देगी इसलिये मैं उसे दुनियादारी (बेईमानी?) सिखाता हूँ। एक और अध्यापक जी अपने वेतन के बारे में शिकायत करते हुए कह रहे थे, "उन्होने हमें पैसे नहीं दिये, हमने उन्हें संस्कार नहीं दिये।" ये शिक्षक अपने छात्रों (और बच्चों) को डंके की चोट पर बेईमानी सिखा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में से ऐसे लोगों की छँटाई की गहन आवश्यकता है।

अक्टूबर 2010 में टाटा समूह ने अमेरिका के प्रतिष्ठित हारवर्ड बिज़नैस स्कूल को पाँच करोड डॉलर (225 करोड रुपये) दान किये। ज़रा सोचिये कि इतने पैसे से गरीबी रेखा के नीचे रह रहे कितने भारतीयों की किस्मत बदली जा सकती थी। उनसे पहले इसी संस्था को महिन्द्रा समूह भी एक बडा दान दे चुका था। हारवर्ड की तरह ही एक और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, येल। 1861 में अमेरिका की पहली पीऐचडी सनद येल विश्वविद्यालय ने ही दी थी। 1718 में येल कॉलेज का नामकरण हुआ था इसके सबसे बडे दानदाता (500 पौंड) ईलाइहू येल के नाम पर। ईलाइहू येल भारत (मद्रास) में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर था। अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों की तरह येल भी सिर से पैर तक भ्रष्ट था। उसके समय में मद्रास में बच्चों की चोरी और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने की समस्या अचानक से बढ गयी थी। वैसे तो ईस्ट इंडिया कम्पनी में भ्रष्टाचार को पूरी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी लेकिन येल इतना भ्रष्ट थी कि भ्रष्ट कम्पनी ने भी उसे भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से निकाल दिया।

जिन्होने श्रीसूक्त पढा होगा वे लक्ष्मी और अलक्ष्मी शब्दों से परिचित होंगे। धन अच्छा या बुरा होता है। मगर शिक्षा? ईशोपनिषद का वाक्य है:

अन्धंतमः प्रविशंति येविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः

अविद्या के उपासक तो घोर अन्धकार में जाते ही हैं, विद्या के उपासक उससे भी गहरे अन्धकार में जाते हैं।

ईमानदारी किसी स्कूल में पढाई नहीं जाती, हालांकि पढाई जानी चाहिये। गुरुर्देवो भव: से पहले यह मातृदेव और पितृदेव की भी ज़िम्मेदारी है। ईमानदारी सृजन की, उत्पादन की, सक्षमता की बात है न कि कामचोरी, सीनाज़ोरी, पराक्रमण, कब्ज़ेदारी, या गुंडागर्दी की। हम जो काम करें उसमें अपना सर्वस्व लगायें, बिना यह गिने कि बदले में क्या मिला। जितना पाया, उससे अधिक देने की इच्छा ईमानदारी है न कि "जितना पैसा उतना (या कम) काम" की बात। भारतीय नागरिक की बात पर वापस आयें तो दैनन्दिन जीवन में लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठे बिना ईमानदार होना असम्भव नहीं तो कठिन सा तो है ही। दुर्भाग्य से आज शिक्षा भी एक व्यवसाय बन गयी है जिसमें अंततः लाभ की बात आ ही जाती है। जहाँ लाभ सामने है वहाँ लोभ भी पीछे नहीं रहता। फिर शिक्षा ईमानदारी कैसे बरते और कैसे सिखाये? धन के बिना संस्थान चल नहीं सकता और धन का प्रश्न हटाये बिना ईमानदारी कैसे आयेगी? यही मुख्य प्रश्न है। हम सब को इसके बारे में सोचना है कि ईमानदारी एक आर्थिक मुद्दा है या व्यवहारिक? मेरी नज़र में ऐसी समस्यायें अति-आदर्शवाद से पैदा होती हैं जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं। जनजीवन में ईमानदारी लानी है तो इस अव्यवहारिकता से निपटना होगा। मुद्दा काफी स्थान मांगता है इसलिये अभी इतना ही कहकर आगे कहीं विस्तार देने का प्रयास करूंगा। इस विषय पर आपके विचारों का सदा स्वागत है।

अरविन्द मिश्र जी ने मेरी एक पिछली पोस्ट में टिप्पणी करते हुए कहा,

ईमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं! क्या सरकारी सेवा में रहकर ज्ञानदत्त जी खुद की ईमानदारी का स्व-सार्टीफिकेट दे सकते हैं - यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति ..... इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो जैसा कि आपने एक दो उदहारण दिये हैं!

दंड विधान की कठोरता, निजी आचरण और व्यक्ति सापेक्षता की बात एक नज़र में ठीक लगती है। जहाँ तक ईमानदार बने रहने की मुश्किलों की बात है, यह सच है कि ईमानदारी कमज़ोरों का खेल नहीं है, बहुत दम चाहिये। किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना तो शायद अविनय हो मगर मैं इस बात से घोर असहमति रखता हूँ कि सरकारी सेवा में रहना भर ही किसी इंसान को बेईमान करने के लिये काफी है। ऐसा कर्मी यदि प्राइवेट नौकरी में हो और स्वामी लोभी हो तब? ईस्ट इंडिया कम्पनी में ईलाइहू येल? तब तो बेईमानी का बहाना और भी आसान हो जायेगा। अगर कई नौकरपेशाओं के लिये ईमानदारी एक बडी समस्या बन रही है तो इसका हल खोजने में अधिक समय, श्रम और संसाधन लगाये जाने चाहिये। मगर असम्भव कुछ भी नहीं है। इस विषय पर आगे विस्तार से बात होगी। तो भी यहाँ दोहराना चाहूंगा कि ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। ईमानदारी बडे दिल वालों का काम है, भले ही वे सरकारी नौकरी में हों या असरकारी पद पर हों।

[एक ईमानदार भारतीय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण के बेईमानों के गिरोह का सामना कैसे किया, इस बारे में फिर कभी किसी अगली कडी में।]

Friday, November 19, 2010

1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

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मणिकर्णिका दामोदर ताम्बे (रानी लक्ष्मी गंगाधर राव)
(१९ नवम्बर १८३५ - १७ जून १८५८)

मात्र 23 वर्ष की आयु में प्राणोत्सर्ग करने वाली झांसी की वीर रानी लक्ष्मी बाई के जन्मदिन पर अंतर्जाल से समय समय पर एकत्र किये गये कुछ चित्रों और पत्रों के साथ ही सेनानी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ओजस्वी कविता के कुछ अंश:

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी - 1850 में फोटोग्राफ्ड 

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
युद्धकाल में रानी लिखित पत्र 

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
युद्धकाल में रानी लिखित पत्र

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी का पत्र डल्हौज़ी के नाम

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
मनु के विवाह का निमंत्रण पत्र

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अमर चित्र कथा का मुखपृष्ठ्

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

झांसी की रानी की आधिकारिक मुहर 
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

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Monday, July 19, 2010

यह सूरज अस्त नहीं होगा!


(19 जुलाई 1827 --- 8 अप्रैल 1857)

जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, वह हमेशा के लिये डूब गया. सिर्फ एक सिपाही ने गोली चलाने का साहस किया और यह असम्भव घटना इतिहास में दर्ज़ हो गयी. उसी सिपाही की गोली का एक साइड इफ़ेक्ट यह भी हुआ कि विश्व के सबसे धनी मुगल साम्राज्य का भी खात्मा हो गया. एक सिपाही का साहस ऐसे दो बडे राजवंशों का काल सिद्ध हुआ जिनका डंका कभी विश्व के अधिकांश भाग में बजता था.

इतिहास भी कैसी-कैसी अजब करवटें लेता है – क्या इत्तफाक़ है कि 1857 की क्रांति को भडकाने वाली एनफील्ड राइफल के लिये पशु-वसा में लिपटी उस गोली को बनाने वाली एनफील्ड कम्पनी इंग्लैंड में अपनी दुकान कबकी समेट चुकी है परंतु भारत में अभी भी गोली (बुलेट मोटरसाइकिल) बना रही है.



1857 के स्वाधीनता संग्राम की पहली गोली चलाने वाले अमर शहीद मंगल पांडे के जन्म दिन पर नमन! मृत्युदंड के समय वे 29 वर्ष के थे.

मंगल पाण्डेय की भूमिका में आमिर खान

[सभी चित्र इंटरनैट से साभार]
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श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
प्रेरणादायक जीवन चरित्र