Sunday, April 18, 2010

एक और इंसान - कहानी

भारत में रहते हुए हम सब गरीबी और भिक्षावृत्ति से दो-चार होते रहे हैं. पहले कभी वर्षा के ब्लॉग पर कभी इसी बाबत एक लेख पढ़ा था, "बात पैसों की नहीं है". वर्षा ने उस लेख में सामान्यजन की दुविधा और मनस्थिति का अच्छा वर्णन किया था. लगभग उन्हीं दिनों मैंने भिखारिओं पर दिल्ली-प्रवास के अपने अनुभवों को एक कहानी का रूप दिया था जो बाद में आत्माराम जी के अनुग्रह से गर्भनाल में आयी. जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. बताइये कैसा रहा यह प्रयास.

एक और इंसान

“खिल्लू दम्भार मर गया साहब!”

अधबूढ़े का यह वाक्य अभी भी मेरे कानों में गूंज रहा है। वैसे तो मेरे काम में सारे दिन ही कठिन होते हैं मगर आज की बात न पूछो। आज का दिन कुछ ज़्यादा ही अजीब था। सारा दिन मैं अजीब-अजीब लोगों से दो-चार होता रहा। सुबह दफ्तर पहुँचते ही मैले कुचैले कपड़े वाला एक आदमी एक गठ्ठर में सूट के कपड़े लेकर बेचने आया। दाम तो कम ही लग रहे थे। मगर जब उसने बड़ी शान से उनके सस्ते दाम का कारण उनका चोरी का होना बताया तो मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने पुलिस बुलाने की बात की तो वह कुछ बड़बड़ाता हुआ तुरंत रफू चक्कर हो गया।

वह आदमी गया ही होगा कि डेढ़ हाथ का घूंघट काढ़े एक औरत एक-डेढ़ बरस के बच्चे को गोद में लिए हुए तेज़ी से अन्दर आने लगी। दरवाज़े पर बैठे गफ़ूर ने उसको रोकने की कोशिश की तो वह रोने लगी। मैंने बाहर आकर पूछा तो उसने बताया कि उसे बरेली जाना है और उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं हैं। जब मैंने पूछा कि वह दिल्ली कैसे पहुँची और बच्चे का बाप कहाँ है तो वह फिर से फूट-फूट कर रोने लगी। सुबह की पहली चाय लाते हुए कैंटीन वाले बहादुर ने जब एक कप उसकी ओर बढ़ाया तो उसने झपटकर ले लिया और जोर की आवाज़ के साथ जल्दी-जल्दी चाय सुड़कनी शुरू कर दी। शायद उसे भूखा समझकर बहादुर एक प्याली में कुछ रस्क ले आया जो उसने चाय में भिगो-भिगोकर स्वाद लेकर खाए। बच्चा आराम से गोद में सोता रहा। मैं उस औरत की सहायता करना चाहता था मगर पहले इतनी बार ठगा जा चुका था कि अब मैं किसी अनजान को नकद पैसे हाथ में नहीं देता हूँ। मैंने गफ़ूर को अलग ले जाकर उसे दो सौ रुपये देकर उस औरत के साथ बस अड्डे जाकर टिकट खरीदकर बरेली की बस में बिठाने को कहा। फिर बाहर आकर उस औरत को राहखर्च के लिए पचास रुपये अलग से देकर सब समझा दिया। मुझे नेहरू प्लेस ब्रांच-विज़िट के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं उस औरत की ज़िम्मेदारी गफ़ूर पर छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गया।

नेहरू प्लेस में सब काम ठीक से निबट गया। ब्रांच में अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिला और खाना उनके साथ ही खाया। वापसी के लिए ऑटोरिक्शा लेकर उसमें बैठा। अगले चौराहे तक पहुँचा ही था कि ट्रैफिक की बत्ती लाल हो गयी। तभी बंजारन सी दिखने वाली दो भिखारिनें मेरे पास आयीं। मैं सोचने लगा कि जब तक हमारी राजधानी की सड़कें आवारा गायों और भिखारियों से पटी रहेंगी तब तक न तो इन सड़कों पर वाहन चल पायेंगे और न ही खाते-पीते लोग गरीबों को इंसान समझ सकेंगे। मुझे कभी समझ नहीं आया कि यह भिखारी लोग सैकड़ों लोगों की भीड़ में से एक नरमदिल इंसान को कैसे पहचान लेते हैं। इस बार मैंने भी दिल कड़ा कर लिया था। उनके पास आते ही मैंने उनकी ओर देखे बिना बेरुखी से कहा, “माफ़ करो, छुट्टा नहीं है मेरे पास।”

“मदद कर दो बाबूजी, उसे बच्चा होने को है, लेडी हार्डिंग अस्पताल ले जाना है, वरना मर जायेगी।”

कहते-कहते उसने सड़क के किनारे बैठी हुई एक अल्प-वसना युवती की ओर इशारा किया जिसके खुले पेट को देखते ही उसकी गर्भावस्था का पता लग रहा था। सड़क किनारे अधलेटी वह युवती ऐसे कराह रही थी मानो अत्यधिक पीड़ा में हो। उसे देखते ही मेरे मन में अपने सहकर्मी कुणाल का स्वर गूंजा, “तुझे तो कोई भी कभी भी बेवकूफ़ बना सकता है।”

मेरे दिमाग ने तेज़ी से काम करना शुरू किया और मैंने अपने ऑटो-रिक्शा ड्राइवर से इसरार किया कि अगर वह इन स्त्रियों को लेडी हार्डिंग अस्पताल तक ले जाए तो मैं उसे उनका किराया अग्रिम देकर यहाँ उतर जाउंगा। उसके हामी भरने पर मैंने अंदाज़े से लेडी हार्डिंग तक का किराया बटुए में से निकाला और उन औरतों से कहा कि मैं यहाँ उतर रहा हूँ और वे किराए की फ़िक्र मुझपर छोड़कर इस ऑटो-रिक्शा में अस्पताल तक चली जाएँ।

उनमें से एक औरत ने कहा, “इसमें बहुत धक्के लगते हैं, वो झेल नहीं सकती है। हमें टैक्सी करनी पड़ेगी। ३०० रुपये लगते हैं।”

बत्ती हरी हो गयी थी। साथ का यातायात चलने लगा था और पीछे वाले वाहनों ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया था। उन्हें टैक्सी का किराया भी पहले से मालूम है, इस बात से मेरा माथा ठनका। शायद उन्होंने मेरी झिझक का अंदाज़ लगा लिया था इसलिए जब तक मैं कुछ समझ पाता वे मेरे हाथ से रुपये लेकर सड़क के पार अपनी कराहती हुई साथन की ओर चली गयीं। मैं रास्ते भर इस विचार में उलझा रहा कि क्या उन्हें सचमुच अस्पताल जाना था या फिर यह भी ठगी की ही एक चाल थी। कनौट प्लेस के पास से गुज़रते समय मैंने उसी तरह की दो अन्य स्त्रियों को एक मोटरसाइकल वाले से रुपये लेते हुए देखा। नेहरू प्लेस की तरह ही यहाँ भी पास की पटरी पर एक लंबोदरा कराह रही थी। अब मुझे अपने ठगे जाने पर कोई शुबहा नहीं रहा था।

[क्रमशः]

Friday, April 2, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [7]

सपना एक क्षणिक पागलपन है जबकि पागलपन एक लंबा सपना है.
~आर्थर स्कोपेन्हौर (१७८८-१८६०)


आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]; खंड [2]; खंड [3]; खंड [4]; खंड [5]; खंड [6]

इस शृंखला को मैं जितना आगे बढ़ रहा हूँ, आपकी रोचक टिप्पणियों और जानकारी से लिखने का मज़ा बढ़ता जा रहा है.

स्वप्न में, देजा व्यू में बल्कि हमारे दिमाग में समय उस तरह एक रेखा में नहीं चलता है जैसे हम उसे मानते आये हैं. हाथ से नाक छूने के पिछले एक उदाहरण (संवेदी देरी) में और "ब्रेन टाइम" आलेख में हमने देखा कि काल की रैखिक गति की परिकल्पना का काल बीत चुका है. इसके अलावा दीवार की खिड़की में शीशा ढूंढना या चोरों की प्रकृति के बारे में विचार जैसे कार्यों में कोई इन्द्रियारोपित सीमाएं भी नहीं हैं इसलिए वे सारे कार्य एक अल्पांश में एक साथ प्रसंस्कृत हो सकते हैं. इसी रोशनी में, पिछली बार के सपने के बारे में आपका अंदाज़ सही है. यह सपना दरवाज़े पर क़दमों की आहट से शुरू हुआ और दरवाजा खुलने के साथ ख़त्म हो गया. कुल समय दो या तीन  पल.


स्वप्न और सृजनशीलता
पिछली कड़ियों में गिरिजेश राव ने चुटकी ली थी कि सपना देखने का सम्बन्ध कल्पनाशीलता से है. तो उनके बहाने आज का रहस्योद्घाटन - गोरा सपना भैस बराबर. मतलब यह कि सपने गाय भैंस और अन्य (स्तनधारी) प्राणियों को भी वैसे ही आते हैं जैसे हम मनुष्यों को. अब जरा बताइये कि बुद्धू घोसी की भैंस कितनी शायरी करती है या नत्थू कुम्हार का गधा अब तक कितने घोडे पेंट कर चुका है? मतलब यह कि सपने न देखने का (या भूल जाने का) कल्पनाशीलता पर बुरा असर नहीं पडता है. स्वप्न के अनेकों सिद्धांतों में से एक के अनुसार स्वप्न (देखकर) भूल जाना आपके दिमाग (और कल्पनाशीलता) को दुरुस्त रखता है.

"लाल लकड़ी के चालीस लट्ठे" नामक त्रिविमीय कलाकृति का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा खींचा (और पलटा) गया [Forty redwood logs - photograph taken and put upside down by Anurag Sharma]

[क्रमशः]

Tuesday, March 16, 2010

आल इज वैल

कुछ न कुछ चलता न रहे तो ज़िंदगी क्या? इधर बीच में काफी भागदौड़ में व्यस्त रहा. न कुछ लिख सका न ज़्यादा पढ़ सका. इस बीच में बरेली के दंगे की ख़बरों से मन बहुत आहत हुआ. कुल्हाड़ा पीर पर एक बहुत अपनी दुकान भी जलकर राख हो गयी - ऐसा लगा जैसे दंगाइयों ने मेरे बचपन को ही झुलसाने की कोशिश की हो. दंगा कराने वाले जब गिरफ्तार हुए तो कुम्भकर्णी नींद ले रहे समाचार चैनलों की कान पर भी जून रेंगने लगी. बहरहाल, जो पकडे गए वे बरी भी हो गए मगर भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने का कितना उद्यम हुआ यह हम सब जानते हैं. भाई धीरू सिंह (बरेली) और भारतीय नागरिक (बरेली/लखनऊ) यथा समय जानकारी देते रहे, इससे काफी राहत मिली.

कुछ अपनों ने खैरियत पूछी थी. सो बता दूँ कि फिलहाल जापान के एक शोधनगर में हूँ. अगले सप्ताह वापस घर पहुँचूंगा. तब पढ़ना, लिखना और सपनों की यात्रा वापस शुरू होगी. यहाँ तो वसंत आ चुकी है. उसके चित्र बाद में. अभी तो जापानी मुद्रा येन के कुछ चित्र. साथ ही कोका कोला की यह बोतल कुछ अलग सी लगी. कैन और बोतल का संगम याद दिला रहा है कि जापान किस तरह पूर्व और पश्चिम के मूल्यों में समन्वय बिठा सका है सो उसकी तस्वीर भी, ताकि सनद रहे.

सभी को युगादि, नव संवत्सर, चैत्रादि, चेती-चाँद, नव-रात्रि, गुडी पडवो, बोहाग बिहू तदनुसार कलियुग ५११२, सप्तर्षि ५०८५ की हार्दिक शुभकामनाएं!