Monday, June 7, 2010

अंधा प्यार - एक कहानी

आज एक छोटी सी कहानी कुछ अलग तरह की...

रीना
ज़िंदगी मुकम्मल तो कभी भी नहीं थी। बचपन से आज तक कहीं न कहीं, कोई न कोई कमी लगातार बनी रही। बाबा कितनी जल्दी हमें छोड़कर चले गए। अर्थाभाव भी हमेशा ही बना रहा। हाँ, ज़िंदगी कितनी अधूरी थी इसका अहसास उससे मुलाक़ात होने से पहले नहीं हुआ था। समय के साथ हमारा प्यार परवान चढ़ा। ज़िन्दगी पहली बार भरी-पूरी दिखाई दी। हर तरफ बहार ही बहार। जिससे प्यार किया वह विकलांग है तो क्या हुआ? मगर अच्छे दिन कितनी देर टिकते हैं? पहले विवाह और फिर उसके साल भर में ही युद्ध शुरू हो गया। इनकी पलटन भी सीमा पर थी। कितनी बहादुरी से लड़े। मगर फिर भी... हार तो हार ही होती है। कितने दिए बुझ गए। यही क्या कम है कि ये वापस तो आये। मगर लड़ाई ने ज़िंदगी को बिलकुल ही बदल दिया। देश पर जान न्योछावर करने के लिए हँसते-हँसते सीमा पर जाने वाला व्यक्ति कोई और था और हर बात पर आग-बबूला हो जाने वाला जो उदास, हताश, कुंठित, और कलही व्यक्ति वापस आया वह कोई और।

अमित
आँखें नहीं बचीं है तो क्या हुआ? क्या-क्या नहीं देखा है इस छोटी सी ज़िंदगी में। और क्या-क्या नहीं किया है। साम्राज्यवाद की सूली पर इंसानों को गाजर-मूली की तरह कटते देखा है। खुद भी काटा है, इन्हीं हाथों से। बस यही सब देखना बाकी था। आँखें तो भगवान् ने ले ही लीं, जीवन भी उसी युद्धभूमि में क्यों न ले लिया? क्यों छोड़ दिया यह दिन देखने को? तीन साल पहले ही तो रीना से विवाह हुआ था। कितने सपने संजोये थे। क्या-क्या उम्मीदें थीं। हालांकि बाद में दरार आ गई। कितना प्यार दिया रीना को। फिर यह सब कैसे हो गया? वे दोनों एक ही कॉलेज में थे। शायद शादी से पहले ही कुछ रहा होगा। तभी तो इतना नज़दीकी होने के बावजूद दिनेश आया नहीं था शादी में। और उसके बाद भी महीनों तक बचता रहा था। मैं समझता था कि काम के सिलसिले में व्यस्त है। और अब यह छलावा... हे भगवान्! यह कैसी परीक्षा है? यह क्या हो गया है मुझे? मैं तो कभी भी इतना कायर नहीं था? नहीं! मैं हार मानने वाला नहीं हूँ। अगर मेरे जीवन में कुछ गलत हो रहा है तो उसे ठीक करने की ज़िम्मेदारी भी मेरी ही है। एक सच्चा सैनिक प्राणोत्सर्ग से नहीं डरता। पत्नी रीना व बचपन का दोस्त दिनेश, दोनों ऐसे लोग जिनकी खुशी के लिए मैं हँसते-हँसते प्राण दे दूँ। मैं ही हूँ उनकी राह का रोड़ा, उनकी खुशी में बाधक। आज यह रोड़ा हटा ही देता हूँ। वे और परेशान न हों इसलिए इसलिए आत्महत्या ही कर लूंगा... आज ही... उनके सामने। कब तक इस अंधे की छड़ी बनकर अपनी कुर्बानी देती रहेगी?

दिनेश
अपने से ज़्यादा यकीन करता था मेरे ऊपर। मगर लगता है वह बात नहीं रही अब। शक का कीड़ा उसके दिमाग में बैठ गया है। हमेशा मुस्कराता रहता था। मैं रीना को कभी मज़ाक में भाभी जान कहता तो कभी केवल उसे चिढाने के लिए सिर्फ जान भी कह देता था। कभी भी बुरा नहीं मानता था। मगर जब से लड़ाई से वापस आया है सब कुछ बदल गया है। हम दोनों की आवाज़ भी एकसाथ सुन ले तो उबल पड़ता है। हरदम खटका सा लगा रहता है। कहीं कुछ ऊँच-नीच न हो जाये।

रीना
पति के हाथ में भरी हुई पिस्तौल... किसलिए? अपनी पत्नी को मारने के लिए? जितना हुआ बहुत हुआ। क्या-क्या नहीं किया मैंने? इस शादी के लिए अपने प्यार की कुर्बानी। लड़ाई के दिनों में हर रोज़ विधवा होकर फिर से अनाथ हो जाने का वह भयावह अहसास। और... उसके बाद आज का यह नाटक... आज के बाद एक दिन भी इस घर में नहीं रह सकती मैं।

अमित
अपने ऊपर शर्म आ रही है। अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी अपनी पत्नी पर शक किया मैंने। उसका नाम किसी और के साथ जोड़ा। और वह भी उस दोस्त के साथ जिसे मैं बचपन से जानता हूँ। जिसने मेरी खुशी के लिए अपना प्यार भी कुर्बान कर दिया मुझे बताये बिना। आज अगर बिना बताये घर नहीं पहुँचता और उनकी बातें कान में नहीं पडतीं तो शायद कभी सच्चाई नहीं जान पाता। असलियत जाने बिना अपनी जान भी ले लेता और उन्हें भी जीते जी मार दिया होता। दिनेश ने हँसते हँसते मेरी शादी रीना से कराई और उस दिन से आज तक उसे अपनी सगी भाभी से भी बढ़कर आदर दिया। ईश्वर कितना दयालु है जो इन दोनों का त्याग मेरे सामने उजागर हो गया और मेरे हाथ से इतना बड़ा पाप होने से बच गया।

दिनेश
बहुत सह लिया यार। अब भाड़ में गयी दोस्ती। मैं जा रहा हूँ आज ही अपना बोरिया-बिस्तरा बाँध कर। आज तो बाल-बाल बचा हूँ। भरी हुई पिस्तौल थी उसके हाथ में। आज मैं यह लाइन लिख नहीं पाता। गिड़गिड़ाने पर अगर जान बख्श भी देता तो भी मेरी बची हुई टांग तो तोड़ ही डालता शायद। रीना को भी जान से मार सकता था। ये कहो कि बाबा जी की किरपा से हमारी किस्मत अच्छी थी कि हमने उसकी कार बेडरूम की खिड़की से ही देख ली थी और उसके घर में घुसने से पहले ही अपने संवाद बोलने लगे। वरना तो बस राम नाम सत्य हो ही गया था... अपने को बहुत होशियार समझता है... अंधा कहीं का।

[अनुराग शर्मा]

Saturday, June 5, 2010

असीम - कहानी

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वह अन्दर क्या आयी, सारा दफ्तर महक उठा था। रोजाना की उन ग्रामीण गंधों के बीच यह खुशबू ही उसके आने का पता मुझे देती थी। तब मैं मुंबई और पुणे के बीच में एक छोटे से गाँव में एक सरकारी बैंक में एक प्रोबेशनरी अधिकारी की अस्थायी पोस्टिंग पर था। अपने जीवन में पहली बार मैं अपने परिवार से दूर एक ऐसी जगह में था जहाँ की भाषा एवं संस्कृति मेरे लिए नई थी। शाखा में मेरे अलावा पाँच व्यक्ति थे। सभी लोग बहुत अच्छे और नेक थे। अपने स्वाभाव के अनुकूल मैं भी दो एक दिन में ही इस परिवार का अटूट हिस्सा बन गया।

प्रोबेशनरी होने के कारण मैं अपने बैंक की इस शाखा के नियमित स्टाफ में नहीं गिना जाता था। मेरे बैठने के लिए कोई निश्चित जगह भी नहीं थी। आज यहाँ तो कल वहां। मुझे बैंकिंग के सभी आयाम सीखने थे और शाखा में मेरे लिए काम की कोई कमी न थी। घाटे, जोशी, शिंदे और पंवार मुझसे कहीं वरिष्ठ थे। सिर्फ़ ममता ही मेरी हमउम्र थी। जैसे मैं एक प्रोबेशनरी अधिकारी था उसी तरह वह एक प्रोबेशनरी क्लर्क थी। उसने यह नौकरी मुझसे कोई तीन महीने पहले शुरू की थी। वह एक पतली दुबली, आकर्षक और वाक्पटु लडकी थी। वैसे तो सबसे ही हंस बोलकर रहती थी लेकिन मुझसे कुछ अधिक ही घुल मिल रही थी। हाँ, नटखट बहुत थी। मुझे तो हमेशा ही छेड़ती रहती थी।


उस दिन मैं शाखा के एक कोने में अकेला बैठा हुआ रोजनामचा लिख रहा था। तभी ममता अपनी चिर-परिचित मुस्कान बिखेरती हुयी आई और मेरे सामने बैठ कर एकटक मुझे देखने लगी। मैं भी औपचारिकतावश मुस्कराया और फिर अपने काम में लग गया।

“क्या कर रहे हो?” उसने पूछा, “इतना सुंदर लिखते हो तुम।”

और मेरे जवाब का इंतज़ार किए बिना ही बोलती चली गयी।

“तुम्हारी लाइन तो तुम्हारी तरह ही है, सुंदर, साफ और स्पष्ट।”

मैंने काम रोककर उसकी और देखा और देखता ही रह गया। सुंदर तो वह हमेशा ही थी, पर आज कुछ ज़्यादा ही आकर्षक दिख रही थी।

“देख क्या रहे हो …” उसके चेहरे पर शरारत नाचने लगी, “तुम्हारी लाइन तो बिल्कुल क्लियर है।”

उसके कथन ने मुझे हतप्रभ कर दिया। इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, वह उठी और बोली, “डरो मत निखिल, मैं तुम्हें खाने वाली नहीं हूँ।”

वह खिलखिलायी और मेरे उत्तर का इंतज़ार किए बिना अपनी सीट पर चली गयी। मैं आश्चर्यचकित रह गया। अजीब लड़की है यह। मुझे तो इसकी कोई बात समझ नहीं आती है।


उस बार सम्पूर्ण शाखा की तनख्वाह तैयार करने का काम मुझे दिया गया। शायद वह भी मेरी ट्रेनिंग का एक हिस्सा था। मैं एक कोने में बैठा हुआ खाते और केलकुलेटर से जूझ रहा था कि फिजां में खुशबू सी तिरने लगी। हाँ, वह ममता ही थी। उसने मेरी सहायता करने की पेशकश की जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इतने खूबसूरत सहायक को कोई मना भी कैसे कर सकता था। मैं सभी कर्मचारियों के मूल वेतन की गणना करने लगा और वह भत्तों की। बड़ी बड़ी संख्याएँ मेरे सामने कागज़ पर उलझ रही थीं। जोड़ में कोई गलती हो रही थी जिसे मैं पकड़ नही पा रहा था। उसने पूछा तो मैंने बताया।

वह बोली, “तो ढूंढो न। प्यार से देखोगे तो कुछ भी मिल सकता है।”

फिर एकटक मुझे देखा, हँसी और धीमे सुरों में गुनगुनाने लगी, “ढूंढो ढूंढो रे साजना...”

पहली बार मैंने महसूस किया कि वह बहुत सुरीली थी। गाते गाते वह रुकी और मेरी आँखों में आँखें डालकर फिर से गुनगुनाने लगी। इस बार मराठी में शायद कोई कविता थी या कोई ऐसा गीत जो मैंने पहले नहीं सुना था। गीत के बोल कुछ इस तरह से थे:

मामूली मछली के पीछे
दौड़ रहा क्यों इधर उधर
यह मोती तेरे पास गिरा है
दैवी, धवल, अछूता
क्यों अनदेखी करता उसकी
ओ निर्मोही मछुआरे
आगे बढ़कर पा ले उसको
तप तेरा सार्थक हो जाए
श्रम का पूरा फल तू पाये
यह मोती तेरा हो जाए
यह मोती तेरा हो जाए।

मैं सम्मोहित सा उसका गीत सुनता रहा। गीत पूरा होने पर मेरी तंद्रा भंग हुई। कुछ देर प्रयास करने के बाद वेतन की गणना में हो रही गलती भी पकड़ में आ गयी। हम फिर से काम पर लग गए।

जब उसने मेरे पेट्रोल भत्ते के बारे में पूछा तो मैंने कहा, “पाँच।”

“नेट?” उसने पूछा।

मेरा सम्मोहन शायद अभी भी पूरी तरह से उतरा नहीं था इसलिए मैं उसकी बात ठीक से समझ न सका।

“क्या कहा तुमने?”

“मैंने कहा नेट, N-E-T ...” वह खिलखिलायी, “और तुमने क्या सुना - नाइटी?”


धीरे धीरे वह मुझसे और भी खुलने लगी। अब वह हर रोज़ सुबह को काम शुरू करने से पहले दस पन्द्रह मिनट मेरे पास आकर बैठ जाती थी और कुछ न कुछ बात करती थी। एक दिन जब वह अपने स्कूल के दिनों के बारे मैं बता रही थी, शिंदे शरारत से मुस्कुराता हुआ हमारी ओर आया।

“इन लड़कियों से दूर ही रहना निखिल वरना बरबाद हो जाओगे” शिंदे फुसफुसाया।

“निखिल बरबाद होने वालों में से नहीं है” ममता ने मेरा बचाव किया।

“तुम्हारे सामने कौन टिक सकता है?” शिंदे ने चुटकी ली।

“निखिल तो उर्वशी और मेनका के सामने भी डिगने वाला नही, इतना तो मैं जान गई हूँ”, यह कहकर वह खिलखिला उठी।

उसका चेहरा लाल आभा से खिल उठा। उसकी बात सच नही थी। मैं डिगने वाला भले ही न होऊँ मगर आजकल मुझे उसका ख्याल अक्सर आता था। शाखा से चले जाने के बाद भी मानो वह अपना कोई अंश मेरे पास छोड़ जाती थी। मैं सोचने लगा कि शायद मेनका और उर्वशी भी ममता के जैसे ही दिखते होंगे। इसीलिए उनकी सुन्दरता की उपमा आज तक दी जाती है।

ममता ऑफिस में नहीं थी। वह किसी ट्रेनिंग पर मुम्बई गई थी। शिंदे अक्सर किसी न किसी बहाने से उसका नाम लेकर मेरी दुखती रग पर नमक छिड़क जाता था। वह पूरा सप्ताह कठिनाई से बीता। खैर, कठिन दिन भी ख़त्म हुए और वह अपनी ट्रेनिंग पूरी कर के वापस आ गयी। सुबह को वह मेरे पास आकर बैठ गयी और बिना कुछ कहे मुझे अपलक देखती रही। मैं थोड़ा असहज होने लगा था।

“तुम्हें मेरी याद आती थी क्या?” उसने मासूमियत से पूछा।

“ईअर एंड का इतना काम था। तुम्हें याद करने बैठते तो शाखा ही बंद हो जाती।”

“मैं भी कोई कम व्यस्त नहीं थी ट्रेनिंग में, फिर भी मैं तुम्हें रोज़ याद करती थी।” यह कहते हुए उसके चेहरे पर उदासी की कालिमा सी छा गई।

“हरदम सोचती थी कि तुम अकेले बैठे होगे, अकेले खाना खा रहे होगे। किसी से कुछ कहोगे नहीं मगर चुपचाप मुझे ढूंढ रहे होगे।”

उसकी बात चलती रही, “ट्रेनिंग में एक पंजाबी लड़की भी थी। वह मुम्बई की ही एक शाखा से आयी थी। पहले दिन से ही मेरी सखी बन गयी। वह बिल्कुल तुम्हारे जैसे ही हिन्दी बोलती थी। वह जब भी बोलती थी मुझे लगता था जैसे तुम वहाँ पर आ गए हो। अच्छा लगता था।”

बैंक कर्मियों का गाँव वालों के ह्रदय में एक विशेष स्थान था। चाहे गाँव के मन्दिर में कोई समारोह हो या किसी के घर में, हम लोगों को ज़रूर बुलाया जाता था। आज काशिद के बेटे की शादी थी। इसलिए वह बुलावा देने के लिए आया था। अब चूंकि मैं भी इस परिवार का एक हिस्सा था, सो मुझे भी बुलाया गया। उसके जाने के बाद ममता मेरे पास आयी और धीरे से बोली, “काशिद के घर में हर समारोह में मांस ही पकता है, तुम तो शाकाहारी हो। भूखे रह जाओगे वहां पर।”

मैंने सिर हिलाकर हाँ की तो उसने फुसफुसाकर कहा, “तुम मेरे घर आ जाना, मैं कुछ अच्छा बना कर रखूँगी तुम्हारे लिए।”

उस दिन मेरा उसके घर जाना हुआ तो पता लगा कि वह खाना भी बहुत अच्छा बनाती है। लज़ीज़ खाने के बाद हमने बैठकर बहुत सारी बातें कीं। मैंने उसके गाने भी सुने। रात में देर हो गयी थी। उसने कहा भी कि अगर मैं उसके घर रुकना चाहूँ तो उसे कोई आपत्ति नहीं है। वापस आने को दिल तो नहीं कर रहा था लेकिन मैं रात में एक अकेली अविवाहित लडकी के एक कमरे के घर में नहीं रुक सकता था। अपनी सभ्यता के लबादे में लिपटा हुआ मैं, मन मारकर वापस घर आ गया। रात में देर तक नींद नहीं आयी। उसी के ख्याल दिमाग में आते रहे।

समय कैसे गुज़रता गया पता ही नही चला। एक बार एक बेइंतहा खूबसूरत नौजवान दफ्तर में आया। वह सीधा ममता की तरफ़ बढ़ा। ममता भी अपनी सीट से उठकर उसको गले मिली। फिर उसे साथ लेकर मैनेजर के केबिन में गयी। वे दोनों वहीं से बाहर चले गए। दरवाजे से निकलते समय सबकी नज़र बचाकर उसने मुझे वेव किया और मुस्कुरा कर बायीं आँख दबा दी।

उनके आँख से ओझल होते ही शिंदे मेरे पास आया और बताने लगा कि यह लड़का अनिल ममता का मंगेतर है। लड़का बहुत सुंदर था और हर तरह से ममता के लिए उपयुक्त लगता था। फिर भी खुश होने के बजाय मुझे धक्का सा लगा। ममता की शादी तय हो चुकी है मुझे इसका ख्वाब में भी अंदाजा नहीं था। अनिल को ममता के आसपास देखकर मुझे ईर्ष्या होने लगी। उससे भी ज़्यादा दुःख इस बात का हुआ कि ममता ने मुझसे अनिल का या अपनी शादी तय होने का कोई ज़िक्र कभी नहीं किया।

“आज पनवेल चल रहे हो मेरे साथ?” उसने मुझसे हर शनिवार की तरह ही पूछा।

“इस बार तो नही। अगले सप्ताह के बारे में क्या ख्याल है?” मैंने हमेशा की तरह ही दोहराया।

दरअसल शनिवार को हमारी शाखा जल्दी बंद हो जाती थी। ममता हर शनिवार को अपने माता पिता के घर पनवेल चली जाती थी। हर बार वह मुझे साथ ले चलने की बात करती थी। और मैं अगले शनिवार का बहाना करके टाल देता था। ऐसा नहीं कि मैं कभी भी पनवेल नहीं गया। हाँ इतना ज़रूर है कि उसके साथ जाना नहीं हो सका। एक बार, सिर्फ़ एक बार मैं पनवेल में था। वह भी शनिवार का ही दिन था। और मैं ही नहीं, मेरे सारे सहकर्मी भी वहां थे। यह अवसर था ममता और अनिल के विवाह का।

सुंदर तो वह हमेशा से ही थी। परन्तु आज वैवाहिक वस्त्राभूषणों से उसका सौंदर्य दप-दप दमक रहा था। मुझे देखते ही उसका चहकना शुरू हो गया। उसने अपने माता पिता व अनिल से परिचय कराया। मैंने पहली बार अनिल को इतने नजदीक से देखा। मुझे वह बहुत ही सरल, सज्जन और सभ्य लगा। मुझे खुशी हुयी कि ममता उसके साथ खुश रह सकेगी।

शाखा में हमेशा जैसी ही चहल पहल थी। परन्तु उसके बिना सब खाली खाली सा लग रहा था। दिन इतना लंबा हो गया था कि काटे नहीं कटा। एक एक दिन कर के दो हफ्ते इसी तरह मुश्किल से गुज़रे। पन्द्रह दिन के बाद शाखा की रौनक वापस लौटी। मैं शाखा में घुसा तो सब उसे घेरे हुए खड़े थे। वह बहुत खुश दिख रही थी। मुझे देखते ही वह सबको छोड़कर मेरे पास आयी। उसने हाथ बढ़ाया तो मैंने हाथ मिलाकर उसे बधाई दी।

“इस बार सच सच बताना” उसने पूछा, “मेरी याद आती थी न?”

“हाँ” मैं झूठ नहीं बोल सका।

“मुझे भी आयी थी। मैं तो सारा वक्त तुम्हारे बारे में सोचती थी।” उसने बेझिझक कहा।

उसकी बात सुनकर मैं जड़वत रह गया। एक तरफ़ मुझे गुदगुदी भी हो रही थी। ममता जैसी सुंदरी अपने हनीमून पर मेरे बारे में सोचती रही हो। अपनी इससे बड़ी तारीफ़ मैंने आज तक नहीं सुनी थी। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था। इस अनमोल खुशी के साथ साथ मन के किसी कोने में मुझे अपराधबोध भी हुआ। लगा जैसे कि मैंने अनिल के शरीर का एक हिस्सा अनाधिकार ही चुरा लिया हो। ईमानदारी की भावना को मेरे गुनाह-ऐ-बालज्ज़त पर काबू पाते देर न लगी।

“क्या कह रही हो ममता?” मैंने एक एक शब्द को दृढ़ता से कहा, “मेरे बारे में अब सोचना भी मत। मत भूलो कि अब तुम शादीशुदा हो।”

“तो? क्या मैं इंसान नहीं? निखिल, प्यार कोई मिठाई का टुकड़ा नहीं है जो किसी को देने से ख़त्म हो जायेगा। यह तो खुशबू है। जितना दोगे उतना ही फैलेगी।”

यह सब बोलते हुए उसके चेहरे पर गज़ब का तेज था। अपने दोनों हाथों से उसने मेरा दायाँ हाथ पकड़ लिया। उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं। एक विवाहिता भारतीय नारी के सारे चिन्हों ने उसकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा दिया था। मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था। दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। मेरे ह्रदय की हर हलचल से बेखबर वह बोलती जा रही थी।

“मैं एक बहती नदी हूँ और मुझे बहुत दूर तक बहना है। लेकिन अंततः मैं अपने सागर में ही मिलती हूँ। अपने सागर में समर्पित होना मेरा भाग्य है। मेरा सागर अनिल है। और तुम ... तुम एक सुंदर, सुगन्धित उपवन हो। मैं जब तुम्हारे पास से बहकर चली तो तुम्हें निकट से देखने का मन किया। कुछ पल के लिये अपना प्रवाह रोककर मैं तुम्हारे पास बैठ गयी। तुम्हें तो पता है कि मैंने अपना कोई भी किनारा तोड़ा नहीं। मैंने तुमसे कुछ भी लिया नहीं। न ही तुमने मुझसे ऐसा कुछ चुराया जो कि मेरे सागर का था। तुम्हारा यह दो क्षण का साथ, तुम्हारी यह खुशबू मुझे अच्छी लगी और मैंने उसे अपने हृदय में भर लिया। यकीन रखो हमने कुछ भी ग़लत नहीं किया है।”
 
मैं मंत्रमुग्ध सुनता जा रहा था और वह बोलती गयी। दशकों गुज़र गये हैं मगर मुझे अभी तक याद है उसने क्या-क्या कहा।

“जब मैं अपने समुद्र में समा रही थी तो तुम्हारी खुशबू भी मेरे साथ थी।”

[समाप्त]

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(सृजनगाथा में प्रकाशित)
~ अनुराग शर्मा

Thursday, June 3, 2010

यह लेखक बेचारा क्या करे?

कविता और यात्रा संस्मरण के अलावा जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ तो एक बड़ी मुश्किल से गुज़रना पड़ता है। वह है ईमानदारी और सद्भाव के बीच की जंग। लेखन का गुण मुझमें शायद प्राकृतिक नहीं होगा इसलिए मेरी अधिकांश कहानियों में गूढ़ भावपक्ष प्रधान नहीं होता है। सोचता हूँ कि यदि मेरी कहानियाँ, व्यंग्य और लेख विशुद्ध साहित्यिक कृति होते और उनका कथ्य सांकेतिक और अर्थ गूढ़ होता तो शायद इस मुश्किल से बच जाता।

मगर क्या करूँ, साहित्यकार, कवि या कथाकार न होकर किस्सागो ठहरा। मेरी कहानियाँ अक्सर किसी घटना विशेष के चारों ओर घूमती हैं। ज़ाहिर है कि घटना है तो पात्र भी होंगे और एक सत्यवादी के पात्र हैं तो काफी हद तक जैसे के तैसे ही होंगे। जब लोग मेरी कहानियों के संस्मरण होने की आशंका व्यक्त करते हैं तो आश्चर्य नहीं होता है। आश्चर्य तो तब भी नहीं होता है जब लोग मेरे संस्मरणों को भी कहानी कह देते हैं। आश्चर्य तब होता है जब लोग पात्रों को वास्तविक लोगों से मिलाना शुरू करते हैं।

कहानी तो कहानी कई बार तो लोग कविता में भी व्यक्ति विशेष ढूंढ निकालते हैं। यहाँ मैं यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि मेरी कहानियाँ पूर्ण सत्य होने के बावजूद उनका कोई भी पात्र सच्चा नहीं है (हाँ, आत्मकथात्मक उपन्यासों की बात अलग है)। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि एक परिपक्व लेखक की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उसके पात्रों की गोपनीयता और आदर बना रहे। आप कहेंगे कि फिर सिर्फ आदर्शवादी कहानियाँ लिखिये। मगर प्रश्न यह नहीं है कि क्या लिखा गया है, प्रश्न है कि उसे कैसे पढ़ा और क्या समझा गया है। पाठक (या बिना पढ़े ही विरोध करने वाले भावाकुल लोग) किस बात का क्या अर्थ लगायेंगे, यह समझ पाना आसान होता तो तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखकों की जान पर इतना बवाल न होता।

कोई भी लेखक अपने प्रत्येक पाठक की मनस्थिति या परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परन्तु फिर भी एक अच्छे लेखक में इतनी समझ होनी चाहिए कि वह जो कुछ लिख रहा है वह पाठक के लिये कम से कम तकलीफदेह हो। कठिन है, कुछ स्थितियों में शायद असंभव भी हो मगर यदि किसी लेखक की हर पुस्तक हर जगह जलाई जाती है या फिर इसके उलट उस पुस्तक की वजह से हर देश-काल में कुछ लोग ज़िंदा जलाए जाते हैं तो कहीं न कहीं कोई बड़ी गड़बड़ ज़रूर है।

मेरा प्रयास यह रहता है कि मेरी कहानी सच के जितना भी निकट रह सकती है रहे मगर सभी पात्र काल्पनिक हों। कुछ कहानियाँ आत्मकथ्यात्मक सी होती हैं मगर मेरी कथाओं में ऐसा करने का उद्देश्य सिर्फ एक पात्र की संख्या घटाकर कहानी को सरल करना भर है। इससे अधिक कुछ भी नहीं। इसलिए मेरी कहानियों का मैं "अनुराग शर्मा" तो क्या मेरा जाना-पहचाना-देखा-भाला कोई भी हाड़-मांस का व्यक्ति न होकर अनेकानेक वृत्तियों को कहानी के अनुरूप इकट्ठा करके खड़ा किया गया एक आभासी व्यक्तित्व ही होता है। शायद यही वजह हो कि मैं लघुकथाएँ कम लिखता हूँ क्योंकि दो-एक पैराग्राफ में पात्रों के साथ इतनी छूट नहीं मिल पाती है और वे कहीं न कहीं किसी वास्तविक व्यक्तित्व की छायामात्र रह जाते हैं।

लिखते समय अक्सर ही मैं एक और समस्या से दो-चार होता हूँ। यह समस्या पहले वाली समस्या से बड़ी है। वह है लेखक के सामाजिक दायित्व की समस्या। यह समस्या न सिर्फ कविता, कहानी में आती है बल्कि एक छोटी सी टिप्पणी लिखने में भी मुँह बाये खड़ी रहती है। यकीन मानिए, बहुत बार बहुत सी पोस्ट्स पर मैं सिर्फ इसलिए टिप्पणी नहीं छोड़ता हूँ क्योंकि मैं अपनी बात को इतनी स्पष्टता से नहीं कह पाता हूँ कि उसमें से सामाजिक दायित्व की अनिश्चितता का अंश पूर्णतया निकल जाए। सामाजिक दायित्व की बात सहमति, असहमति से अलग है। कुछ व्यक्तियों से इस विषय पर मेरी बातचीत भी हुई है कि किसी पोस्ट-विशेष पर मैंने टिप्पणी क्यों नहीं की या फिर कुछ अलग सी क्यों की। हाँ इतना ज़रूर है कि यदि कोई पोस्ट ही अपने आप में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा रही है तो बात दूसरी है।

इस दायित्व का उदाहरण कई बड़े-बड़े लोगों के छोटे छोटे कृत्यों से स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिये, कुछ लोग एक तरफ तो भगवान् राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगायेंगे मगर उसके साथ ही जान-बूझकर राम और सीता जी के भाई बहन होने या फिर उनके घोर मांसाहारी होने जैसी ऊल-जलूल बातें उछल-उछलकर फैलायेंगे। जो लोग शायद कभी मंदिर न गए हों मगर सिर्फ दूसरे लोगों को भड़काकर मज़ा लेने के लिए देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बार-बार बनाएँ तो यह तय है कि वे जानबूझकर एक परिपक्व नागरिक की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़कर जन-सामान्य की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

विषय से भटकाव ज़रूरी नहीं था इसलिए मुद्दे पर वापस आते हैं। मेरे ख्याल से एक लेखक के लिए - भले ही वह सिर्फ ब्लॉग-लेखक ही क्यों न हो - लेखक होने से पहले अपने नागरिक होने की ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखना अत्यावश्यक है।

जिस तीसरी बात का ध्यान मैं हमेशा रखता हूँ वह है विषय के प्रति ईमानदारी। यह काम मेरे लिए उतना मुश्किल नहीं है जितने कि पहले दोनों। एक आसानी तो यह है कि मैंने अंधी स्वामिभक्ति को सद्गुण नहीं बल्कि दुर्गुण ही समझा है। पहली निष्ठा सत्य के प्रति हो और निस्वार्थ हो तो आपके ज्ञानचक्षु खुले रहने की संभावना बढ़ जाती है। मुझे यह भी फायदा है कि मैं किसी एक देश, धर्म या राजनैतिक विचारधारा से बंधा हुआ नहीं हूँ। जो कहता हूँ वह करने की भी कोशिश करता हूँ तो कोई द्वंद्व पैदा ही नहीं होता। नास्तिक हूँ परन्तु नास्तिक और धर्म-विरोधी का अंतर देख सकता हूँ। इसलिये मुझे दूसरों के धर्म या आस्था को गाली देने की कोई ज़रुरत नहीं लगती है। विषय के प्रति ईमानदारी के मामले में बहुत से लोग मेरे जैसे भाग्यशाली नहीं होते हैं। परिवार, जाति, देश, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, राजनैतिक स्वार्थ आदि के बंधनों से छूटना कठिन है।

संक्षेप में, मेरे लेखन के तीन प्रमुख सूत्र:

1. पात्रों की गोपनीयता
2. पाठकों के प्रति संवेदनशीलता
3. विषय के प्रति सत्यनिष्ठा

क्या कहा, एक महत्वपूर्ण सूत्र छूट गया है? बताइये न वह क्या है?