Tuesday, August 10, 2010

चोर - कहानी

प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। पहले तो इतनी तेज़ महक, ऊपर से आँख में आँसू भी लाता है। जैसे तैसे खा भी लूँ तो मुझे पचता नहीं है। अन्य कई दुष्प्रभाव भी है। गला सूख जाता है और रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं। एक बार प्याज़ खाकर सोया तो देखा कि दस सिर वाली एक विशालकाय मकड़ी मुझे अपने जाल में लपेट रही है।

एक अन्य बार जब प्याज़ खाया तो सपना देखा कि सड़क पर हर तरफ अफ़रातफ़री मची हुई है. ठेले वाले, दुकानदार आदि जान बचाकर भाग रहे हैं। सुना है कि माओवादियों की सरकार बन गयी है और सभी दुकानदारों और ठेला मालिकों को पूंजीवादी अनुसूची में डाल दिया गया है। सरकारी घोषणा में उन्हें अपनी सब चल-अचल सम्पत्ति छोड़कर देश से भागने के लिये 24 घंटे की मोहलत दी गयी है। दो कमरे से अधिक बड़े मकानों को उसमें रहने वाले शोषकों समेत जलाया जा रहा है। सरकारी कब्रिस्तान की लम्बी कतारों में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते शांतचित्त मुर्दों के बीच की ऊँच-नीच मिटाने के उद्देश्य से उनके कफन एक से लाल रंग में रंगे जा रहे हैं। रेल की पटरियाँ, मन्दिर-मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे तोड़े जा रहे हैं। सिगार, हँसिये और हथौड़े मुफ्त बंट रहे हैं और अफ़ीम के खेत काटकर पार्टी मुख्यालय में जमा किये जा रहे हैं। सभी किसान मज़दूरों को अपना नाम पता और चश्मे के नम्बर सहित पूरी व्यक्तिगत जानकारी दो दिन के भीतर पोलित ब्यूरो के गोदाम में जमा करवानी है। कितने ही बूढ़े किसानों ने घबराकर अपने चश्मे तोड़कर नहर में बहा दिये हैं कि कहीं उन्हें पढ़ा-लिखा और खतरनाक समझकर गोली न मार दी जाये। आंख खुलने पर भी मन में अजीब सी दहशत बनी रही। कई बार सोचा कि सुरक्षा की दृष्टि से अपना नाम भगवानदास से बदलकर लेनिन पोलपोट ज़ेडॉङ्ग जैसा कुछ रख लूँ।

पिछ्ली बार का प्याज़ी सपना और भी डरावना था। मैंने देखा कि हॉलीवुड की हीरोइन दूरी शिक्षित वृन्दावन गार्डन में “धक धक करने लगा” गा रही है। अब आप कहेंगे कि दूरी शिक्षित वाला सपना डरावना कैसे हुआ, तो मित्र सपने में वह अकेली नहीं थी। उसके हाथ में हाथ डाले अरबी चोगे में कैनवस का घोडा लिये हुए नंगे पैरों वाला एक बूढ़ा भी था। ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह टोफू सैन था। जब तक मैं पास पहुँचा, टोफू ने अपने साँप जैसे अस्थिविहीन हाथ से दूरी की कमर को लपेट लिया था। दूरी की तेज़ नज़रों ने दूर से ही मुझे आते हुए देख लिया था। किसी अल्हड़ की तरह शरमाते हुए उसने उंगलियों से अपना दुपट्टा उमेठना शुरू कर दिया। वह कुछ कहने लगी मगर पता नहीं शर्म के कारण या अचानक रेतीले हो गये उस बाग में फैलती मुर्दार ऊँट की गन्ध की वजह से वह ऐसे हकलाने लगी कि मैं उसकी बात ज़रा भी समझ न सका।

जब मैंने अपना सुपर साइज़ हीयरिंग एड लगाया तो समझ में आया कि वह अपने पति फाइटर फ़ेणे को तलाक देने की बात कर रही थी। मुझे गहरा धक्का लगा मगर वह कहने लगी कि वह भारत की हरियाली और खुलेपन से तंग आकर टोफू के साथ किसी सूखे रेगिस्तान में भागकर ताउम्र उसके पांव की जूती बनकर सम्मानजनक जीवन बिताना चाहती है।

“लेकिन फाइटर फेणे तो इतना भला है” मैं अभी भी झटका खाये हुए था।

“टोफू जैसा हैंडसम तो नहीं है न!” वह इठलाकर बोली।

“टोफू और सुन्दर? यह कब से हो गया?” मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी, “उसके मुँह में तो दांत भी नहीं हैं।”

“यह तो सोने में सुहागा है” वह कुटिलता से मुस्कुराई।

मैं कुछ कहता कि श्रीमती जी बिना कोई अग्रिम सूचना दिये अचानक ही प्रकट हो गयीं। मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। मुल्ला दो प्याज़ी सपनों में ऐसी डरावनी बातें तो होती ही रहती हैं।

“घर का दरवाज़ा बन्द नहीं किया था क्या?” श्रीमती जी बहुत धीरे से बोलीं।

“फुसफुसा क्यों रही हो सिंहनी जी? तुम्हारी दहाड़ को क्या हुआ? गले में खिचखिच?”

वे फिर से फुसफुसाईं, “श्शशशश! आधी रात है और घर के दरवाज़े भट्टे से खुले हैं, इसका मतलब है कि कोई घर में घुसा है।”

अब मैं पूर्णतया जागृत था।

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Monday, August 9, 2010

बुरुंश के फूल

जब घुघूतीबासूती की कविता "बुरुंश के फूल" पढी तभी द्वार पर लगे इस पौधे के चित्र को साझा करने का विचार मन में आया।

बुज़ुर्गों ने हिमालय कब छोडा, पता नहीं। मगर मैं जब से बरेली छोड्कर पिट्सबर्ग बसा हूँ, अपने को पूरा पहाडी ही समझता हूँ। घर के बाहर सफेद और गुलाबी रोडोडेंड्रॉन लगे हैं। सफेद वाले को बुरुंश कहा जा सकता है या नहीं, मालूम नहीं। शब्द से परिचय शिवानी की कहानियों के द्वारा हुआ था, झाडी से परिचय बोनसाई के शौक के दौरान हुआ और जब यहाँ अपना घर लिया तो यह पौधे पहले से लगे हुए थे।

ऐज़लीया के गुलाबी और सफेद फूल


बडी पत्ती वाले रोडोडेंड्रॉन के गुलाबी फूल





क्वंज़न चेरी ब्लॉसम बहार में


वही क्वंज़न चेरी ब्लॉसम सर्दी में


चेरी ब्लॉसम बर्फ में


चेरी ब्लॉसम पतझड में
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा - All photographs by Anurag Sharma]

Wednesday, August 4, 2010

सम्बन्ध - लघुकथा

कल शनिवार की छुट्टी थी लेकिन वे तरणताल में नहीं थे। पूरा दिन कम्प्यूटर पर बैठकर अपने बचपन के चित्र लेकर उनके सम्पादन और छपाई पर हाथ साफ करते रहे। आज भी कल का बचा काम पूरा किया है। घर होता तो माँ अब तक कई बार कमरे से बाहर न निकलने का उलाहना दे चुकी होती। शायद चाय भी बनाकर रख गयी होती। अब यहाँ परदेस में है ही कौन उनका हाल पूछने वाला। कितनी बार तो कहा है माँ-बाबूजी को कि बस एक बार आकर देख तो लीजिये कैसा लगता है। किस तरह वसंत में पेड़ों से इतने फूल झड़ते हैं जैसे कि आकाश से देव पुष्प वर्षा कर रहे हों। और सड़क के दोनों ओर के हरे-भरे जंगलों से अचानक बीच में आ गये हरिणों के झुंड देखकर बचपन में पढे तपोवनों के वर्णन साक्षात हो जाते हैं। गर्मियों की दोपहरी में लकडी की डैक पर बैठ जाओ तो कृष्णहंस से लेकर गरुड तक हर प्रकार का पक्षी दिखाई दे जाता है। ऐसा मनोरम स्थल है। लेकिन कोई फायदा नहीं। बाबूजी हंसकर कहते हैं, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?" माँ कहेंगी कि बाबूजी के बिना अकेले कैसे आयेंगी। और घूमफिर कर बात वहीं पर आ जाती है जहाँ वे इस समय अकेले बैठकर काम कर रहे हैं।

चालीस के होने को हैं लेकिन अभी तक अकेले। अमेरिका में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके जैसे कितने ही हैं यहाँ पर। किसी ने एक बार भी शादी नहीं की और किसी ने कुछ साल शादीशुदा रहकर आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय ले लिया बिना किसी चिकचिक के। वे कभी-कभी सोचते हैं तो आश्चर्य होता है कि भारतीय समाज में विवाह कितना ज़रूरी है। रिश्वती, चोर-डाकू, हत्यारे, बलात्कारी, जीवन भर चाहे कितने भी कुकर्म करते रहें कोई बात नहीं मगर जहाँ किसी को अविवाहित देखा तो सारे मुहल्ले में अफवाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। यहाँ भी उनके भारतीय परिचित जब भी मिलते हैं, एक ही सवाल करते हैं, "शादी कब कर रहे हो? कब का मुहूर्त निकला है? किसी गोरी को पकड़ लो। अबे इंडिया चला जा ..." आदि-आदि।

शुरू-शुरू में वे सफाई देते थे। वैसे सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनके एक मामा और एक चाचा भी अविवाहित रहे थे। नानाजी के एक भाई तो गांव भर में ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध थे। बुआ-दादी मरने तक अविवाहित रहीं। जिस लड़के को दिल दिया था वह भारी दहेज़ के लोभ में तोताचश्म हो गया। किसी दूसरे के साथ रहने को मन नहीं माना। "मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली" गाते-गाते ही जीवन बिता दिया।

प्रारम्भ में सोचा था कि कुछ पैसा इकट्ठा करके वापस चले जायेंगे। लेकिन दूसरे बहुत से सपनों की तरह यह सपना भी जल्दी ही टूट गया। एक साल भी वहाँ रह नहीं सके। दिन रात सरकारी-अर्धसरकारी विभागों और अखबारों के चक्कर काटने के बावजूद घर के दरवाज़े पर यमलोक के द्वार की तरह खुले पड़े मैनहोल भी बन्द नहीं करवा सके। मकान मालिक के घर में चोरी हुई तो इलाके के थानेदार ने उन्हें सिर्फ इस बात पर चोरों की तरह जलील किया कि उन्होने कोई आहट क्यों नहीं सुनी। और फिर जब स्कूल जाती बच्चियों से छेड़छाड़ करने से रोकने पर कुछ गुंडों ने बीच बाज़ार में ब्लेड से उनकी कमर पर चीरा लगा दिया और रोज़ दुआ सलाम करने वाले दुकानदारों और राहगीरों ने उस समय बीच में पड़ने के बजाय बाद में बाबूजी को समझाना शुरू किया कि इसे वापस भेज दो, विदेश में रहकर सनक गया है, हमारी दुकानदारी चौपट कराएगा तो भयाक्रांत माता-पिता ने भी यही उचित समझा। अब तक उनका मन भी काफी खट्टा हो चुका था सो बिना स्यापा किये वापस आ गये।

खुश ही है यहाँ। अपना घर है, नौकरी भी ठीक-ठाक सी ही है। हाँ, माँ-बाबूजी साथ होते तो उल्लास ही उल्लास होता। छोटी सी कम्पनी है। कुल जमा पांच लोग। पूरे दफ्तर में वह अकेले मर्द हैं। एक बार भारत में चार लड़कियों के बीच काम करना पडा था तो हमेशा सचेत रहना पड़ता था। कभी अंजाने में मुँह से कुछ गलत न निकल जाये। यहाँ ऐसा कुछ चक्कर नहीं है। सच कहूँ तो पांचों के बीच उन्हीं की भाषा सबसे संयत है। यहाँ की संस्कृति भारत-पाक से एकदम अलग है। न ऑनर किलिंग है, न खाप अदालतें। लड़कोंकी तरह लड़कियाँ भी कभी भी अकेले घर से बाहर निकलने में सुरक्षित महसूस करतई हैं। अपना जीवन साथी भी स्वयम ही ढूँढना पड़ता है। स्वयँवर – वैदिक स्टाइल? कई बार लड़कियों ने उनसे भी इस बाबत बात की है परंतु जब उन्होने अरुचि दिखाई तो अपना रास्ता ले लिया।

दिन यूं ही गुज़र रहे थे मगर अब कुछ तो बदलाव आया है। पिछली नौकरी में पाकिस्तानी सहकर्मी करीना के साथ अच्छा अनुभव नहीं रहा था सो वहाँ से त्यागपत्र देकर यहाँ आ गये। यहाँ किसी को भी उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता नहीं है। फिर भी पिछ्ले कुछ दिनों से सोन्या उनके साथ बैठने का कोई न कोई बहाना ढूंढती रहती है, वह भी अकेले में। जब कोई साथ न हो तो उनके पास आकर अपने पति की शिकायत सी करती रहती है। शुरू में तो उन्होने अपने से आधी आयु की लड़की की बात को सामान्य बातचीत समझा। वैसे भी बचपने की दोस्ती में प्यार कम शिकायतें ज़्यादा होती हैं। बाबूजी हमेशा कहते हैं, "नादान की दोस्ती, जी का जंजाल"। जब उन्होने भारतीय अन्दाज़ में सोन्या को समझाया कि बच्चा होने पर घर गुलज़ार हो जायेगा तो सोन्या भड़क गयी, "मुझे उसका बच्चा नहीं पैदा करना है, उसके जैसा ही होगा।"

एक दिन सुबह जब कोई नहीं था तो उनके पास आकर कहने लगी, "आप तो इतने सुन्दर और बुद्धिमान हैं, आपके बच्चे भी बहुत होशियार होंगे।" वह तो अच्छा हुआ कि तभी उनको छींक आ गयी और वे बहाने से गुसलखाने की ओर दौड़ लिये। बात आयी गयी हो गयी। परसों कहने लगी, "आपमें कितना सब्र है, आप बहुत अच्छे पिता सिद्ध होंगे।" तब से उनका दिल धक-धक कर रहा है। दो दिन लगाकर तीन चार चित्र छापे हैं। सुन्दर चौखटों में जड़कर लैप्टॉप के थैले में रख लिये हैं। सोमवार को सोन्या कोई प्रश्न करे इससे पहले ही मेज़ पर धरे यह चित्र स्वयम ही उनका पितृत्व स्थापित कर देंगे और साथ ही एक नये रिश्ते में अनास्था भी। उन्होने मुस्कराकर शाबाशी की एक चपत खुद ही अपनी गंजी होती चान्द पर लगा ली और सोने चल दिये।