Monday, August 11, 2014

दीपशलाका बच्ची - हान्स क्रिश्चियन एंडरसन

हान्स क्रिश्चियन एंडरसन लिखित मार्मिक कथा "माचिस वाली नन्ही बच्ची" डैनिश भाषा में दिसंबर 1845 में पहली बार छपी थी। तब से अब तक अनेक भाषाओं में इसके अनगिनत संस्करण आ चुके हैं। इस कथा पर आधारित संगीत नाटक भी हैं और इस पर फिल्में भी बनी हैं। पहली बार पढ़ते ही मन पर अमिट छाप छोड़ देने वाली यह कहानी मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। मेरे शब्दों में, इस कथा का सार इस प्रकार है:

हान्स क्रिश्चियन एंडरसन (विकीपीडिया से साभार)
नववर्ष की पूर्व संध्या, हाड़ कँपाती सर्दी। दो पैसे की आशा में वह नन्ही सी निर्धन बच्ची सड़क पर माचिस बेच रही थी। बेतरह काँपती उस बच्ची को शायद ठंड पहले से ही जकड़ चुकी थी। इतनी सर्दी में उसे घर पर होना चाहिए था लेकिन वह डरती थी कि अगर एक भी माचिस नहीं बिकी तो उसका क्रूर पिता उसे बुरी तरह पीटेगा। जब ठंड और कमजोरी के कारण चलना भी दूभर हो गया तो वह एक कोने में जा बैठी।

सर्दी बढ़ती जा रही थी। बचने का कोई उपाय न देखकर उसने गर्मी के प्रयास में एक तीली जलाई। आँखों के सामने रोशनी छा गई। उस प्रकाश-पुंज ने उसके सपने मानो साकार कर दिये हों। उसे क्रिसमस ट्री और अनेक उपहार दिखाई दिये। उसे अच्छा लगा। खुश होकर उसने सिर ऊपर उठाया तो आकाश में एक तारा टूटता दिखा।

उसे याद आया कि उसकी दादी, जो अब इस दुनिया में नहीं थीं, ये कहती थीं कि जब कोई तारा टूटता है तो उसका मतलब होता है कि कोई अच्छा इंसान मरा है और अब स्वर्ग जा रहा है। उसे अपनी दादी सामने दिखीं। ये लो, उसकी तीली तो बुझ भी गई। और बुझते ही दादी भी अंधेरे में गुम हो गईं। वह फिर सर्दी से काँपने लगी। उसने एक और तीली जलाई। कुछ गर्माहट हुई और प्रकाश में दादी फिर से दिखने लगीं।

वह तीलियाँ जलाती रही ताकि उसकी दादी कहीं दूर न हो जाएँ। जब उसकी अंतिम तीली बुझने लगी तो दादी ने उसे गोद में उठा लिया और अपने साथ स्वर्ग ले गईं।

[समाप्त]

Sunday, August 3, 2014

3 अगस्त मैथिलीशरण गुप्त का जन्मदिन

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो, समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को
संभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना, पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को, नर हो न निराश करो मन को
काव्यपाठ 1956 (चित्र सौजन्य: आकाशवाणी)
पद्म भूषण मैथिलीशरण गुप्त की "नर हो न निराश करो मन को" का हर शब्द मन में आशा का संचार करता है। हिन्दी की खड़ी बोली कविता के मूर्धन्य कवियों में उनका नाम प्रमुख है। उनका जन्म 3 अगस्त, सन 1885 ईस्वी को झांसी (उत्तर प्रदेश) के चिरगाँव में श्रीमती काशीबाई और सेठ रामचरण गुप्त के घर में हुआ था।  खड़ी-बोली को काव्य-भाषा का रूप देने के प्रयास उन्होने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से किए और अपनी ओजस्वी काव्य-रचनाओं द्वारा अन्य कवियों को भी प्रेरित किया। उनकी रचनाएँ सरस्वती और भारत-भारती में छपीं। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में पंचवटी, जयद्रथ वध, यशोधरा, और साकेत प्रमुख हैं। उन्होने संस्कृत नाटक स्वप्नवासवदत्ता का हिन्दी अनुवाद भी किया। तिलोत्तमा,चंद्रहास, विजयपर्व उनके प्रमुख नाटक हैं।

गुप्त जी का विवाह सन 1895 में 10 वर्ष की अल्पायु में हो गया था। तब बाल-विवाह प्रचलित थे जिनमें विवाह संस्कार बाल्यावस्था में हो जाता था और युवावस्था में गौना करने की परंपरा थी।

परतंत्रता के दिनों में उनकी ओजस्वी लेखनी अनेक भारतीयों की प्रेरणा बनी। स्वतंत्रता संग्राम के समय वे कई बार जेल भी गए।

भारत को स्वतन्त्रता मिलने पर उन्हें पद्म भूषण के अतिरिक्त उन्हे मंगला प्रसाद पारितोषिक भी मिला। स्वतंत्र भारत सरकार ने उन्हें "राष्ट्रकवि" का सम्मान दिया था। 1947 में वे संसद सदस्य बने और 12 दिसंबर 1964 को अपने देहावसान तक सांसद रहे।

गुप्त जी की रचना "आर्य" से कुछ पंक्तियाँ:
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी
भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ, फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ
सम्पूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है, उसका कि जो ऋषि-भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य-भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी आर्य हैं, विद्या, कला, कौशल्य, सबके जो प्रथम आचार्य हैं
सन्तान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े, पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

Saturday, July 12, 2014

गुरु - लघुकथा

गुरुपूर्णिमा पर एक गुरु की याद
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।
बरसों का खोया हुआ मित्र इस तरह अचानक मिल जाये तो खुशी और आश्चर्य का वर्णन संभव नहीं। कहने को हम लोग मात्र तीन साल ही साथ पढे थे लेकिन उतने समय में भी मेरे बालमन को बहुत कुछ सिखा गया था वह एक साथी। बाकी सब ठीक था, बस मुनव्वर मास्साब को उसके सिक्ख होने की वजह से कुछ ऐसी शिकायत थी जिसे हम बच्चे भी दूर से ही भाँप लेते थे। गलत लगती थी लेकिन बड़ों की गलतियों को कैसे रोकें, इतनी अक्ल नहीं थी। न ही ये समझ थी कि इस बात को घर या स्कूल के बड़ों को बताकर उनकी सलाह और सहयोग लिया जाये।

एक गुरु की भेंट (नमन)
मास्साब ने गुरु को सदा जटायु कहकर ही बुलाया, शायद उसके केश से जटा शब्द सोचा और फिर वहाँ से जटायु। थोड़ी बहुत हिंसा वे सभी बच्चों के साथ करते रहते थे लेकिन गुरु के साथ विशेष हिंस्र हो जाते थे। कभी दोनों कान हाथ से पकड़कर उसे एक झटके से अपने चारों और घुमाना, कभी झाड़ियों से इकट्ठी की गई पतली संटियों से सूतना, तो कभी मुर्गा बनाकर पीठ पर ईंटें रखा देना।

लेकिन एक बार वह मेरे कारण पिटा था। सीमाब विष्णुशर्मा नहीं पढ़ पा रहा था। मैं उसे श और ष का अंतर बताने लगा कि अचानक सन्नाटा छा गया। स्पष्ट था कि मुनव्वर मास्साब कक्षा में आ चुके थे। आते ही हमारी बेंच के दूसरे सिरे पर बैठे गुरु को बाल पकड़कर खींचा और पेट में दो-तीन मुक्के लगा दिये।

"मैंने किया क्या सर?" उसने मासूमियत से पूछा। जी भर कर पीट लेने के बाद उसे सीट पर धकेलकर उन्होने उस दिन का पाठ पढ़ाया और कक्षा छोड़ते हुए उससे कहते गए, "आइंदा मेरे क्लास में सीटी बजाने की ज़ुर्रत मत करना जटायु"

बरसों से दबी रही आभार की भावना बाहर आ ही गई, "सचमुच गुरु हो तुम। साथ पढ़ने से ज़्यादा तो वह स्कूल छूटने के बाद सीखा है तुमसे।"

आज इतने सालों के बाद भी मन पर घाव कर रही उस चोट के बोझ को उतारने को बेताब था मैं, "याद है उस दिन सीटी की आवाज़? वह मेरी थी।"

"हा, हा, हा!" बिलकुल पहले जैसे ही हंसने लगा वह, "वह तो मैं तभी समझ गया था, तेरे श्श्श को तो पूरी क्लास ने साफ सुना था।"

"तो कहा क्यों नहीं?"

"क्योंकि बात सीटी की नहीं थी, कभी भी नहीं थी। बात तेरी भी नहीं थी, बात मेरी थी, मेरे अलग दिखने की थी।"

"मैं आज तक बहुत शर्मिंदा हूँ उस बात पर। मुझे खड़े होकर कहना चाहिए था कि वह मैं था।"

"इतनी सी बात को भी नहीं भूला तू अब तक? तेरी आवाज़ मास्साब को सुनाई भी नहीं देती। इतना मगन होकर मेरी पिटाई करते थे वे। रात गई बात गई। रब की किरपा है, हम सब अपनी-अपनी जगह खुश हैं, यही बहुत है। मास्साब भी जहां भी हों खुश रहें।"

वही निश्छल मुस्कान, ज़रा भी कड़वाहट नहीं। आज गुरु पूर्णिमा पर याद आया कि मैंने तो गुरु से बहुत कुछ सीखा। काश मास्साब भी इंसानियत का पाठ सीख पाते।